बिहार चुनाव के नतीजों ने राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया है। हालांकि अभी इन चुनावों का जमीनी स्तर पर विश्लेषण होना बाकी है, लेकिन फिलहाल जो मुख्य दस बातें सामने आ रही हैं, वे इस तरह हैं:
बिहार में कम से कम 28 सीटें ऐसी रहीं जहां जीत का अंतर 1000 वोटों से भी कम रहा। वहीं 62 सीटें ऐसी हैं जहां जीत का अंतर 2000 वोटों से कम और 113 सीटों पर जीत का अंतर 3000 वोटों से कम रहा। इस तरह बिहार की कुल 243 सीटों में 203 सीटें ऐसी रहीं जहां कांटे का मुकाबला देखने को मिला। इसका यह भी अर्थ निकाला जा सकता है कि जब कहीं अधिक प्रत्याशी हों तो उसी दल को जीत मिल सकती है जो बेहतर तरीके से संयोजित और संगठित होन के साथ ही संसाधनों वाला भी हो।
माना जा रहा है और चुनाव आयोग के आंकड़े भी संकेत देते हैं कि इस बार के चुनाव में महिला मतदाताओँ ने नीतीश कुमार के पक्ष में वोट डाले। इसे राजनीतिक विश्लेषण की भाषा में एक्स फैक्टर कहा जा रहा है। कहा जा रहा है कि इसी साइलेंट वोटर ने नीतीश और एनडीए की जीत सुनिश्चित की। लेकिन ये आंकड़े कितने सटीक हैं आने वाले दिनों में इसका विश्लेषण करना जरूरी होगा।
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बिहार में तीसरे चरण के मतदान से पहले बीजेपी ने अपने स्टार प्रचारक योगी आदित्यनाथ को मैदान में उतारा। योगी ने अपेक्षा के मुताबिक हिंदुत्व और सीएए-एनआरसी जैसे मुद्दे उठाए, जिसकी नीतीश कुमार ने खुलकर काट की। नीतीश कुमार ने खुलकर कहा कि भारतीय नागरिकों और मुस्लिमों कोई देश से नहीं निकाल सकता। इससे ध्रुवीकरण का माहौल बना जिसका फायदा बीजेपी को हुआ।
इस बार के चुनाव में सीपीआई-माले ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा और 12 पर जीत दर्ज की। जबकि 2015 के चुनाव में इसके खाते में सिर्फ तीन सीटें ही आई थीं। वहीं सीपीआई-सीपीएम ने 10 सीटों पर चुनाव लड़ा और 4 सीटें जीतीं। इस तरह वामदलों के खाते में 16 सीटें गईं। बिहार में नक्सल, माओवादियों और कथित अर्बन नक्सल के राग के बावजूद वामदलों की यह जीत महत्वपूर्ण है। करीब 25 साल बाद बिहार में वामदलों का उत्थान उनके लिए नई ऊर्जा का काम करेगा।
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बिहार चुनाव में इस बार महागठबंधन और एनडीए दोनों के हिस्से में करीब 37-37 फीसदी वोट आए हैं। यानी बाकी करीब 25 फीसदी वोट अन्य पार्टियों या निर्दलीयों के खाते में गए हैं। अर्थात हर चौथा वोटर मुख्य गठबंधनों के अलावा किसी अन्य से प्रभावित रहा।
बिहार के नतीजे साफ बताते हैं कि जातीय सघनता वाले इलाकों में वोटरों ने अपनी ही जाति का समर्थन किया है। अति पिछड़ों और अल्पसंख्यकों ने सीमांचल में नीतीश कुमार का साथ दिया तो उच्च जातियों ने बीजेपी का। इसके अलावा बिहार एम-वाई समीकरण यानी मुस्लिम-यादव वोटर अभी भी आरजेडी के साथ ही जुड़ा हुआ है।
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नीतीश कुमार ने अपनी आखिरी चुनावी रैली में ऐलान किया था कि यह उनका आखिर चुनाव है, ‘अंत भला तो सब भला...’ लेकिन जेडीयू नेताओं ने इसे नया मोड़ देते हुए कहा कि उनका तात्पर्य आखिरी चुनावी रैली से था। वैसे भी जेडीयू में नीतीश के बाद दूसरा नेता है नहीं, ऐसे में पार्टी के साथ ही नीतीश कुमार भविष्य भी अधर में ही लटका दिख रहा है। सवाल उठने लगे हैं कि नीतीश के बिना जेडीयू अपना अस्तित्व बचा पाएगा या नहीं।
कांग्रेस ने इस चुनाव में 70 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, और उसके हिस्से में 19 सीटों पर जीत आई और उसने 9.75 फीसदी वोट हासिल किए। यह औसत आरजेडी, बीजेपी और जेडीयू से कम है। इन तीनों दलों ने कांग्रेस के मुकाबले कहीं अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा और उनका जीत का औसत काफी अच्छा रहा।
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बिहार में तीन दौर में मतदान हुआ और हर दौर में वोटरों को मिजाज अलग साबित हुआ। पहले दौर में तेजस्वी यादव की अगुवाई वाले महागठबंधन ने अच्छा प्रदर्शन किया तो दूसरे में एनडीए बेहतर स्थिति में रहा। लेकिन तीसरे और आखिरी दौर पर तो एनडीए ने पूरी तरह कब्जा कर लिया। माना जा सकता है कि इन दौर में स्थानीय मुद्दे हावी रहे।
शहरी इलाकों की सीटों पर कम मतदान से एक बात तो साफ हो गई कि बिहार में इस बार लहर किसी की नहीं थी। लेकिन इससे किस पार्टी को नुकसान और किसे फायदा हुआ इसका विश्लेषण आने वाले दिनों में किया जाएगा
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