दिल्ली नगर निगम के 5 वार्डों के चुनावी नतीजों में बीजेपी को एक भी वार्ड में कामयाबी नहीं मिली, जबकि आम आदमी पार्टी ने इनमें से 4 और कांग्रेस ने मुस्लिम बहुल वार्ड में जीत हासिल की।
नतीजों के प्रत्यक्ष तौर पर आम आदमी पार्टी के लिए अच्छा कहा जा सकता है लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है, क्योंकि जिन 5 वार्डों में चुनाव हुए उनमें से 4 वार्ड में पहले से आम आदमी पार्टी के ही पार्षद थे और एक बीजेपी के पास था। आम आदमी पार्टी जो 4 पार्षद विधानसभा चुनाव जीतकर विधायक बन चुके थे उनकी खाली जगह पर ही चुनाव हुए थे और शालीमार बाग से बीजेपी के पार्षद की सीट भी खाली हो गई थी। लेकिन बीजेपी को यहां हार मिली। वहीं आम आदमी पार्ची ने भी अपना गढ़ कहे जाने वाले चौहान बांगर की सीट को खो दिया। दूसरी तरफ कांग्रेस, जिसके पास इनमें से एक भी सीट नहीं थी, उसने आम आदमी पार्टी से एक सीट छीन ली।
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नगर निगम चुनाव के नतीजे बीजेपी और आम आदमी पार्टी के लिए हैरान करने वाले हैं क्योंकि दोनों पार्टियों को यह देखना होगा कि इनका परंपरागत वोट आखिर क्यों नाराज हुआ। किसान आंदोलन और बढ़ती महंगाई के चलते जहां मतदाता ने बीजेपी को ठेंगा दिखाया वहीं उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों और तबलीगी जमात मुद्दे पर दिल्ली की सत्तारूढ़ पार्टी आप के रवैये के चलते मुसलमानों ने आम आदमी पार्टी से मुंह फेर लिया।
अगले साल दिल्ली के सभी नगर निगमों के चुनाव होने हैं। फिलहाल इन निगमों पर बीजेपी का कब्जा है। नगर निगम की इन पांच सीटों के उपचुनावों में आम आदमी पार्टी ने पूरी ताकत झोंक दी थी क्योंकि वह इन्हें अगले साल होने वाले चुनावों का सेमीफाइनल मानकर चल रही थी और उसकी कोशिश एमसीडी पर कब्जा करने की है। लेकिन उपचुनावों के नतीजों ने उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। मुश्किलें इसलिए क्योंकि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का मोटे तौर पर एक ही वोटर आधार माना जाता है। और इसमें बड़ी तादाद में अल्पसंख्यक वोर शामिल है।
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इसे समझने के लिए 2013 के विधानसभा चुनावों पर नजर डालनी होगी, जब दिल्ली की बड़ी आबादी ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया था, उस समय आम आदमी पार्टी के हिस्से में विधानसभा की कुल 70 में से 28 सीटें आई थीं, जबकि अलपंसख्यकों का वोट कांग्रेस के हिस्से में आया था उसे 8 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनावों में अल्पसंख्यकों ने भी आम आदमी पार्टी को वोट दिया और केजरीवाल की पार्टी ने कुल 70 में से 67 सीटों पर जीत हासिल की थी। इसका सीधा अर्थ है कि आम आदमी पार्टी को सत्ता में रहने के लिए अल्पसंख्यक वोटों की जरूरत है।
पिछले साल यानी 2020 के विधानसभा चुनाव से पहले और नतीजों के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने हाव-भाव से यह जताने की कोशिश की कि उन्हें अब सत्ता में रहने के लिए अल्पसंख्यकों नहीं बल्कि बहुसंख्यक के ही वोट की जरूरत है। इसीलिए उन्होंने सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों से दूरी और फिर उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों पर रहस्यमयी खामोशी के साथ ही कोरोना काल में तबलीगी जमात क मुद्दे पर जो रुख अपनाया उसके चलते दिल्ली के अल्पसंख्यकों में दिल्ली के सत्तारुढ़ दल आप को लेकर खासी नाराजगी थी। इसी नाराजगी को सामने रखते हुए नगर निगम उपचुनावों में अल्पसंख्यकों ने आम को संकेत दे दिया है। अब केजरीवाल के सामने दिक्कत यह है कि वह अगर अल्पसंख्यकों अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं तो जो बहुसंख्यक तबका उनके पक्ष में है वह नाराज हो जाएगा।
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कांग्रेस की दिल्ली के चौगान बांगर से जीत एक बड़ा संकेत है और संदेश भी। अल्पसंख्यक वोटर के इस रुख को देखकर दिल्ली का दलित और पिछड़ा तबका भी वापस कांग्रेस की तरफ आएगा। ऐसे में कांग्रेस के लिए अच्छी खबर है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव में कांग्रेस ही सबसे ज्यादा फायदे में रही है क्योंकि यह आने वाले दिनों में दिल्ली की राजनीति में हो रहे बदलावों का संकेत है। गौरतलब है कि दिल्ली आज भी कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकरा के कामों को याद करती है। मुफ्त बिजली और पानी के नारे अब पुराने हो चुके हैं। इसके अलावा केजरीवाल सरकार ने आम लोगों को राहत देने वाला कोई बड़ा काम किया भी नहीं है।
उधर बीजेपी पहले यह सोचती रही कि इन चुनावों में उसके वोटरों ने रुचि ही नहीं और जब आगामी चुनाव होंगे तो उसका वोटर बाहर आएगा। लेकिन, दिल्ली में बीजेपी को इस समय दो बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। एक तो बेतहाशा मंहगाई, और तेल के दिनों दिन ऊपर जाते दाम और दूसरा यह कि दिल्ली बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष कोई लोकप्रिय चेहरा नहीं है। इसके अलावा पार्टी में अंदरूनी खटपट तो आम है ही।
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