पिछले सप्ताह हमारे यहां सरकार ने मतदाता पंजीकरण शिविर लगाया। फॉर्म 6 भरते हुए मैंने महसूस किया कि इसके लिए तो आधार कार्ड की कॉपी देनी जरूरी है।
आज के दिन जो कानून है और जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी साफ शब्दों में दोहराया है, उसके मुताबिक ‘आधार’ की अनिवार्यता पीडीएस, मनरेगा, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, आयुष्मान भारत, सब्सिडी, स्कॉलरशिप जैसी किसी सरकारी योजना या छूट का लाभ उठाने के समय ही होती है। कोई भी एजेंसी, चाहे वह सरकारी ही क्यों न हो, किसी और काम के लिए ‘आधार’ ही देने की मांग पर अड़ नहीं सकती।
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मतदाता नामांकन कोई सब्सिडी या सरकार की ओर से दी जाने वाली सुविधा नहीं है। यह एक अधिकार है। लिहाजा, इसके लिए ‘आधार’ की जरूरत नहीं होनी चाहिए। लेकिन हमारे यहां आए अधिकारी ने कहा कि अगर मैंने नहीं दिया तो मेरा आवेदन खारिज कर दिया जाएगा। मुझे न चाहते हुए भी उसकी बात माननी पड़ी क्योंकि मैंने हाल ही में निवास बदला है और मेरे पास पते का कोई प्रमाण नहीं था जिसके बिना मैं कॉक्स बाजार के किसी रोहिंग्या शरणार्थी जैसा ही था। ऐसा लगता है कि जब भी कोई मतदाता के रूप में खुद को रजिस्टर करता है तो उसका वोटर आईडी अपने आप उसके आधार से जुड़ जाता है।
यह सरकार द्वारा अपने ही कानूनों और कोर्ट के निर्देशों के उल्लंघन का अकेला उदाहरण नहीं है। आज यदि कोई ‘आधार’ नहीं दे तो वह किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं उठा सकता। हाल ही में एक आरटीआई आवेदन से पता चला है कि चुनाव आयोग ने अब तक 54 करोड़ मतदाताओं के आधार नंबर ले लिए हैं। क्यों?
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अभी तक कोई कानून नहीं है जो कहता हो कि इसे वोटर आईडी से जोड़ा जाना है, तो आयोग लोगों का आधार क्यों ले रहा है? अब तक जो उसने निजी डेटा का भंडार इकट्ठा कर रखा है, उसका वह करना क्या चाहता है? आए दिन जो डेटा लीक होता रहता है, उसका क्या?
लेकिन चिंता का एक और बड़ा कारण निजी संस्थाओं का बिना अधिकार ‘आधार’ मांगने पर अड़ना है- सिम देने वाली कंपनी हो, होटल हो, कार डीलर हो, बीमा कंपनियां हों या फिर बैंक। बैंकों ने तो आधार को अपनी केवाईसी प्रक्रिया में ही शामिल कर लिया है और अनुपालन नहीं होने पर खाता फ्रीज तक कर दिया जाता है।
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‘केवाईसी’ का मतलब है अपने ग्राहक को जानें लेकिन यकीन करें, बैंक को आपको जानने में कोई दिलचस्पी नहीं। उनकी दिलचस्पी आपके पैसे को एनपीए अरबपतियों की बढ़ती जमात तक पहुंचाना है। हममें से ज्यादातर लोगों, खास तौर पर जिनके पते बदल गए, उम्र बढ़ने के साथ जिनके दस्तखत कुछ बदल गए हैं, या जो अपने पासवर्ड भूल गए हैं, या विकलांग हैं, उनके लिए केवाईसी किसी आफत से कम नहीं।
हर दस साल पर सत्यापन ही कम परेशान करने वाला नहीं था लेकिन अब तो आरबीआई ने हर तीसरे साल केवाईसी कराने की व्यवस्था कर दी है। 60 से ऊपर के हो गए तो एक के बाद एक कई झंझट- हर छह माह पर नेटबैंकिंग पासवर्ड बदलिए, हर साल जिंदा होने का प्रमाण दीजिए, हर तीन साल पर डेबिट कार्ड बनवाएं, हर पांच साल पर ड्राइविंग लाइसेंस बनवाएं। अब तो हर दस साल में पैन कार्ड को ‘अपडेट’ करने की ‘सलाह’ दी गई है, भले ही किसी विवरण में कोई बदलाव न हो। अब किसी भी तरह के बीमा पर भी केवाईसी को जरूरी कर दिया गया है। क्या किसी ने यह जानने की कभी कोशिश की है कि इस तरह की केवाईसी का कुछ फायदा हुआ भी है या नहीं?
और इस पूरे संदर्भ में इस विडंबना पर भी गौर किया जाना चाहिए कि भले ही आप और मुझे यह साबित करने में पसीने छूट जाएं कि हम बदमाश नहीं हैं और अपने कर और ऋण की किस्त का समय पर भुगतान करते हैं, असली बदमाश बड़े आराम से सरकार को लूटते रहते हैं। जिस तरह सीजन के अंत में विभिन्न उत्पादों के सेल लगाए जाते हैं, वैसे ही बैंक हर साल लाखों करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल देते हैं जो हमारे-आपके ही पैसे होते हैं। वर्ष 2014 से बैंकों ने 12 लाख करोड़ रुपये के ऋणों को बट्टे खाते में डाला है जो औसतन 2 लाख करोड़ रुपये सालाना बैठता है। रिकवरी रेट सिर्फ 13% है।
इन लोगों के लिए कोई केवाईसी (नो योर क्रूक) क्यों नहीं है? क्या ऐसा सत्यापन केवल उन खातों के लिए नहीं होना चाहिए जिनके संचालन संदिग्ध हों या फिर जिन्होंने कभी किसी तरह का कोई डिफॉल्ट किया हो? आखिर करोड़ों लोगों को बेवजह परेशान करने का मतलब?
एक अन्य श्रेणी है- खुद बैंकर- जिन्हें नए, आपराधिक-केन्द्रित केवाईसी के अधीन होना चाहिए, जैसा कि चंदा कोचर (आईसीआईसीआई) और राणा कपूर (यस बैंक) के मामले साबित करते हैं। दो बातों पर गौर करें- पहली, ज्यादातर वरिष्ठ बैंक अधिकारियों के अपने बड़े कर्जदारों के साथ मधुर संबंध होते हैं और दूसरी, बैंकों से रिटायर होते ही ये बैंक सीईओ निजी क्षेत्र की कंपनियों को ज्वाइन कर लेते हैं। इसका मतलब? खास तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के सीईओ के मामले में यह बात ज्यादा खरी है। क्या यह संयोग है कि एनपीए का बड़ा हिस्सा इन्हीं सार्वजनिक बैंकों के पास है? वित्त मंत्री महोदया, इन ‘काबिल’ लोगों के लिए निजी क्षेत्र में सेवा देने पर कम-से-कम दो साल का कूलिंग-ऑफ समय की व्यवस्था कैसी रहेगी?
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सरकारी डेटा से पता चलता है कि आप और मेरे जैसे आम लोग सबसे अच्छे और अनुशासित खाताधारक हैं। क्रेडिट/डेबिट कार्ड धारकों, किसान और फसल ऋण, घर और कार ऋण लेने वालों में डिफॉल्ट की दर सबसे कम है।
सबसे बड़े डिफॉल्टर और धोखेबाज व्यवसाय और कॉरपोरेट कर्जदारों में पाए जाते हैं, इसलिए क्या यह आरबीआई और बैंकों के लिए बेहतर नहीं होगा कि वेतनभोगी, पेंशनभोगियों, स्वरोजगार करने वालों, किसानों के बजाय उन लोगों पर ध्यान केन्द्रित करे? क्या इन लोगों ने प्रबंधन के 80:20 सिद्धांत के बारे में नहीं सुना है कि अपना 80% प्रयास 20% ग्राहकों पर केन्द्रित करना चाहिए जिन्हें वास्तव में दुरुस्त करने की जरूरत है?
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बैंकों ने अपने तरह के ही जाल का आविष्कार कर रखा है जो छोटी मछलियों को पकड़ता है और बड़ी मछलियों को निकल जाने देता है। कोई भी उद्योग इस असंतुलित और बेतुके सिद्धांत पर काम नहीं कर सकता और यही वजह है कि बैंक हर बीतते साल के साथ अंधेरे कुंए में गहरे धंसते जा रहे हैं।
दोस्तों, बाद में मत कहना कि आपको चेताया नहीं गया था। केवाईसी के बिना आप ‘कंगाल’ हैं और आधार कार्ड के बिना आप है ही नहीं। अगर आप उन लोगों में हैं जो 70 वर्ष की उम्र तक पहुंच चुके हैं, तो अपने बटुए में हमेशा आधार कार्ड की एक कॉपी रखें और अगर अपनी अंतिम यात्रा के लिए कुछ तैयारी कर रखी है तो एक कॉपी उसके लिए भी रख दें क्योंकि बिना ‘आधार’ न तो दफनाया जा सकता है और न ही अंतिम संस्कार किया जा सकता है।
अधिक से अधिक, वे आपको एक ममी बना देंगे और आपको छिपाकर रखेंगे, ताकि बाद में आपकी पहचान की जा सके। लेकिन क्या आप वास्तव में एक और तूतनखामेन बनना चाहते हैं?
(अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं।)
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