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इमाम हुसैन की शहादत को याद कर शोक मनाने का दिन है आशुरा, भूलवश लोग दे देतें हैं इस दिन की बधाई

इस्लाम के शिया मत के लोग हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए महीने के शुरु से 10 तारीख तक शोक या मातम मनाते हैं। जबकि सुन्नी मत के लोग 8 से 10 तारीख तक तीन दिन उपवास या रोजे रखते हैं।

फोटोः विपिन
फोटोः विपिन 

आज यौम-ए-आशुरा है। यानी इस्लामी कैलेंडर के मुहर्रम माह की दस तारीख। यह इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत को याद करने का दिन है। इस दिन को अन्याय के खिलाफ न्याय की जीत और बुराइयों से बचने के दिन के तौर पर याद दिया जाता है। इस दिन मुस्लिम समुदाय के विभिन्न मत के लोग अपने हिसाब से इस शहादत को याद करते हैं।

इस्लामी कैलेंडर हिजरी सन्‌ का आगाज इसी महीने से होता है। यानी यह साल का पहला महीना होता है और मुहर्रम को इस्लामी कैलेंडर के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सअ.) ने इस माह को अल्लाह का महीना कहा है।

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मुहर्रम शब्द अरबी के 'हराम' या 'हुरमत' से बना है जिसका अर्थ होता है 'रोका हुआ' या 'निषिद्ध' किया गया। मुहर्रम के महीने में युद्ध से रुकने और बुराइयों से बचने की सलाह दी गई। माना जाता है कि इसी महीने में पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब को अपना जन्मस्थान मक्का छोड़ कर मदीना जाना पड़ा जिसे हिजरत कहते हैं। उनके नवासे हज़रत इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों की शहादत इसी महीने में हुई ।

इस्लाम के शिया मत के लोग हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए महीने के शुरु से 10 तारीख तक शोक या मातम मनाते हैं। जबकि सुन्नी मत के लोग 8 से 10 तारीख तक तीन दिन उपवास या रोजे रखते हैं।

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उपमहाद्वीप के मुस्लिम समुदाय में यह आम धारणा है कि मुहर्रम महीने की पहली तारीख से अगले चालीस दिन यानी चेहल्लुम तक विवाह आदि जैसा कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। इस पूरी समयावधि को शोककाल के तौर पर मनाया जाता है, क्योंकि पैगम्बर मोहम्मद (सअ.) के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों को खलीफ यज़ीद ने इसी माह की शुरुआती तारीखों में शहीद कर दिया था।

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तो क्या नया साल शुरु होने पर शुभकामनाएं नहीं दी जानी चाहिए? यह सवाल काफी समय से चर्चा में रहा। मुस्लिम समुदाय के एक धड़े ने मुहर्रम माह की पहली तारीख को यानी नए साल के पहले दिन को शुभकामनाएं देना शुरु किया लेकिन बाकी अगले दस दिन तक यह धड़ा भी शोक मनाता है। दूसरी तरफ शिया समुदाय दो महीने और 8 दिन का शोक मनाता है और इस दौरान कोई शुभ काम नहीं होता बल्कि नए परिधान तक नहीं पहने जाते हैं।

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रिवायत है कि जब पैगम्बर के नवासे इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ मदीना छोड़कर जा रहे थे तो उन्होंने करबला में एक नदी के किनारे पनाह ली थी। उन्होंने खलीफा यजीद की ज्यादतियों के चलते उसके शासन को मानने से इनकार कर दिया था। इससे नाराज यजीद ने मुहर्रम माह की तीन तारीख को अपनी फौजें वहां तैनात कर दीं और उनके पानी लेने तक पर पाबंदी लगा दी।

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7 तारीख तक तो इमाम हुसैन के पूरे लश्कर ने किसी तरह काम चलाया लेकिन इसके बाद पानी के लिए जंग हुई। इंसाफ की इस जंग में मुहर्रम की 10वीं तारीख तक इमाम हुसैन और उनके सभी साथियों को यजीद की फौज ने बेरहमी से कत्ल कर दिया। मुस्लिम समुदाय इमाम हुसैन की इसी शहादत का शोक मनाता है और मान्यता है कि इमाम हुसैन ने उसूलों और इस्लाम के लिए अपनी जान दे दी, लेकिन जालिम और जुल्म के सामने नहीं झुके।

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वक्त के साथ मुस्लिम समुदाय में भी बदलाव आया है। हालांकि इस शहादत को याद किया जाता है लेकिन जिंदगी तो चलती रहती है। इसी कड़ी में कुछ लोगों ने मुहर्रम की पहली तारीख को यानी इस्लामी वर्ष की शुरुआत पर एक-दूसरे को मुबारकबाद देना शुरु किया। लेकिन बाकी दिन शोक ही मनाया जाता है। हालांकि भूलवश कुछ लोग आशुरा यानी मुहर्रम माह की 10 तारीख को भी मुबारकबाद या बधाई दे देते हैं। संभवत: इसलिए कि इस दिन अवकाश होता है, और लोगों को इसकी जानकारी नहीं है कि यह शोक का अवसर है न कि आनंद का।

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