8 नवंबर को नोटबंदी के दो साल पूरे हो रहे हैं। इसके विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करने के लिए हमने लेखों की एक श्रृंखला शुरू की है। पिछले लेखों में हमने बताया कि किस तरह नोटबंदी के फैसले से आम लोगों का जीवन दुखों से भर गया और इसके पीछे कौन सा अंतरराष्ट्रीय गठबंधन था। इस श्रंखली के तीसरे लेख में हम सरकारी आंकड़ों को सामने रख जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर नोटबंदी के पीछे इरादा क्या था सरकार का?
दो साल पहले 8 नवंबर की शाम करीब 8.30 बजे प्रधानमंत्री ने पूरी नाटकीयता के साथ अपनी समझ से एक ब्रह्मास्त्र चलाया था और दावा किया था कि इससे कालेधन, नकली नोट और आतंकवाद के तीन सिर वाले राक्षस का विनाश हो जाएगा। इस ब्रह्मास्त्र के अविष्कारकों का मानना था कि यही तीन राक्षस हैं जो भारत को ऊंची उड़ान से रोके हुए थे। शब्दाडंबर की कला में माहिर जादूगर को अपने इस ब्रह्मास्त्र पर इतना भरोसा था कि उसने कह दिया कि सिर्फ 50 दिन की दिक्कतों के बाद देशवासियों की सारी समस्याओं काफूर हो जाएंगी। यहां तक कि इस ब्रह्मास्त्र के विफल होने पर उसने तो खुद को चौराहे पर सजा देने तक के लिए पेश कर दिया था
भक्तिभाव में डूबे लोग और मीडिया देश के महानतम कलाकार की बातों पर मोहित हो गए। भर्राते गले, अश्रुपूरित आंखे और भावनाओं का ऐसा ज्वर उमड़ा जैसा कि आजादी हासिल करने पर भी नहीं उमड़ा था। बस कुछ मुट्ठी भर लोगों के अलावा हर कोई निश्चिंत था कि बस एक स्वच्छ भारत का सपना साकार ही होने वाला है।
सम्मोहन टूटना था, टूटा, अफरा-तफरी मचनी थी, मची, बैंक की कतारों में लोगों की जान जाने लगी, अस्पतालों में बिल न चुकाने की हालत में मरीजों का इलाज मुश्किल हो गया, जो समय काम करते गुजरना था, एटीएम के सामने लगी लाइन में खर्च होने लगा। एटीएम या तो खाली थे या फिर नए नोट उगलने में बेबस। लगभग हर घंटे नए नियम, नए कानून सामने आने लगे, अफवाहें सिर उठाने लगीं कि नए नोट में तो ऐसा चिप लगा है जो कब्र में से भी कालेधन को खींच बाहर निकालेगा। नदियों में पुराने नोट तैरते नजर आने लगे। कुल मिलाकर एक ऐसा सर्कस शुरु हो गया, जिसमें लोगों को पता ही नहीं चला कि इसके जोकर तो वे खुद हैं।
जिस दुस्साहस और निर्ममता से नोटबंदी के बहाने और अफसाने बनाए गए, वह देखने लायक थे। जिस मीडिया को इस फैसले पर सवाल उठाने थे, वह नोटों में चिप्स तलाशता नजर आने लगा।
नोटबंदी ने देश की ग्रामीण और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को जिस तरह धराशायी किया उसकी भरपाई आजतक नहीं हो पाई है। पीएम ने 50 दिन मांगे थे, लेकिन सिर्फ चलन में रहे नोटों की वापसी में ही 9 महीने से ज्यादा का वक्त लग गया। मेडिकल साइंस में पढ़ाते हैं कि अगर दल में एक निश्चित समय तक खून न पहुंचे तो नसें गलने लगती हैं, और फिर भले ही रक्त की आपूर्ति होने लगे तो भी ह्रदय पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाता है। ऐसा ही हुआ अर्थव्यवस्था के साथ, जब चलन में रही नकदी में से 86 फीसदी करेंसी रद्द कर दी गई।
इन नौ महीनों में देश की विकास दर 2 फीसदी गिर गई, हज़ारों-लाखों छोटे उद्योग धंधे तबाह हो गए, और लाखों लोग के सामने जीवन-यापन का सवाल खड़ा हो गया। खरीदार नहीं थे, इसलिए मंडियों में फसले सड़ने लगीं। लोगों को समझाया गया था कि यह ब्रह्मास्त्र तो अमीरों के लिए है, वे ही फंसेगे। लेकिन जब सामने आने लगा कि इसमें तो जनधन खातों से ही लाखों करोड़ों के वारे-न्यारे हो रहे हैं तो लोगों को विश्वास ही नहीं हो रहा था।
तो क्या नोटबंदी जिन वादों-दावों के साथ की गई थी, वह पूरे हुए। सरकारी आंकड़ों से ही इस पड़ताल करते हैं।
जैसा कि मैंने दिसंबर 2016 में ही अनुमान जताया था कि करीब ₹15 लाख करोड़ के नोट वापस आ जाएंगे, उस पर मुहर लग गई। आरबीआई ने 2017-18 की अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया कि 24 अगस्त 2018 तक उसके पास ₹15.311 लाख करोड़ वापस आ गए। यानी जितनी करेंसी चलन में थी उसका 99.2 फीसदी बैंकों में आ गया। इस आंकड़े से नोटबंदी को लेकर उत्साह में बल्लियों उछल रहे लोगों के अरमानों पर पानी फिर गया कि नोटबंदी से कुछ लाख करोड़ का फायदा होगा।
आरबीआई ने संसद को बताया कि जब नोटबंदी का ऐलान हुआ था तो ₹500 के 17,165 मिलियन और ₹1000 के 6,858 मिलियन नोट यानी कुल ₹15.55 लाख करोड़ चलन में थे। लेकिन आरबीआई की 2017-18 की सालाना रिपोर्ट बताती है कि ₹500 के 20,024 नोट और ₹1000 के 6,847 नोट खराब नोट थे, जिन्हें नष्ट किया गया। अगर इन्हें भी वापस हुए नोटों में मिला लिया जाए तो चलन में कुल नकदी ₹16.859 पहुंच जाएगी। यानी चलन में जितनी करेंसी थी उससे ज्यादा नोट बैंकों में आ गए।
नोटबंदी के कारणों में गिनाया गया था कि सीमापार से जारी आतंकवाद को नकली भारतीय करेंसी से मदद मिलती है और नोटबंदी उनकी कमर तोड़ देगी। भक्तों ने इसे भी खूब उछाला। भक्तों को लगा था कि कुल नकदी में से सिर्फ ₹11-12 लाख करोड़ ही वापस आएंगे, क्योंकि बहुत सारे तो नकली नोट ही चलन में हैं। लेकिन ऐसा हो न सका। आरबीआई की जो रिपोर्ट आई उससे पता चला कि सिर्फ ₹58.3 मूल्य के ही नकली नोट चलन में थे, जोकि कुल नकदी का मात्र 0.0034 फीसदी थे। हद तो यह है कि नोटबंदी के बिना ही देश की एजेंसियों ने 70 करोड़ से ज्यादा के नकली नोट हर साल बरामद किए थे।
दावे किए गए थे कि नए रंग और आकार के नए नोट की नकल हो ही नहीं सकती, लेकिन नए नोट बाजार में आने के चंद महीनों में नकली नोट पकड़े जाने लगे। अब तक करीब ₹4.2 करोड़ के नकली नोट तो अकेले आरबीआई ही पकड़ चुकी है। इसमें अलग-अलग एजेंसियों द्वारा बरामद नोट तो शामिल भी
आज तो इस बात के पुख्ता सबूत सामने हैं कि नोटबंदी के जो उद्देश्य बताए गए थे, उनमें से एक भी हासिल नहीं हो सका। कालाधन पकड़ना तो दूर, उलटे बड़ी तादाद में नए सिरे से कालाधन जमा होने लगा, क्योंकि बंद किए गए 99.2 फीसदी पुराने नोट तो बैंकों में वापस पहुंच ही गए।
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जब नोटबंदी के घोषित उद्देश्य धड़ाम होने लगे और सरकार को कोसा जाने लगा, तो सरकार के मंत्रियों और प्रवक्ताओं ने कहना शुरु कर दिया कि असली इरादा तो कैशलेस इकोनॉमी यानी नकदविहीन अर्थव्यवस्था था, डिजिटल अर्थव्यवस्था था। लेकिन अगर डिजिटल लेनदेन के आरबीआई के आंकड़े ही देखें तो नोटबंदी के बाद डिजिटल लेनदेन में कोई खास उछाल नहीं आया। 10 अक्टूबर 2018 को देश में कुल चलन में नकदी ₹19.688 लाख करोड़ थी, जो कि नवंबर 2016 के मुकाबले ₹1.711 लाख करोड़ अधिक है। इतना ही नहीं अगस्त 2016 में जहां हर महीने ₹2.20 लाख करोड़ एटीएम से निकाले जाते थे वहीं अगस्त 2018 में यह आंकड़ा ₹2.76 लाख करोड़ था।
आरबीआई की 2017-18 की सालाना रिपोर्ट आने के फौरन बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फेसबुक पोस्ट लिखा। इसमें उन्होंने बताया कि नोटबंदी के बाद से आयकर जमा करने और रिटर्न फाइल करने वालों की तादाद बढ़ी है, और नोटबंदी का असली मकसद देश में टैक्स देने वालों की संख्या बढ़ाना था। लेकिन सच्चाई का पता आयकर विभाग के आंकड़ों से लगता है। इससे पता लगता है कि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। (देखें नीचे दी गई तालिका)
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इतना ही नहीं नीचे दिए गए ग्राफ से यह भी साबित हो जाएगा कि टैक्स देने वालों की तादाद और आयकर से राजस्व में बढ़ोत्तरी यूपीए शासन के दौरान ही शुरु हो गई थी।
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इसके अलावा इस तालिका से यह भी साबित हो जाएगा कि यूपीए के 10 साल (2004 से 2014) के शासन में टैक्स में बढ़ोत्तरी औसतन 20.2 फीसदी थी जबकि मोदी शासन के पहले 4 साल (2014 से 2018) के बीच यह औसतन 12 फीसदी है। इसी तरह यूपीए शासन में टैक्स को लेकर उत्साह 1.33 फीसदी था जो कि मोदी शासन में 1.17 फीसदी है।
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इन सारे आंकड़ों को इन आलोक में देखना चाहिए कि मोदी तो भारत के स्वच्छ बनाने के वादे के साथ प्रधानमंत्री बने थे। कालेधन पर सीधे हमले का ऐलान था। लेकिन तमाम दावों और ढोल-नगाड़ों के बावजूद मनमोहन शासन में हुए आर्थिक प्रदर्शन को छू भी नहीं पाई है मोदी सरकार।
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