चुप्पा वोटर क्या होता है, यह समझना हो तो इन दिनों अमेठी सबसे मुफ़ीद इलाक़ा है। सबसे अनुकूल चुनाव क्षेत्र। कहीं भी निकल जाइए बहुत कुछ समझ में आ जाएगा। हां, कुछ है जो समझना पड़ेगा। ये समझने के लिए बस आपको एक समझदारी दिखानी होगी। लोगों से बात करते वक्त आप उनकी बातें काग़ज पर कलम से उतारने न लगें, या आपके हाथ में कोई ख़बरिया माइक आईडी न हो। यानी आप पत्रकार के खोल में न हों! अगर हों भी तो कुछ देर के लिए यह खोल उतार दें। लोगों के बीच घुल-मिल जाएं। उनके बीच थोड़ा फ़ुरसतिया अंदाज में बैठें-बतियाएं।
अनायास नहीं है कि तिलोई में एक चाय के अड्डे पर खुली बहस चल रही है और अपने-अपने खम ठोंके जा रहे हैं। लेकिन आपको यानी किसी नवागंतुक को देखते ही बातचीत थोड़ा ठहर जाती है। आप किसी लोकल बंदे के साथ हैं, सो थोड़ी ही देर में वह ठहराव खत्म हो जाता है- ‘स्मृति दीदी गलती कइ दीन्ह… इतना नाहीं बोले का रहा।’ इशारा स्मृति ईरानी के बड़बोले बयानों की तरफ है और उनसे ज्यादा उनके कुछ खास ‘चिंटुओं’ की तरफ जो ‘बाहर वाले’ (उनके मुताबिक) हैं और अमेठी का मन-मिजाज समझ नहीं पाए।
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अवधेश कहते हैं ‘अमेठी घुमाई के मारत है और पतौ नाहीं चलै देत।’ (अमेठी याद रखती है और मौका देख के ऐसा मारती है कि अहसास तब होता है जब सामने वाला चित हो जाता है)। ठीक-ठीक तय कर पाना मुश्किल है कि ये बीजेपी के समर्थक हैं और शायद नाराज या मोहभंग की स्थित में हैं, या फिर फेंस के इधर और उधर के बीच वाले लोग। क्योंकि यह अमेठी है और यहां ऐसे लोग आपको कहीं भी मिल सकते हैं जो ज़िंदाबाद किसी की कर रहे होंगे, वोट किसी और को देने का मन बना चुके होंगे!
राहुल गांधी मैदान छोड़ गए, स्मृति ईरानी के लिए खुल्ला छोड़ दिया, कैसा लग रहा है? सामने वाले सज्जन घूर के देखते हैं और बुदबुदा के बोलते हैं- ‘अब इनहुन का संभारो’। ये अमेठी का चिरपरिचित अंदाज है। अमेठी तंज में ऐसे ही बोलती है। ज्यादा पूछने पर बोलते हैं- ‘इस बार सारा हिसाब-किताब बराबर हो जाएगा। यहां से भी राहुल ही जीतेंगे और बम्पर वोट से।’
लेकिन राहुल गांधी तो रायबरेली चले गए, यहां तो कोई किशोरी लाल शर्मा लड़ रहे हैं! कहने पर बोलते हैं, ‘वो कोई किशोरी लाल शर्मा नहीं, उनकेरी उमिर ढल गई अमेठी मा चुनाव लड़त-लड़ावत। घर-घर में घुसे हुए हैं। देखत जाव, स्मृति ईरानी के लिए वही भारी हैं। ये बात स्मृति ईरानी भी अब समझ रही हैं।’ उनके बगल में खड़े सज्जन बोल उठते हैं, “अमेठी इ दफ़ा बदला भी लेई अउर पश्चातापो (राहुल गांधी को हराने का प्रायश्चित) करी”।
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दरअसल राहुल गांधी के अचानक रायबरेली चले जाने से जो चर्चाएं-कुचर्चाएं शुरू हुई थीं, अमेठी उन सब को दरकिनार कर ‘उनके सिपाहसालार के जरिए ही स्मृति ईरानी को निपटाने का इरादा बना चुकी है’। यूं ही चलते-चलते बातचीत में एक प्रोफेसर कहते हैं- ‘अमेठी में शर्मा जी के जितने अहसान हैं, जितने भी लोगों पर अहसान हैं, वही लोग सिर्फ अपना कर्ज (अहसान का बदला) चुका दें, तो किशन लाल शर्मा ढाई से तीन लाख वोट से जीत जाएंगे।’ हालांकि इसमें कितनी गर्वोक्ति है कितना सच, अमेठी ही जानती होगी।
कांग्रेस से जुड़े एक सज्जन से बात हुई तो साथी के स्थानीय होने के कारण खुल गए। बोले, ‘राहुल जी पिछली बार ऐसे ही नहीं हार गए। कोई कारण नहीं था, लेकिन कुछ हमारा अति-आत्मविश्वास, कुछ स्मृति ईरानी का लगातार (2014 की पराजय के बाद भी) क्षेत्र में सक्रिय रहना… लोगों के दिमाग में आया ही नहीं कि राहुल जी हार भी सकते हैं। कुछ और भी कारण रहे। ‘वो लोग’ पैसा लुटा रहे थे और कांग्रेस का पैसा कार्यकर्ताओं तक पहुंचा ही नहीं। इसमें कई स्तरों पर चूक हुई।’ वह विस्तार में नहीं जाना चाहते। हमसे इसलिए भी बात कर ली कि आश्वस्त थे, हम पत्रकार नहीं हैं।
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फिलहाल अमेठी में जो दिख रहा है कहीं बहुत उत्साह है, कहीं एकदम सन्नाटा। प्रोफेसर के शब्दों में ‘इहां तो मुर्दनी छाई हुई है, ऐसा क्यों!’ बीजेपी प्रत्याशी स्मृति ईरानी के चुनाव कार्यालय को देखकर वह बोले। वहां महज 25-30 लोग मौजूद थे और किसी की भी आमद से बेखबर या कह लें उदासीन। गौरीगंज में स्मृति ईरानी के स्थानीय घर के बाहर भी दिन के ग्यारह बजे सन्नाटा दिखा। पता चला “दीदी बारह बजे के बाद ही निकलती हैं।”
केएल शर्मा के चुनाव कार्यालय में ठीक-ठाक गहमा-गहमी है। डेढ़ सौ लोग तो होंगे ही, पूरे कोलाहल के साथ। इनमें हर उम्र की महिलाएं भी हैं, युवा भी। कुछ अलग किस्म का उत्साह दिख रहा है।
स्मृति ईरानी से ऐसी बेरुखी क्यों? एक युवक का जवाब था- ‘कोई बेरुखी नहीं, बेरुख़ी तो उन्होंने दिखाई। पिछली बार लगता था उनसे अच्छा कोई नहीं, इस बार (जीतने के बाद) वो सीधे मुंह बात ही नहीं करतीं थीं। उनके 'केयर टेकर' तो और भी बेअंदाज निकले। मीडिया से लेकर कार्यकर्ता तक सब नाराज हैं। हां, महिलाएं अब भी दीदी-दीदी करती हैं (लेकिन कितनी महिलाएं? बग़ल से आवाज़ आती है- ‘प्रियंका दीदी ने सब बराबर कर दिया’)’।
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मुसाफ़िरखाना के एक होटल में चल रही चर्चाओं के बीच से किन्ही पंडित जी के हवाले से गौरव बताते हैं कि- ‘उनका कहना था कि वे लोग हर चुनाव में बीजेपी को वोट देते आए हैं लेकिन इस बार नहीं देंगे। इसके लिए उन्होंने अमेठी संसदीय क्षेत्र का इतिहास खोलकर सामने रख दिया। कि, यहां से गैर गांधी परिवार का कोई व्यक्ति दो बार कभी चुनाव नहीं जीता।’ गौरव याद दिलाते हैं- ‘1977 में रवींद्र प्रताप सिंह से लेकर संजय सिंह या गांधी परिवार के करीबी कैप्टन सतीश शर्मा ही क्यों न हों, दोबारा कोई नहीं जीता।’
अब इस इतिहास पर गौर करें या अमेठी की ताजा हवा पर, तय करना मुश्किल है क्योंकि असली पता और इस तथ्य की तस्दीक तो चार जून को नतीजे आने के बाद ही हो सकेगी।
नतीजे जो भी हों, केएल शर्मा का पुराना चेहरा, लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता का स्थाई भाव, 2014 से 19 के बीच अमेठी को दिखाई गई उम्मीद और 2019 से 24 के बीच मिली वो कथित नाउम्मीदी, अमेठी में इस वक्त जेरे बहस है। सबसे ज्यादा तो संजय गांधी के नाम पर बने यहां के सबसे प्रमुख अस्पताल को एक मामूली विवाद के बाद बंद कराने का फैसला (जो कोर्ट के आदेश से खुला) लोगों की जबान पर है, जिसे लोग अमेठी से अन्य कई सुविधाओं के छिन जाने जैसी साजिश के तौर पर देखते हैं।
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यहां की लगभग तीस फ़ीसदी दलित आबादी और वोटरों में ‘संविधान’ से पहले ‘बाबा साहब’ का मुद्दा तैर रहा है, जो अब इनकी अस्मिता से जुड़ चुका है। यह समझना भी जरूरी है कि ठाकुरों के बीच से ताजा उठी नाराज़ हवा भी यहां पहुंची हुई है। अमेठी की चर्चाओं में ताजा मामला सपा से छिटकी दिख रहीं सपा विधायक और सजायाफ़्ता पूर्वमंत्री गायत्री प्रजापति की पत्नी महाराजी प्रजापति के परिवार का घोरहा (भादर) में स्मृति ईरानी के मंच पर आकर उनके लिए वोट मांगने का है।
महाराजी वही विधायक हैं जिन्होंने पार्टी व्हिप को दरकिनार कर बीमारी के बहाने से राज्यसभा चुनाव में मतदान से खुद को अलग रखा था। हालांकि सब मानते हैं कि महाराजी अभी तक कहीं भी चुनावी समर में खुद नहीं दिखाई दी हैं, लेकिन यह भी कहते हैं कि लम्बे समय से जेल में बंद गायत्री प्रजापति के दर्द से उठ रहा दंश और बाहर आने की बेचैनी भी तो समझी जानी चाहिए!
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फिलहाल इतने ही बताए गए नाम से संतोष करें तो 'ठाकुर साहब' का कहना है कि अमेठी की हवा इस बार बहुत टाइट है। दरअसल लोगों में यहां चर्चा स्मृति ईरानी के प्रति नाराजगी से ज्यादा, अपनी उस गलती के प्रति है जिसके कारण राहुल गांधी पिछली बार यहां चुनाव हार गए। अमेठी के अंदाज में बोलें तो खासे उम्रदराज और पेशे से संभवत: शिक्षक, पांडेय जी (लोग इसी नाम से बात कर रहे थे) की बात में एक 'राज' भी खुलता है और दम भी दिखता है कि- ‘कोई माने या न माने, बिटिया तो पिछली दफा ही किशोरी को बोल दी थीं कि अगली बार ‘प्यादे को प्यादे से ही पिटवाएंगे’... और अब शायद वह वक्त आ गया है।’
अमेठी वाकई टाइट है। नतीजा जो भी हो, अंतर बहुत बड़ा नहीं होने जा रहा।
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