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जीएसटी के 5 साल: एक अच्छा, सच्चा और सरल टैक्स जो 5 साल में बन गया 'गब्बर सिंह टैक्स' जो न गुड है और न ही सिंपल

‘गुड और सिंपल टैक्स’ करार दिया जाने वाला जीएसटी उपभोक्ताओं, राज्यों या छोटे और असंगठित क्षेत्र के लिए न तो ‘गुड’ है और न ही ‘सिंपल’। यह पांच साल में 'गब्बर सिंह टैक्स' बन गया है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

राज्यों के घाटे पर केंद्र की कमाई

वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) को लागू हुए पांच साल हो गए हैं और सरकार का कहना है कि इसने अपने लक्ष्य को हासिल कर लिया है। जबकि केन्द्र और राज्यों के बीच भरोसे की डोर के चिंताजनक स्तर तक छीज जाने की ओर ध्यान दिलाते हुए विपक्ष कहता है कि इससे फायदा तो केन्द्र सरकार को हो रहा है। वह खुद तो कमाई कर रही है और घाटे को राज्यों की ओर सरका दे रही है।

पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम का कहना है कि इसके कारण उपभोक्ताओं और करदाताओं को भी खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। आलम यह है कि उलझाऊ दर संरचना यानी अलग-अलग तरह के रेट, शर्तें और छूट के चक्कर में जानकार करदाता का भी दिमाग चक्कर खा जाए। ऐसा नहीं कि जीएसटी सबके लिए बुरा है। यह कुछ के लिए अच्छा है; जैसे, बड़ी और संगठित कंपनी, चार्टर्ड एकाउंटेंट, टैक्स से जुड़े वकील आदि। इनका इसलिए फायदा है कि विवाद बढ़ गए हैं। लेकिन ‘गुड और सिंपल टैक्स’ करार दिया जाने वाला यह कर उपभोक्ताओं, राज्यों या छोटे और असंगठित क्षेत्र के लिए न तो ‘गुड’ है और न ही ‘सिंपल’।

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आटे तक पर मोटा जीएसटी

पेट्रोलियम उत्पादों और शराब को जीएसटी के दायरे में लाने के मामले में अब तक कोई सहमति नहीं बन सकी है। इन्हें राज्यों पर छोड़ दिया गया है और वे अपनी इच्छा से इसपर उत्पाद शुल्क लगाते हैं जिस वजह से किसी राज्य में इनकी कीमत अधिक है तो किसी में कम। इसी तरह कैसिनो, लॉटरी और रेस कोर्स से होने वाली कमाई पर जीएसटी लगाने के मामले में भी कोई फैसला नहीं हो सका है। लेकिन हाल ही में चंडीगढ़ में हुई जेएसटी काउंसिल की बैठक में पनीर, छाछ, गुड़ और मछली पर जीएसटी लगाने का फैसला हो गया। एलईडी बल्ब पर 18 फीसदी, मूढ़ी पर 5 फीसदी कर लगाया गया। पॉलिश किए हुए हीरे पर महज 1.5 फीसदी का टैक्स है जबकि आम लोगों की रोजाना जरूरत की चीज आटे पर कहीं ज्यादा।

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सबकुछ उलझा हुआ, पर सरकार खुश

अथॉरिटी फॉर एडवांस रूलिंग्स की कर्नाटक पीठ ने फैसला सुनाया कि पराठे पर 18 फीसदी जीएसटी लगेगा जबकि रोटी, चपाती और खाकरा के लिए इसकी दर 5 फीसदी है। इसी तरह शैंपू और बेसिक मेटल से बनने वाले पेन जैसे स्टेशनरी को लग्जरी सामान मानते हुए इन पर 28 फीसदी का जीएसटी लगाया गया है जबकि हीरे को विशेष श्रेणी में रखते हुए इसके लिए 0.25 से 3.0 फीसदी का टैक्स रखा गया है। यहां तक कि साबुन और टूथ पेस्ट पर 18 फीसदी का जीएसटी है जबकि टूथ ब्रश पर 5 फीसदी। एक चार्टर्ड एकाउंटेंट ने इसी तरह के विरोधाभास की ओर ध्ययान दिलाते हुए कहा कि पिज्जा पर तीन अलग-अलग दरों से जीएसटी लगता है। वह कहते हैं, ‘हरियाणा अथॉरिटी फॉर एडवांस रूलिंग्स ने फैसला दिया है कि पिज्जा की टॉपिंग और पिज्जा दो अलग चीजें हैं।’

लोगों के लिए यह सब उलझाऊ हो सकता है लेकिन जीएसटी परिषद के लिए ऐसा नहीं है। उनका हिसाब-किताब सीधा है- जिस भी चीज का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है, उसे इसकी सूची में डाल दो। लेकिन जीएसटी के बढ़ते दायरे को लेकर लोगों में काफी असंतोष है क्योंकि एक तो अभी मुद्रास्फीति यानी महंगाई दर बढ़ी हुई है, और बेरोजगारी की हालत तो पहले से ही बुरी है। लोग इसलिए खफा हैं कि उन्हें दिख रहा है कि सरकार कैसे कम आय वालों से भी पैसे वसूल रही है। एक हजार तक के होटल कमरे के लिए भी जीएसटी वसूला जा रहा है। मध्य वर्ग तो निशाने पर है ही। प्रति दिन पांच हजार या इससे अधिक वाले अस्पताल बेड पर जीएसटी लिया जा रहा है। अस्पतालों को भी इस पर आपत्ति है। उनका कहना है कि अस्पताल के कमरे की तुलना होटल के कमरे से नहीं की जा सकती।

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पिस के रह गए छोटे-मझोले धंधे-कारोबार

यह सही है कि जीएसटी वसूली में इजाफे से इस बात का संकेत मिलता है कि खपत बढ़ी है जो अर्थव्यवस्था के लिहाज से अच्छी बात है। लेकिन इसका एक मतलब यह भी तो हो सकता है कि ज्यादा टैक्स आना बढ़ी महंगाई को दिखा रहा हो!

‘एक देश-एक टैक्स’ के नारे के साथ और सबको समान मौका देने वाली व्यवस्था के तौर पर जिस जीएसटी को लाया गया, छोटे और मध्यम दर्जे के कारोबारियों का मानना है कि हुआ इसका उल्टा। कभी धारावी में स्पेयर पार्ट्स की दुकान चलाने वाले के. राजू कहते हैं, ‘पांच साल बाद टैक्स की इतनी सारी दरें हो गई हैं और फाइलिंग तथा रिपोर्टिंग की तो ऐसी प्रक्रिया है जो कभी खत्म ही न हो। पूरी जीएसटी व्यवस्था ही छोटे और पहली बार व्यवसाय शुरू करने वालों के खिलाफ है।’ आठ लोगों वाली राजू की छोटी यूनिट जीएसटी की मार नहीं झेल सकी। जीएसटी के पहले नोटबंदी और बाद में कोविड ने रही-सही कसर पूरी कर दी। राजू कहते हैं, ‘आज मैं 10 लाख के कर्ज में हूं।’ उनका दावा है कि वे ऐसी सैकड़ों यूनिटों के बारे में जानते हैं जो इन्हीं वजहों से बंद हो गईं।

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अर्थशास्त्री डॉक्टर भरत झुनझुनवाला कहते हैं, ‘छोटे और मध्यम उद्यमों को जीएसटी से झटका लगा है। उनके सारे कारोबार थाली में रखकर बड़े कारोबारियों को सौंप दिए गए हैं। नतीजा, अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हो गई। वे यह बात नहीं समझ सके कि एसएमई क्षेत्र अधिक श्रमिकों और कम मशीनों का उपयोग करके अर्थव्यवस्था में योगदान करता है। यह रोजगार पैदा करता है और श्रमिकों और छोटे व्यवसायों के हाथ में पैसे आने से बाजार में मांग पैदा होती है।’ छोटी और एमएसएमई इकाइयां ही हैं जो निर्यात और रोजगार दोनों में सबसे अधिक योगदान करती हैं।

पी. चिदंबरम जोर देकर कहते हैं कि ‘एक दोषपूर्ण जीएसटी ने बड़े पैमाने पर एमएसएमई इकाइयों को खत्म कर दिया है। यह वही क्षेत्र है जो विनिर्माण की 90% तक नौकरियां देता है। छोटे व्यवसाय जो या तो पंजीकृत नहीं हैं या जिन्हें जीएसटी के तहत पंजीकृत होने की जरूरत नहीं है, उन्हें आपूर्ति श्रृंखला से काट दिया गया है।’

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राज्यों को अब नहीं मिलेगा मुआवजा, पर जारी है सरचार्ज

जब 2017 में जीएसटी पेश किया गया, तो राज्यों को गारंटी दी गई थी कि एक बार व्यवस्था पटरी पर आ जाए तो उनका राजस्व 14% सालाना की दर से बढ़ेगा। पहले पांच वर्षों के लिए राजस्व में कमी की आशंका थी और केन्द्र सरकार ने राज्यों को कमी की भरपाई करने की पेशकश की। एक मुआवजा उपकर लगाया गया और राज्यों को इस निधि से प्रतिपूर्ति की जानी थी। मुआवजे के लिए पांच साल की अवधि 30 जून, 2022 को खत्म हो गई लेकिन जीएसटी परिषद ने उपकर को खत्म नहीं किया। दूसरी ओर, राज्यों को कोई जानकारी नहीं दी गई है कि उन्हें कम कमाई होने पर मुआवजा मिलता रहेगा या नहीं।

ऐसे में चिदंबरम सही ही सवाल करते हैं- अगर उपकर का पैसा राज्यों को मिलना नहीं है तो इसे वसूलें ही क्यों? 2017 के बाद से एक भी राज्य ने 14 प्रतिशत की वार्षिक राजस्व वृद्धि हासिल नहीं की। जब राजस्व में कमी बढ़ती गई तो राज्यों को ऋण लेने के लिए मजबूर होना पड़़ा। इससे उन पर बोझ और बढ़ा और उन्होंने केन्द्र से आपत्ति की लेकिन उसे खारिज कर दिया गया। इससे केन्द्र सरकार और राज्यों के बीच अविश्वास गहरा गया।

विपक्ष शासित राज्यों के वित्तमंत्रियों की मानें तो भाजपा शासित राज्य भी नाखुश हैं लेकिन वे अपनी आवाज नहीं उठा पा रहे हैं। गैर-भाजपा राज्यों के वित्तमंत्रियों को जीएसटी परिषद में बहुमत की बात से सहमत होना होगा अन्यथा मुआवजे के बकाया का वितरण नहीं होगा या लटक जाएगा।

कांग्रेस नेता जयराम रमेश चुटकी लेते हैं, बुल्डोजर बाहर ही नहीं, जीएसटी परिषद के भीतर भी चल रहा है।

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