बीजेपी और एनडीए को जिस तरह का बहुमत मिला है, वह अनोखा नहीं है। इससे पहले इससे भी बड़े बहुमत से कांग्रेस सत्तासीन होती रही है। लेकिन इस बार एक नई परंपरा शुरू की गई है और उससे बात आरंभ करने से पूरे मसले को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
नवजीवन से बात करते हुए राज्यसभा के पूर्व सदस्य और सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने कहा कि आम तौर पर चुनावों के बाद संसद का गठन होने पर इसका पहला सत्र एक सप्ताह या इसके आसपास होता आया है। तब संसद की विभिन्न समितियों का गठन होता था। इस बार सिर्फ हाउस कमेटी बनी है जिसका काम नए सांसदों के लिए आवास की व्यवस्था करना है। संसद की स्थायी समिति (स्टैंडिंग कमेटी) या प्रवर समिति (सेलेक्ट कमिटी) इस बार बनाई ही नहीं गई है, जिनका काम किसी बिल के विस्तार में जाकर उसकी समीक्षा करना है। इस समिति में विभिन्न दलों के सदस्य होते हैं और इस वजह से बिलों का एक तरह से, संसदीय परीक्षण हो जाता है और सरकार को भी उसकी सिफारिशों के अनुरूप बिलों में बदलाव का अवसर मिल जाता है। येचुरी कहते हैं कि इस बार इन समितियों का गठन नहीं होना अभूतपूर्व किस्म की घटना है।
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वहीं संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के महासचिव रहे पी डी टी आचार्य भी कहते हैं कि संसदीय समितियों में विचार-विमर्श के जरिये बिलों की जांच इसलिए जरूरी है क्योंकि ये बिल सरकार द्वारा नियुक्त किए गए विशेषज्ञ तैयार करते हैं और कोई आवश्यक नहीं है कि वे संसद में पास किए जाने वाले बिलों के बारीक बिंदुओं को समझ सकें और इन बिलों से 1.25 अरब लोगों के दैनिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का ठीक ढंग से आकलन कर सकें। आचार्य कहते हैं कि 14वीं और 15वीं लोकसभा में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर महसूस किया कि इन समितियों में भेजे जाने पर बिलों में बेहतरी हुई क्योंकि इनमें सभी मुद्दों पर विचार- विमर्श किया गया। ये समितियां चूंकि विषय विशेषज्ञों, शिक्षाविदों, सिविल सोसाइटी के सदस्यों और सरकार के प्रतिनिधियों- सबसे विचार-विमर्श करती हैं इसलिए उसमें सभी पक्षों की राय के आधार पर किसी एक राय तक पहुंचा जाता है। इनके आधार पर सरकार प्रस्तावित कानून में उचित बातों को शामिल करती है।
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आचार्य कहते हैं कि इस तरह की जांच-पड़ताल सत्र के दौरान सीमित समय में संसद में कुछ घंटे की बहस में संभव नहीं हो पाती। उन्होंने कहा कि अधिकांश समितियां स्थायी (स्टैंडिंग) होती हैं क्योंकि वे बिना रुकावट बनी रहती हैं और आम तौर पर उनका गठन साल भर के लिए होता है, जबकि प्रवर (सेलेक्ट) समितियां किन्हीं खास बिलों के लिए बनाई जाती हैं। उनका यह भी कहना था कि उनके कार्यकाल में अध्यक्ष ने अधिकांश बिलों को संसदीय समितियों के पास भेजा था।
राज्यसभा के पूर्व महासचिव और इन दिनों हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय में कुलपति योगेन्द्र नारायण का कहना है कि इन समितियों के गठन के बाद बिल इन्हें भेजना ही चाहिए। वह यह भी जोड़ते हैं कि ठीक है कि बीजेपी के अपार बहुमत की वजह से विपक्ष का लोकसभा में कुछ न चल पाया लेकिन उसे कम-से- कम राज्यसभा में तो एकजुट होना चाहिए था। वहां अगर विपक्ष में एकजुटता होती, तो वे बिलों को प्रवर समितियों में भेजने का दबाव बना सकते थे।
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वैसे, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक ट्रस्टी प्रो. जगदीप चोखर भी लगभग इसी राय के हैं। वह यह भी कहते हैं कि 2012 से ही संसद में इसी तरह की परिपाटी रही है। इस बार आरटीआई संशोधन विधेयक के खिलाफ विपक्ष से जिस तरह की एकजुटता की उम्मीद थी, उसका नहीं दिखना निराशाजनक था। विपक्ष को इस मसले पर बहिष्कार नहीं करना चाहिए था।
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इन सब वजहों से क्या हो रहा है, इसका अंदाजा अभी आम लोगों को नहीं है। इसकी वजह यह भी है कि जो बिल संसद से पास हो चुके हैं, उन्हें लेकर विस्तार से जानकारी लोगों को नहीं है। कुछ उदाहरण देखने पर बात समझ में आएगी कि हम किस दिशा की ओर बढ़ रहे हैंः
हिंदू पर्सनल लॉ में पत्नी से अलग होने पर किसी पुरुष पर आपराधिक कृत्य के तहत दंड का प्रावधान नहीं है लेकिन मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों की रक्षा) बिल में शौहर पर गैरजमानती अपराध का प्रावधान है। एक तरह से, यह संभवतः पहला कानून होगा जो मुसलमानों को अपने ही देश में दूसरे दर्जे की नागरिकता देगी। एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने बिल का विरोध करते हुए कहा भी कि जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर रोक लगा दी है, तो सरकार क्यों मुस्लिम पुरुषों को जेल भेजना चाहती है? उन्होंने यह सवाल भी रखा कि जब पति जेल चला जाएगा, तो वहां रहते हुए वह अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता आखिर किस तरह देगा।
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गैरकानूनी गतिविधियां (निरोधक) कानून की अनुसूची 4 के तहत राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) अब आतंकी संबंधों के संदेह में किसी व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित कर सकती है। पहले सिर्फ संगठनों को ही आतंकी घोषित किया जाता था और उनसे संबद्ध पाए जाने पर किसी व्यक्ति पर कार्रवाई की जाती थी लेकिन अब इस तरह के आरोप में किसी व्यक्ति पर भी कार्रवाई करने का अधिकार एनआईए को मिल गया है। अब एनआईए महानिदेशक को यह अधिकार भी मिल गया है कि अगर एनआईए किसी मामले की जांच कर रहा है, तो वह देश में कहीं भी किसी संपत्ति को जब्त करने या कुर्की करने को कह सकते हैं। अभी जो प्रावधान हैं, उसके अनुसार, अगर किसी संपत्ति का आतंकवादी गतिविधियों में उपयोग करने का शक हो, तो एनआईए को संबधित राज्य के पुलिस महानिदेशक से उसे जब्त करने की अनुमति लेनी होती है। इस विधेयक में इंस्पेक्टर या उससे ऊपर के रैंक के अधिकारी को किसी मामले की जांच करने का अधिकार दिया गया है। सरकार की तरफ से गृह मंत्री अमित शाह ने अपना इरादा भी साफ कर दिया है। उन्होंने कहा कि देश की सुरक्षा और संप्रभुता के खिलाफ आतंकी गतिविधियों में शामिल अरबन माओवादियों समेत सभी लोगों को जांच एजेंसियां छोड़ेंगी नहीं। संपत्ति कुर्क करने का अधिकार एनआईए डीजी को दिए जाने को लेकर शाह ने कहा कि कड़ा कानून तब ही फलदायी होता है जब वह व्यावहारिक तौर पर उपयोग के लायक हो। उनका कहना था कि अभी आतंकी मामलों की जांच करने के लिए एनआईए को संबंधित राज्य के पुलिस महानिदेशक से अनुमति लेनी होती है और इसमें समय लगता है जिससे देरी होती है।
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इन सबसे दो तरह के खतरे हैंः
एक, जैसा कि सुधीर धवाले, सुरेंद्र गाडलिंग, महेश राउत, शोमा सेन, रोना विल्सन, सुधा भारद्वाज, अरुण फरेरा-जैसे लेखकों, बुद्धिजीवियों और सोशल एक्टिविस्टों की समय-समय पर हुई गिरफ्तारियों से साफ है, सरकार उसके कामों और उसकी नीतियों के खिलाफ जरा भी आवाज उठाने वाले किसी भी व्यक्ति को कभी भी, कहीं से भी गिरफ्तार कर सकती है।
दो, यह देश के संघीय ढांचे को भी कमजोर करने वाला है। राज्यों के डीजीपी के अधिकारों को यह सीमित करने वाला है। नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल से ही केंद्र सरकार के साथ कई राज्यों के संबंध तनावपूर्ण बने हुए हैं।
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प्रसिद्ध अधिवक्ता प्रशांत भूषण का कहना है कि यूएपीए बिल की भाषा भी अस्पष्ट है। इस कानून का उपयोग किसी भी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सरकार कर सकती है जो उसके कामकाज की आलोचना करे। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस राय के हैं कि यूएपीए को बहुत ही कम विचार-विमर्श के बाद पास कर दिया गया। यह किसी भी असहमतिपूर्ण आवाज के खिलाफ सरकार को ऐसी शक्ति देता है कि वह उसे आतंकवादी घोषित कर दे।
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आरटीआई कानून को इस बिल के जरिये हर तरह से कमजोर कर दिया गया है। यह समझने की जरूरत है कि सरकार यह बिल लाई ही क्यों? दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में सूचना आयोग के कुछ आदेश सरकार को असहज करने वाले थे। सरकार अर्थव्यवस्था और अपने कामकाज को लेकर कई जानकारियां छिपाए रखना चाहती थी लेकिन आयोग की वजह से उसे इन्हें सार्वजनिक भी करना पड़ रहा था।
दो ही उदाहरण काफी होंगेः
एक, प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री का विवाद
दो, सरकारी के बैंकों का एनपीए
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पहले सूचना आयुक्तों के वेतन और कार्यकाल का निर्धारण सरकार को नहीं करना था क्योंकि इनका पद केंद्रीय सूचना आयोग के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और राज्यों के मामले में हाईकोर्ट के न्यायाधीश के समकक्ष माना गया था। लेकिन अब इन दोनों ही मामलों में अधिकार केंद्र सरकार के हाथ आ गए हैं। स्वाभाविक है कि जब सूचना देने के आदेश देने वाले व्यक्तियों को इन चीजों के लिए सरकार पर निर्भर रहना होगा, तो वे असहज करने वाले आदेश देकर अपना भविष्य क्यों चैपट करना चाहेंगे।
इन्हीं स्थितियों के कारण लोकसभा में बहस के दौरान कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा कि मूल रूप से जब 2005 में सूचना का अधिकार कानून बना था, तो वह सत्ता में बैठे लोगों को असहज करने के लिए था, जबकि ये संशोधन सरकार को सहज करने वाले हैं।
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वैसे, आम राय यह है कि इन विधेयकों को लेकर कोर्ट में लोग बड़े आराम से जा सकते हैं और सरकार के लिए वहां उनका बचाव करना मुश्किल ही होगा। लेकिन प्रशांत भूषण को बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं हैं। उनका कहना है कि पहले कोर्ट कुछ राहत दे देते थे लेकिन इस सरकार ने लगातार जिस तरह वहां की व्यवस्था पर आक्रमण किया है, उससे वहां से भी राहत की उम्मीद कम ही है।
इन्हीं वजहों से लगता है कि हम पुलिस स्टेट- मतलब, दमनकारी शासन, की ओर बढ़ रहे हैं। जनांदोलन और राजनीतिक- न्यायिक हस्तक्षेप के जरिये ही इन्हें रोका जा सकता है।
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