उत्तर प्रदेश में अब चुनाव होने हैं। पश्चिम यूपी का किसान खासा आंदोलित है और माना जा रहा है कि किसान का संघर्ष इस बार निर्णायक भूमिका निभाएगा। तो दिवाकर ने सोचा, यू पी के पूर्वी इलाकों के गांवों में जाया जाए। लखनऊ पहुंचने पर नागेन्द्र का साथ मिला। इन दोनों ने जो देखा-समझा, उससे शायद जमीनी हालात का कुछ अंदाजा मिले। पढ़िए इस दौरे की दूसरी किस्त
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक आने के साथ ही बीजेपी हिन्दुत्व की तलवार की सान यथासंभव तेज करने जुटी हुई है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, काशी में विश्वनाथ मंदिर परिसर का नया रूप, मथुरा में श्रीकृष्ण मंदिर के 10 किलोमीटर दायरे में नॉनवेज और शराब की बिक्री पर पाबंदी कुछ मिसालेंं हैं।
हम लोग दीपावली से एक दिन पहले गोरखपुर-लखनऊ हाईवे पर थे। अयोध्या में दीपोत्सव के अवसर पर हाईवे पर जगह-जगह जय श्रीराम वाले तथा केरल के कुम्बला गांव के ग्राफिक डिजाइनर करन आचार्य के ‘गुस्से में हनुमान’ पोस्टर वाले ध्वजों के साथ राष्ट्रीय ध्वज लहलहाते दिखे।
इन सबके बीच लोगों का ध्यान मगहर पर कम है। आप जानते हैं कि मगहर धार्मिक आडंबरों के खिलाफ जीवन भर संघर्ष करने वाले संत कबीर की निर्वाण स्थली है। कहते हैं कि जब उन्होंने शरीर छोड़ा, तो उनके पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार विधि को लेकर मुसलमानों और हिन्दुओं में झगड़ा होने लगा था, लेकिन बाद में लोगों ने देखा, तो वहां सिर्फ कुछ फूल पड़े मिले। इसी वजह से यहां कबीर का मजार भी है और मंदिर भी। एक छोटी गुफा भी है जिसके बारे में माना जाता है कि कबीर वहीं बैठकर साधना करते थे। प्रतीक तौर पर इस गुफा और मजार में तो लकड़ी की खड़ाऊं रखी गई हैं, लेकिन मंदिर में कबीर प्रतिमा के सामने रखी खड़ाऊं चांदी की है। गुफा परिसर में सती का मंदिर भी है।
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28 जून, 2018 को कबीरदास के 620वें प्राकट्य दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मगहर पहुंचकर उनकी मज़ार पर चादर चढ़ाई और फिर बाद में हुई रैली में कहा कि ‘आज मैं उस गुफा को भी देख पाया, जहां कबीरदास जी साधना किया करते थे। ऐसा कहते हैं कि यहीं पर संत कबीर, गुरुनानक देव और बाबा गोरखनाथ जी ने एक साथ बैठ कर आध्यात्मिक चर्चा की थी।’ उनके इस दावे पर अब तक विवाद है क्योंकि कबीर का जीवनकाल 1398 से 1518 ई. तक बताया जाता है, यानी 14वीं और 15वीं शताब्दी। वहीं गुरुनानक देव का जीवनकाल 1469 से 1539 ई. का, यानी 15वीं और 16वीं शताब्दी। ज्यादातर इतिहासकार गोरखनाथ का जीवनकाल इन दोनों से कहीं पहले 11वीं शताब्दी का बताते हैं, हालांकि, कुछ इसे 12वीं, 13वीं और यहां तक कि 14वीं शताब्दी भी बताते हैं।
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हम जब वहां पहुंचे तो यहां के महंत विचार दास ने हमलोगों से कहा कि इसे लेकर ‘कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए। पहले गोरख पीठ पर बैठने वाले हर व्यक्ति को गोरखनाथ ही कहा जाता था। कबीरदास के समय जो गोरक्षपीठ पर आसीन थे, उन्हें भी गोरखनाथ कहा जाता था और उनसे ही उनका सत्संग हुआ था। उनके और गुरुनानक देव के साथ कबीर के चर्चा करने के चार-चार प्रसंग आते हैं।’
मूल रूप से हाजीपुर के रहने वाले संत अरविन्द दास शास्त्री की किताब ‘काशी से मगहर’ का 2019 में छपा छठा संस्करण यहां हमें मिला जिनमें भी ये बातें लिखी हैं। इसमें बताया गया है कि कबीर वाराणसी में एक कमल पुष्प पर अवतरित हुए थे और उनका लालन-पालन मुस्लिम परिवार में हुआ था। पर चौंकिए नहीं, यही बातें हिन्दी विकिपीडिया पर भी आपको मिल जाएंगी। यानी अब कबीर का धर्म तय कर दिया गया है और उन्हें हिंदू संत के नाम से प्रचारित करने का काम भी जोर-शोर से शुरु हो चुका है।
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