उत्तर प्रदेश सरकार के बहुचर्चित धर्मांतरण विरोधी नए कानून पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने कई गंभीर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने कहा कि यह कानून कोर्ट में टिक नहीं सकेगा, क्योंकि इसमें कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण से कई बड़ी खामियां हैं। साथ ही उन्होंने कहा कि आज देश में ‘सामाजिक न्याय’ का विचार ठंडे बस्ते में चला गया है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में उतनी सक्रियता नहीं दिखा रहा है, जितनी उसे दिखाना चाहिए था।
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जस्टिस मदन बी लोकुर ने ये बातें दिल्ली हाईकोर्ट के दिवंगत पूर्व चीफ जस्टिस राजेंद्र सच्चर पर लिखी किताब ‘इन पर्सूट ऑफ जस्टिस एन ऑटोबायोग्राफी’ के विमोचन पर ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्यायपालिका’ विषय पर परिचर्चा में कही। इस दौरान जस्टिस लोकुर ने कहा, ‘‘भारत का संविधान कहता है कि कोई अध्यादेश तब जारी किया जा सकता है, जब किसी कानून को तत्काल लागू करने की जरूरत हो। इस अध्यादेश को ऐसे समय जारी करने की क्या जरूरत थी, जब विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा था? बेशक कुछ नहीं। यह अध्यादेश कहीं से भी कोर्ट में नहीं टिकेगा।’’
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पुस्तक को जस्टिस सच्चर के मरणोपरांत उनके परिवार के सदस्यों द्वारा विमोचित किया गया। कार्य्रक्रम को वीडियो कांफ्रेंस के जरिए संबोधित करते हुए जस्टिस लोकुर ने हाल में सुप्रीम कोर्ट के कामकाज को लेकर भी टिप्पणी की। उन्होंने कहा, “शीर्ष कोर्ट ने इस साल जैसा काम किया, निश्चित तौर पर उससे कहीं बेहतर किया जा सकता था।’’ उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को जनहित के प्रति अधिक सक्रिय होना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत के प्रधान न्यायाधीश एक व्यक्ति के साथ-साथ एक संस्था भी हैं और कोर्ट में केसों के आवंटनकर्ता होने के नाते अगर वह कुछ मामलों को दूसरे मामलों की तुलना में प्राथमिकता देते हैं, तब एक संस्थागत समस्या पैदा होगी।
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इस दौरान जस्टिस लोकुर ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति को बगैर मुकदमा या सुनवाई के अनिश्चितकाल तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। जस्टिस लोकुर ने कश्मीर का उदाहरण देते हुए कहा कि “वहां एक साल से अधिक समय तक कुछ लोगों को नजरबंद रखा गया। लेकिन शीर्ष न्यायालय ने इस पर संज्ञान नहीं लिया। वहां लोगों के संचार के माध्यम काट दिए गए, लेकिन शीर्ष न्यायालय ने इस विषय का भी हल नहीं किया।’
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