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सरकारी खज़ाने की समझदारी से हो चौकसी तो ‘न्याय’ यानी न्यूनतम आय योजना के लिए नहीं होगी पैसे की कमी

कांग्रेस का न्यूनतम आय योजना ‘न्याय’ ने इस बार के चुनाव को सचमुच गेमचेंजर बना दिया है। बीजेपी को भी इस योजना में कोई खामी नजर नहीं आ रही है, सिवाय इसके कि इसके लिए जरूरी 3.5 लाख करोड़ रुपये कहां से आएंगे। लेकिन जाने-माने अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इसके लिए पैसे कोई समस्या ही नहीं है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की न्यूनतम आय योजना (न्याय) ने इस बार के चुनाव को सचमुच गेमचेंजर बना दिया है। भारतीय जनता पार्टी को भी इस योजना में कोई खामी नजर नहीं आ रही है, सिवाय इसके कि इसके लिए जरूरी 3.5 लाख करोड़ रुपये कहां से आएंगे। लेकिन कई जाने-माने अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस योजना के लिए धन की उपलब्धता कोई समस्या ही नहीं है। बस, सरकार को थोड़ा समझदार और चौकस बनने की जरूरत है। उनका कहना है कि यह योजना पूरी तरह लागू करने योग्य है और इसका अर्थव्यवस्था पर कोई नकारात्मक असर महीं पड़ेगा।

हैदराबाद स्थित इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर और क्रक्स मैनेजमेंट सर्विसेज के अध्यक्ष विकास सिंह कहते हैं कि मौजूदा सब्सिडी का बहुत-सा हिस्सा बर्बाद हो रहा है या उनके पास जा रहा है जो इसके हकदार नहीं हैं। यदि सरकार सब्सिडी को ठीक प्रकार से जनता तक पहुंचाए तो आसानी से डेढ़ से दो लाख करोड़ रुपये जुटा सकती है।

विकास सिंह खाद पर दी जा रही 75,000 करोड़ रुपये सालाना की सब्सिडी का उदाहरण देते हैं। उनका कहना है कि यह पैसा खाद बनाने वाली कंपनियों को मिल रह है। कंपनियां ओवर-इनवॉयसिंग जैसे तरीकों से बहुत-सा पैसा ले लेती हैं, जबकि इसका लाभ किसानों को नहीं मिलता। अगर यह सब्सिडी भी गैस और राशन की तरह डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांस्फर (डीबीटी) के माध्यम से केवल गरीब किसानों को दी जाए, तो इस राशि का आधा पैसा बचाया जा सकता है।

उनके मुताबिक, केंद्र सरकार किसी भी योजना को पूरे देश के लिए लागू करती है जबकि अलग-अलग राज्यों की जरूरतें अलग हैं। दक्षिण भारत के राज्यों की जरूरत पूर्वोत्तर राज्यों से तो अलग होगी ही। यह वैसे ही है कि कोई राजा अपनी पूरी प्रजा के लिए एक्स्ट्रा लार्ज साइज का पाजामा बनवा कर मुफ्त बंटवा दे। इन विसंगतियों के दूर करने भर से ही गरीबों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित की जा सकती है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अरुण कुमार मानते हैं कि बढ़ती आर्थिक असमानता दूर करने का केवल यही एक तरीका है। ऑक्सफेम के एक अध्ययन के मुताबिक, देश के नौ सबसे धनी व्यक्तियों के पास देश की आधी सबसे गरीब आबादी से कहीं ज्यादा धन है। सबसे ज्यादा अरबपतियों के मामले में हमारा देश दुनिया में चौथे स्थान पर है। सबसे धनी एक प्रतिशत जनता के पास शेष 99 प्रतिशत जनता से ज्यादा संपत्ति है।

प्रोफेसर अरुण कुमार का मानना है कि देश के सबसे धनी 5 प्रतिशत लोगों पर संपत्ति कर (वेल्थ टैक्स), उपहार कर (गिफ्ट टैक्स) और जायदाद कर (एस्टेट टैक्स) लगाकर सरकार न्याय योजना के लिए जरूरी धन जुटा सकती है। इसके लिए किसी भी सब्सिडी को हटाने की जरूरत नहीं है।

उनका मानना है कि अगर अति अमीरों पर 0.5 प्रतिशत-जैसा नगण्य संपत्ति कर लगाया जाए तो ही सवा से डेढ़ लाख करोड़ रूपये आसानी से जुटाए जा सकते हैं। अपने रिश्तेदारों को उपहार देने के बहाने बहुत से लोग टैक्स बचाने की कोशिश करते हैं, जिसे गिफ्ट टैक्स से वसूला जा सकेगा। इसी तरह जायदाद कर उस संपत्ति पर लगेगा जो किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके वारिसों को मुफ्त में मिल जाती है। इससे उन्हें इस संपत्ति का महत्व उन्हें नहीं मालूम होता है। उस टैक्स से लोगों को खुद अपनी संपत्ति बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा, बजाए बाप-दादा की संपत्ति पर ऐश करने के।

प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि ये टैक्स शुरू से ही भारत में लागू थे, लेकिन पिछले पंद्रह-बीस सालों के दौरान इन्हें खत्म कर दिया गया। अब सरकार यदि इच्छा शक्ति दिखाए तो इन्हें फिर से लागू किया जा सकता है। अधिकतर विकसित देशों में ये टैक्स लागू हैं।

इसी तरह पेरिस स्थित विश्व असमानता प्रयोगशाला (वल्र्ड इनइक्वालिटी लैब) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ढाई करोड़ रुपये से अधिक संपत्ति रखने वाले लोगों पर मात्र दो प्रतिशत का संपत्ति कर लगाने भर से ही सरकार के न्याय योजना चलाने भर का धन मिल सकता है। पूरी दुनिया में असमानता दूर करने का यही मॉडल है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ देविन्दर कुमार तो एक जमाने से हर किसान को कम से कम 18,000 रुपये महीना की आय सुनिश्चित करने की मांग करते रहे हैं। उनका कहना है कि सरकार को यह काम बहुत पहले करना चाहिए था। दो साल पहले आर्थिक सर्वेक्षण में इस योजना का जिक्र तो किया गया था लेकिन सरकार इसे लागू करने का साहस नहीं जुटा पाई। वह कहते हैं कि सरकार की अधिकतर योजनाएं अमीरों और उद्योगपतियों के लिए हैं। अगर इनमें से थोड़ा-सा भी पैसा गरीबों के लिए दिया जाए तो न्याय योजना सफल हो सकती है।

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2009 के बाद से हर बजट में सरकार 1.86 लाख करोड़ रुपये का इंडस्ट्रियल स्टिम्यूलस देती है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय के एक बयान के हवाले से वह कहते हैं कि कॉरपोरेट्स को दी जाने वाली आर्थिक रियायतें जीडीपी का पांच प्रतिशत है।

इसी तरह सरकारी बैंकों द्वारा उद्योगपतियों को दिए 10.30 लाख करोड़ रुपये के कर्ज एनपीए (बैड लोन) हैं। इन्हें वसूलने भर से ही तीन सालों तक गरीबों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित की जा सकती है। सरकार ने पिछले एक साल में नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के जरिए ऐसे कॉरपोरेट घरानों से कुछ पैसे वसूले हैं।

केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के अनुसार, पिछले साल 31 दिसंबर तक एनसीएलटी ने 4452 मामले निपटाए और 80,000 करोड़ रुपये का फंसा हुआ पैसा बैंकों को वापस दिलाया, लेकिन मौजूदा बैड लोन की तुलना में तो यह नगण्य है। अगर सरकार एनपीए के लिए सजा का प्रावधान कर दे तो बैड लोन होंगे ही नहीं। वह कहते हैं कि यदि रिलायंस टेलीकॉम के दिवालिया होने और जेल जाने का डर न होता तो अनिल अंबानी एरिक्सन कंपनी का 550 करोड़ रुपये का कर्ज आनन-फानन में कतई नहीं निपटाते।

लेकिन नीति आयोग के अध्यक्ष राजीव कुमार और बिबेक देबरॉय मानते हैं कि इस योजना के लागू होने से महंगाई नियंत्रण से बाहर हो जाएगी। राजस्व घाटा मौजूदा 3.19 फीसदी से बढ़कर जीडीपी का 5 प्रतिशत हो जाएगा।

वहीं अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज मानते हैं कि यह योजना बहुत अच्छी है लेकिन असली चुनौती गरीबों की पहचान करने की है। अब तक सरकार ने कोई सर्वेक्षण आर्थिक आधार पर नहीं किया है। इसका जवाब देविंदर कुमार देते हैं कि गरीबी रेखा से नीचे वालों की पहचान सरकार ने बीपीएल कार्ड के माध्यम से कर ही रखी है। वैसे भी, खाद सब्सिडी को छोड़कर सरकार की उज्ज्वला, आयुष्मान भारत और मनरेगा आदि सभी योजनाएं गरीबी रेखा से नीचे वालों के लिए ही हैं। न्याय ऐसी ही एक और योजना होगी।

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