विपक्षी दलों का एक मंच पर आना बीजेपी के लिए चिंता का कारण बन गया है। इस बात को अब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी माना है। शुक्रवार को पत्रकारों से बातचीत में अमित शाह ने कहा कि समाजवादी पार्टी और बीएसपी का एक साथ आना बीजेपी के लिए चुनौती है और उन्हें उत्तर प्रदेश में इससे नुकसान हो सकता है।
अमित शाह ने कहा कि, "अगर बीएसपी और समाजवादी पार्टी गठबंधन बना कर चुनाव लड़ेंगी, तो यह हमारे लिए एक चुनौती होगी। लेकिन, हम इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि हम अमेठी या रायबरेली में से एक सीट जरूर जीतेंगे।"
बीजेपी की दिक्कत उत्तर प्रदेश ही नहीं है, महाराष्ट्र में भी उसके लिए दिक्कत है। और, यह बात अमित शाह के इस बयान से साफ हो जाती है जब उन्होंने कहा कि, “हम महाराष्ट्र में गठबंधन के पुराने साथी शिवसेना से अलग नहीं होना चाहते हैं, हम उन्हें एनडीए से बाहर नहीं करना चाहते हैं। लेकिन अगर शिवसेना अपनी अलग राह चुनना चाहती है, तो फिर हम क्या कर सकते हैं। हम हर स्थिति के लिए तैयार हैं।”
लेकिन विपक्षी दलों के एकजुट होने पर बीजेपी की चिंता अमित शाह के बयानों में साफ नजर आई। उन्होंने सफाई दी कि, "वे लोग 2014 में भी हमारे खिलाफ लड़े थे, लेकिन हमें रोकने में नाकामयाब रहे थे। उन लोगों की अपने-अपने राज्यों में उपस्थिति है। अगर वे एकसाथ आते हैं तो भी वे हमें हरा पाने में सफल नहीं होंगे।" लेकिन अमित शाह जानबूझकर यह कहने से बचे कि 2014 में तो सभी दल अलग-अलग थे और वोटों का बंटवारा हुआ था, लेकिन अगर 2019 में वे गठबंधन बनाकर मैदान में बीजेपी के खिलाफ आए तो उन्हें झटका लग सकता है।
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गौरतलब है कि बीजेपी को सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाने में उत्तर प्रदेश ने बड़ी भूमिका निभाई थी, जहां की 80 में से 73 सीटें उसे और उसके सहयोगी दलों को मिली थीं, लेकिन हाल के लोकसभा उपचुनाव में जब एसपी-बीएसपी एक साथ मैदान में उसके खिलाफ आए तो उसे उसके गढ़ गोरखपुर और फूलपुर सीटों पर करारी शिकस्त खानी पड़ी थी।
बीजेपी के यह आभास हो गया है कि अगले लोकसभा चुनाव में उसके हाथ उत्तर प्रदेश से ज्यादा सीटें नहीं आने वाली, इसीलिए अमित शाह ने कहा कि, “2019 में बीजेपी ऐसी अस्सी सीटें जीतेगी जहां वह बीते चुनाव में जीत हासिल नहीं कर सकी थी।” उन्होंने कहा, "हमलोग ऐसी सीटों पर जीत हासिल करेंगे जोकि पूर्वोत्तर, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और अन्य जगहों पर हैं।"
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गौरतलब है कि कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस की सरकार के शपथ समारोह में 14 विपक्षी दलों के नेता शामिल हुए थे, इनमें कांग्रेस के अलावा उत्तर प्रदेश की एसपी, बीएसपी और आरएलडी, महाराष्ट्र की एनसीपी, दिल्ली की आप, आंध्र प्रदेश की तेलुुगु देशम, बिहार की आरजेडी, सीपीआई और सीपीएम के साथ पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस ने हिस्सा लिया था।
लेकिन विपक्षी दलों की एकजुटता से पैदा हुई घबराहट अमित शाह के बयानों में साफ दिखी।बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि, "विपक्षी पार्टियां एक जैसी सोच वाले दलों के साथ आ रही हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि वे केवल अपने दम पर एनडीए को 2019 में मात नहीं दे पाएगी। ये सब हमारे खिलाफ 2014 में लड़े थे, लेकिन हमें रोक नहीं पाए। अगर वे एकसाथ भी आते हैं तो भी हमें हरा नहीं पाएंगे।'
ऐतिहासिक तौर पर देखें तो जब-जब विपक्षी दल एक साथ आए हैं, तो उन्होंने सत्तारूढ़ दल को उखाड़ फेंकने में कामयाबी हासिल की है।
1977: इंदिरा के आपातकाल लगाने के बाद सभी विपक्षी दल एक साथ आए। सोशलिस्ट पार्टियों, भारतीय क्रांतिदल और जनसंघ जैसे करीब एक दर्जन दल एक मंच पर आए।
1989: कभी राजीव गांधी के खास रहे वीपी सिंह ने कई क्षत्रपों के सहयोग से जनता दल बनाया। उन्होंने टीडीपी, एजीपी, डीएमके जैसे दलों की मदद से नेशनल फ्रंट बनाया। ये फ्रंट 1989 में सत्ता में आया। वाम दलों ने सरकार को बाहर से समर्थन दिया था।
1996-97: बीजेपी को रोकने के लिए जनता दल, समाजवादी पार्टी, टीडीपी, लोक दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया। एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल इसी मोर्चे से प्रधानमंत्री बने थे
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