असम में एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीज़न आने के बाद 19 लाख से ज्यादा लोगों के नाम इससे बाहर हो गए। यानी, उनके लिए अब विदेशी न्यायाधिकरण ही एकमात्र सहारा है, लेकिन इन न्यायाधिकरणों में किस तरह काम हो रहा है, यह जानना दिलचस्प है। क्या यह बातसंदेह पैदा नहीं करती कि आखिर क्यों 58 फीसदी मामलों में एकपक्षीय फैसले में लोगों को विदेशी करार दे दिया गया? इस ‘क्यों’ का जवाब पाने के लिए किसी उदाहरण को सामने रखकर बात करना बेहतर होगा।
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हसन अली (बदला हुआ नाम) बरपेटा के रहने वाले हैं। उनका नाम एनआरसी में नहीं आया। उन्हें 2018 के अंत में नोटिस मिला। कहानी आगे बढ़े, इससे पहले यह जानना जरूरी है कि एनआरसी से नाम कैसे हटाए जाते हैं और उसकी प्रक्रिया क्या होती है। जब मतदाता सूची संशोधित हो रही हो और स्थानीय जांच अधिकारी को पड़ताल के दौरान कोई संदिग्ध मतदाता मिलता है तो उसे इस संबंध में फॉर्म भरकर संबद्ध विधानसभा क्षेत्र के निर्वाचन पंजीयन अधिकारी (ईआरओ) को भेजना होता है। इसे फॉर्म-ए कहते हैं। इसके बाद ईआरओ को यह देखना होता है कि उस व्यक्ति को संदिग्ध मतदाता मानने के पर्याप्त कारण हैं या नहीं। फिर ईआरओ को फॉर्म- बी भरकर उसे आगे की जांच के लिए जिला पुलिस अधीक्षक को भेजना होता है।
एसपी की जिम्मेदारी होती है कि वह मामला दर्ज करके अपराध दंड संहिता के तहत जांच करे। इसके बाद अगर ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिससे उस व्यक्ति को संदिग्ध वोटर मानने का फैसला सही साबित हो तो एसपी मामले को उस क्षेत्र के विदेशी न्यायाधिकरण को भेजेगा और फिर न्यायाधिकरण उस व्यक्ति को नोटिस भेजेगा।
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वैसे, किसी व्यक्ति को विदेशी करार देने का एक और तरीका है- अगर स्थानीय पुलिस ने अपराध दंड संहिता के तहत अपनी ओर से किसी व्यक्ति की जांच की हो, बेशक उस प्रक्रिया में निर्वाचन अधिकारी शामिल न हुए हों, और उस व्यक्ति के विदेशी होने का प्रमाण पाया गया हो।
खैर, वापस आइए हसन अली की कहानी पर। हसन अली को 2018 के अंत में ऐसे ही न्यायाधिकरण से नोटिस मिला। हसन अली के फॉर्म-ए में मतदाता सूची में दर्ज जानकारी के अलावा कोई नई बात नहीं। उसमें केवल हसन अली के पिता का नाम और उसके गांव का नाम दर्ज है। मातृ भाषा, परिवार का ब्योरा जैसे बाकी सारे खाने खाली हैं। इस फॉर्म को भरने वाले अधिकारी का दावा है कि उसने 1997 में जांच की। इस फॉर्म को उसी साल ईआरओ को भेजा गया। अगर कोई निष्पक्ष अधिकारी होता तो वह फार्म-ए की गड़बड़ियों पर आपत्ति करता, लेकिन उसने फॉर्म-बी भरा और एसपी को भेज दिया।
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इन दोनों फार्मों में ऐसी कोई जानकारी नहीं जिससे संदेह होता हो कि हसन अली विदेशी है। इसके बाद एसपी अपनी रिपोर्ट में लिख देते हैं कि हसन अली के विदेशी होने का संदेह है। एसपी ने न्यायाधिकरण को जो रिपोर्ट भेजी, उसके साथ कोई कागजात नहीं था और न ही इसका ब्योरा कि मामले में किन लोगों से पूछताछ की गई और उन लोगों ने क्या कहा। उसके बाद न्यायाधिकरण हसन अली के पते पर हुसैन अली के नाम से नोटिस भेजता है।
इन बीस सालों के दौरान कभी भी हसन अली को इस बात का अंदाजा भी नहीं हुआ कि उस पर विदेशी होने का संदेह किया जा रहा है। मजेदार तथ्य है कि इस नोटिस में भी इस बात का कोई जिक्र नहीं कि हसन अली पर किस आधार पर विदेशी होने का संदेह किया जा रहा है, जबकि नियमों के मुताबिक नोटिस में इसका होना जरूरी है।
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हसन का परिवार असम में दो शताब्दियों से भी अधिक समय से रह रहा है। उसके ज्यादातर भाई दैनिक मजदूरी का काम करते हैं। ये लोग मूलतः बाक्सा जिले के रहने वाले हैं, लेकिन 1994 में सांप्रदायिक हिंसा में घर फूंक दिए जाने के बाद वे बरपेटा आ गए। अगर किसी भी जांच अधिकारी ने उनके घर जाकर पूछताछ करने की कोशिश की होती तो यह बात सामने आ जाती। बहरहाल, हसन अली के वकील ने न्यायाधिकरण के सामने दलील रखी कि नोटिस देते समय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया क्योंकि इसमें विदेशी होने के संदेह का कोई कारण नहीं बताया गया है।
वकील ने रिपोर्ट की सर्टिफाइड कॉपी की भी मांग की, लेकिन न्यायाधिकरण इस पर टाल-मटोल करता रहा। नियम के मुताबिक न्यायाधिकरण से कागजात स्टांप पेपर पर मिलते हैं, फोटो कॉपी के रूप में नहीं। हसन अली के वकील के काफी बहस करने के बाद अंततः न्यायाधिकरण कागजात उपलब्ध कराने को तैयार हुआ। लेकिन, इसके बाद न्यायाधिकरण के एक क्लर्क ने हसन अली को फोन किया और उसे डराने-धमकाने की कोशिश करने लगा। उसने कहा कि हसन का वकील विदेशी न्यायाधिकरण के कामकाज में समस्या पैदा कर रहा है, लिहाजा, वह अपने वकील बदल दे। हसन अली की याचिका अब भी लंबित है और न तो इस मामले में कोई ऑर्डर दिया गया है और न ही कोई तारीख लगाई गई है।
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अगर कोई व्यक्ति अपना जवाब दाखिल नहीं करता तो न्यायाधिकरण उसे एकपक्षीय आदेश में विदेशी घोषित कर देता है। हसन अली के मामले में जो कुछ हुआ या हो रहा है, वह अजूबा नहीं। जिन्हें नोटिस भेजा जाता है, वे गरीब और अनपढ़ ही होते हैं और उन्हें समझ नहीं आता कि राज्य में 60 साल से भी अधिक समय से रहने के बावजूद उन्हें क्यों नोटिस भेजा गया। ज्यादातर को यह भी नहीं पता होता कि नोटिस मिलने के बाद उन्हें क्या करना चाहिए। शायद यह भी वजह है कि 58 फीसदी मामलों में एक पक्षीय तरीके से लोगों को विदेशी घोषित किया गया।
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एनआरसी के तहत लोगों की जांच-पड़ताल का काम 1997/1998 में शुरू हुआ था। तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की बीजेपी सरकार थी और असम में प्रफुल्ल कुमार महंत की असम गण परिषद की।
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