अतीत कभी जाता नहीं है, लेकिन एक नई शुरुआत हमेशा अपने साथ एक नई आशा लेकर आती है कि दुनिया कल की परेशानियों से मुक्त हो जाएगी, और आने वाला कल उज्जवल और खुशहाल होगा। मौका नए साल की शुरुआत का है। उम्मीदों को जिंदा रखने का है। ऐसे में बौद्धिक निराशावादिता को नजरअंदाज करते हुए हमने उन लोगों का रुख किया जिन्होंने व्यग्र मन को अपने तरीके से ढांढस बंधाते हुए इस मुश्किल वक्त में उम्मीदों का दीया जलाए रखने का जज्बा दिखाया है। आपने अभी तक पढ़ा सम्पूर्णा चटर्जी, मृदुला गर्ग और अब्दुल बिस्मिल्लाह के विचार। अब आगे पढ़िए क्या कहते हैं पत्रकार और लेखक अरविंद मोहन और इतिहासकार और लेखक अशोक कुमार पांडेय...
बीता साल सामान्य से अच्छा रहा क्योंकि कोरोना, उससे भी ज्यादा उसका खौफ और सबसे ज्यादा उसकी पॉलिटिक्स का जोर कम हुआ, सामान्य कार्य-व्यापार शुरू हुआ, जीवन पटरी पर लौटा। अनेक लोगों की कमी के साथ जीवन शुरू हुआ लेकिन भारी निराशा के बाद उम्मीद बहाल हुई। लिखने-पढ़ने वालों ने और मीडिया ने भी अपना काम सामान्य ढंग से शुरू किया। साथ ही पुरस्कार से लेकर प्रकाशन में भक्त मंडली का प्रभाव बढ़ा। लेकिन सबसे बड़ा बदलाव एक बड़े मीडिया हाउस का बिकना और पचासेक चैनलों का सरकार समर्थक व्यावसायिक घरानों के हाथ जाना रहा। लेकिन इस बीच तकनीक ही नहीं, यू-ट्यूब और नेट के कर्ताधर्ता की अपनी राजनीति के बावजूद सोशल मीडिया और यू-ट्यूब चैनलों ने सच्चाई को सार्वजनिक करने का जिम्मा भी ज्यादा मजबूती से उठाया। अपने हिन्दी जगत को इससे सहारा मिला, वरना अखबार और टीवी की पत्रकारिया तो अविश्वसनीय ही नहीं, सरकार की पिट्ठू बन चुकी है।
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नए साल के लिए ढेर सारी उम्मीदें हैं- आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्र से ज्यादा। दस विधान सभाओं के चुनाव 2024 का रिहर्सल कराएंगे और काफी संकेत देंगे। और इस साल भले ही भाजपा गुजरात की ‘ऐतिहासिक जीत’ से हिमाचल और दिल्ली की पराजय की भरपाई करती दिख रही हो, उसे उत्तर प्रदेश की जीत से सहारा मिला हो लेकिन अगले साल उसके पास खोने वाले क्षेत्र ही ज्यादा दिखाई देते हैं। और अगर पिछले साल किसानों ने नरेन्द्र मोदी सरकार का गुमान तोड़ा था तो इस बार राहुल की भारत जोड़ो यात्रा राजनैतिक विकल्प सुझा सकती है। किसान आंदोलन की सफलता का राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। विधानसभाओं के नतीजे उसे गति दे सकते हैं या ब्रेक लगा सकते हैं।
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इतनी उम्मीद मीडिया और साहित्य-सांस्कृतिक जगत से नहीं दिखती। वहां के स्थापित विकेट भी गिरते गए हैं और किसी पद या पुरस्कार के लिए कुछ और लोग पाला बदलते नजर आएं तो हैरानी की बात नहीं है। दूसरे, उस तरफ से कोई साझा प्रतिरोध और विरोध का स्वर भी उठने की संभावना कम दिखती है। उस तुलना में किसी रवीश कुमार, किसी पुण्य प्रसून, किसी अभिसार शर्मा, किसी अजीत अंजुम, किसी साक्षी जोशी, किसी वायर, किसी सत्य, किसी आरफा खानम और किसी आशुतोष के और सफल होने और चमकने की उम्मीद ज्यादा है। चुनावी नतीजे भी माहौल बदल सकते हैं। कुछ तो इस साल भी बदला है। नीतीश के पाला बदलने से भी बदला है। कुछ बंगाल ने पिछले साल बदला था।
(अरविन्द मोहन, पत्रकार, गांधी पर कई पुस्तकों के लेखक )
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कोविड के महाप्रकोप से निकलकर 2022 की जो यात्रा हुई थी, वह भारत जोड़ो यात्रा को लेकर जारी कोविड एड्वाइजरी के प्रहसन पर खत्म हुई है। कोविड ने बहाना दिया तो सरकार ने नागरिकों की सुविधाएं छीनने की जो प्रक्रिया शुरू की, साल बीतते-बीतते साफ कर दिया कि रेलवे तक में वरिष्ठ नागरिकों तक को दी जाने वाली सुविधाएं और छूट बहाल नहीं होंगे। साल जाते-जाते मदर डेरी ने एकबार फिर दाम बढ़ाकर साबित कर दिया कि नए निजाम में विकास का मतलब महंगाई है और अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन तो दिया जा सकता है लेकिन रोजगार का गिफ्ट चुनावी प्रचार से आगे मिलना नामुमकिन है। अब यह सवाल कौन पूछे कि अस्सी करोड़ लोग इस हाल में क्यों हैं कि उन्हें अनाज के लिए झोली फैलानी पड़े?
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इस साल हवाई अड्डे भी बिके, रेलवे स्टेशन भी लेकिन बुलेट ट्रेन का इंतजार उस ओर जनता का ध्यान जाने कहां देता है? जाने ही लगे तो गांधी हैं, नेहरू हैं, सुभाष हैं, पटेल हैं, वाट्सएप है। लोग अंततः बहल ही जाते हैं। आखिर इतने सारे चैनल भी तो हैं बहलाने के लिए जिनमें हिन्दू-मुस्लिम इतनी बार बजता है कि महंगाई, बेरोजगारी वगैरह के लिए कोई संभावना बच ही नहीं जाती। हां, इस साल ऐसी ऊलजलूल बातें करने वाले आखिरी चैनल एनडीटीवी को भी अदानी साहब ने खरीद लिया तो अगला साल और सुरीला होने की संभावना है।
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लेकिन इस सुर को भंग किया हिमाचल ने और उसके भी पहले राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने। सवाल फिर-फिर उभर के आते हैं। हालांकि उन्हें दबाने के लिए एक नहीं, कई मंदिर हैं और फिलहाल सत्ता बेचो अभियान में व्यस्त है। बिखरा हुआ विपक्ष और नफरत के नशे में मस्त जनता उसे आश्वस्ति देती है लेकिन किसी ने कहा है हजारों वर्षों में कुछ नहीं बदलता और रातों-रात सब बदल जाता है, तो बदलाव के उस क्षण का इंतजार ही इस साल से अगले साल तक जाएगा इस समझ के साथ कि अपने आप तो कुछ नहीं बदलता, उसके लिए सबको अपनी भूमिका निभानी पड़ती है।
अशोक पांडेय, इतिहासकार, कश्मीर और सावरकर पर पुस्तकों के लेखक
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