बिहार के बांका जिले के बाबूटोला के मनीष कुमार परेशान हैं। उनकी परेशानी की वजह है- असम में एनआरसी लिस्ट में उनका नाम नहीं होना। मनीष और उनके दो भाई असम के जोरहाट में रहते हैं। जोरहाट में उनकी ऑटो स्पेयर पार्ट्स की दुकान और कुछ अचल संपत्ति है। मनीष और उनके दोनों भाइयों के परिवार जोरहाट में एक ही फ्लैट में रहते हैं। यह संयुक्त परिवार है। एनआरसी में मांगे गए सारे डॉक्यूमेंटस जुटाने के लिए ये लोग कई बार बांका आए और इसमें 25,000 रुपये से ज्यादा खर्च भी हुआ। लेकिन जहां मनीष के दोनों भाइयों और उनके परिवार के नाम एनआरसी लिस्ट में हैं, वहीं मनीष और उसके परिवार का नाम लिस्ट से गायब है।
नवजीवन से बातचीत करते हुए उन्होंने बताया, “सब ने एक ही तरह का डॉक्यूमेंट जमा किया था लेकिन मेरे परिवार का नाम गायब है। ऐसा क्यों हुआ, यह समझना मुश्किल है। फॉरेन ट्रिब्यूनल में जाना पड़ेगा, लेकिन 45 साल की उम्र में खुद को भारतीय साबित करने के लिए सरकार इतने कानूनी पचड़े में हमें क्यों डाल रही है?” मनीष और उनका परिवार उन 14 लाख हिंदुओं मे से है जो एनआरसी की अंतिम सूची से बाहर है। अगस्त, 2019 में जारी अंतिम सूची में 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर हैं।
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इसी तरह का किस्सा अमिताभ (नाम बदला हुआ) के साथ हुआ है। वह मूल रूप से बिहार के मधुबनी जिले के हैं और बीते 26 साल से असम में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। एनआरसी के लिए पहली बार ऑनलाइन अप्लाई करने के बाद उनके जीवन से सुकून गायब हो गया है। वह बताते हैं कि असम में खुद का मकान होने समेत सभी कागजात जमा किए लेकिन अमिताभ, उनकी पत्नी और बाहरवीं में पढ़ने वाले बेटे का नाम एनआरसी सूची से बाहर है। परेशान अमिताभ बताते हैं कि बार-बार एनआरसी सेंटर वाले कहते हैं कि टेंशन मत लीजिए, लेकिन टेंशन कैसे नहीं लें, आखिर सवाल हमारी नागरिकता पर है।
परेशान सिर्फ असम में बसे बिहार के लोग ही नहीं हैं बल्कि एनआरसी का डर अब बिहार में रहने वाले आम लोगों में भी समाता जा रहा है। बिहार के अलग-अलग हिस्सों में रोजाना इसके खिलाफ जुलूस-प्रदर्शन हो रहे हैं जिनके चलते आम लोगों में यह समझ धीरे-धीरे विकसित हो रही है कि भारत में जन्म लेने के बावजूद उन्हें अपनी नागरिकता साबित करनी होगी।
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रानी 35 साल की घरेलू कामगार हैं। उनके पति की मौत दो साल पहले हो गई थी। अपने दो बच्चों और खुद का गुजारा करने के लिए वह नवादा से राजधानी पटना आईं। उनके पास अपनी पहचान के नाम पर सिर्फ आधार और वोटर आईडी कार्ड है। रानी ने एनआरसी के बारे में टीवी पर देखा-सुना है। वह गुस्से में कहती हैं कि “सरकार सारे कार्ड ले ले, हमें जीने-खाने दे। फिर से नोटबंदी दिखाएगी क्या सरकार?” बिहार राज्य घरेलू कामगार यूनियन की सिस्टर लीमा बताती हैं कि घरेलू कामगारों में 90 फीसदी भूमिहीन लोग हैं। वे अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए पटनाआती हैं। ऐसे में, सरकार एनआरसी लाएगी तो ये इन घरेलू कामगारों के लिए नया संकट है।
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राजधानी पटना में रहने वाली गृहिणी अनामिका झा ने तो अभी से अपने कागजातों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया है। अनामिका को लगता है कि जल्द ही एनआरसी पूरे देश में लागू होगा। ऐसे में वह अपने पति के गांव में पैतृक जमीन के डॉक्यूमेंटस निकालने को लेकर आजकल परेशान हैं। साथ ही उन्होंने मैरिज सर्टिफिकेट, पासपोर्ट सभी के लिए भी अप्लाई कर दिया है। वहीं दलितों के बीच काम कर रही प्रतिमा कहती हैं कि एनआरसी का मकसद तो हमारे दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को हाशिये पर लाना है, यानी जिनके पास कोई कागजात नहीं है, उनके सामने ‘पहचान का संकट’ पैदा करना है।
जहां बिहार के मुसलमानों-गैर मुसलमानों सबमें एनआरसी को लेकर बेचैनी दिनों-दिन बढ़ रही है, वहीं राज्य की राजनीति में भी सत्तारूढ़ गठबंधन दल- बीजेपी और जेडीयू फिलहाल दो ध्रुवों पर है। हालांकि जेडीयू के कई नेताओं ने कहा है कि बिहार में एनआरसी लागू नहीं होगा, लेकिन नागरिकता संशोधन कानून पर मोदी सरकार के साथ खड़ी हो चुकी जेडीयू का अपने स्टैंड से पलटी मार देना अब कोई नई बात नहीं होगी।
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