लोकसभा चुनाव 2019

चुनाव में हवा भी नहीं थी तो एग्जिट पोल में लहर कहां से आई, आखिर कौन जांचेगा प्रामाणिकता

चुनावों पर गहरी नजर रखने वाले स्वतंत्र राजनीतिक पर्यवेक्षक और विश्लेषक भी मानते हैं कि एग्जिट पोल पर निर्णायक रूप से फौरन कुछ मान लेना जल्दबाजी होगी। लिहाजा 23 मई के इंतजार की भी बात की जा रही है, जब असल चुनावी नतीजे घोषित किए जाएंगें।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

लोकसभा चुनावों के समापन पर करीब दो दर्जन एग्जिट पोल सामने आए हैं। इनके अलावा विभिन्न अन्य एजेंसियों, स्वतंत्र संगठनों और राजनीतिक दलों के छाया संगठनों के अपने-अपने निजी सर्वे भी हैं। कुल मिलाकर टीवी पर आने वाले एग्जिट पोल ही दर्शकों और राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों में रोमांच का विषय बनते हैं।

2019 चुनावों के तमाम एग्जिट पोल में एक बार फिर बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए को बहुमत दिखाया जा रहा है। कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए को सत्ता की रेस में बहुत पीछे बताया गया है। वहीं, एसपी-बीएसपी के गठबंधन से लेकर बिहार में कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन या आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडू को और बंगाल में तृणमूल को भी झटका लगता हुआ दिख रहा है।

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यूं तो विपक्षी दलों का अपने खिलाफ आ रहे सर्वेक्षण के नतीजों से इनकार कर देना स्वाभाविक है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी जैसी नेता भी हैं जो खुलकर न सिर्फ इन एग्जिट पोल को खारिज कर रही हैं बल्कि सभी विपक्षी दलों को एकजुट और साहसी बने रहने की अपील भी कर रही हैं। हालांकि बीजेपी और उसके समर्थकों का आरोप है कि विपक्षी दल संभावित हार से खीझे हुए हैं।

लेकिन ये भी एक सच्चाई है कि चुनावों पर गहरी नजर रखने वाले स्वतंत्र राजनीतिक पर्यवेक्षक और विश्लेषक भी मानते हैं कि एग्जिट पोल पर निर्णायक रूप से फौरन कुछ मान लेना जल्दबाजी होगी। लिहाजा 23 मई के इंतजार की भी बात की जा रही है, जब असल चुनावी नतीजे घोषित किए जाएंगें।

लेकिन ये सवाल भी उठने लगे हैं कि बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में पहले जो लहर नहीं दिख रही थी वो अचानक एग्जिट पोल आते-आते कैसे लहर बना दी गई। इसी से जुड़ा सवाल ये भी है कि क्या ऐसे सर्वेक्षणों के कुछ राजनीतिक निहितार्थ भी हो सकते हैं या नहीं। क्योंकि ये पाया गया है कि एग्जिट पोल जारी करने के दौरान कुछ एजेंसियों के आंकड़े भी घटते-बढ़ते हुए दिखाए गए हैं। कुछ एग्जिट पोल में विधि की त्रुटियां भी चिन्हित की गई हैं। और तो और चुनाव पश्चात के सर्वेक्षणों का ये नतीजा आखिर कितने प्रतिशत वोटरों से मिलकर बना है, ये भी सबसे बड़ा सवाल है।

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आमतौर पर कहा जाता है कि वोट देकर बाहर निकलने वाले मतदाताओं से एजेंसियों के वॉलंटियर सवाल पूछते हैं और उनके आधार पर ये पता लगाया जाता है कि कितने प्रतिशत मतदाताओं ने किस पार्टी के निशान के सामने बटन दबाया होगा।

यहां सवाल उठता है कि वे कौन से मतदाता होते हैं जिन्हें पूछने के लिए रोका जाता है, क्या ये रैंडम सैंपल होता है? रैंडम सैंपल का भूगोल क्या है? किन इलाकों में सर्वेक्षण किया गया है? क्या वहां पहले से किसी खास पार्टी या उम्मीदवार का प्रभाव था या नहीं? इनके अलावा और भी बहुत सारे फैक्टर हैं जो सर्वेक्षण में आने चाहिए।

जाहिर है साइलेंट वोटर (प्रतिक्रिया न देने वाले खामोश मतदाता) इस सैंपलिग से बाहर हैं। और ऐसे कितने मतदाता होंगे- ये सैंपल के नमूनों से ही स्पष्ट हो जाता है। तो ऐसे में सर्वेक्षण के सटीक आकलन के दावे भी डगमगाते हुए से लगते हैं।

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बेशक कुछ पहलुओं पर और खासकर सैंपलिंग के गणित पर ये सर्वेक्षण बारीकी से ध्यान देते हैं, लेकिन अपने सवालों में किन फैक्टरों का ध्यान रखते हुए सैंपलिग करते हैं, ये स्पष्ट नहीं हो पाता है। आम दर्शक तो टीवी स्क्रीन पर आंकड़ों की बारिश देखता है और कुछ सनसनीखेज ग्राफिक्स जहां बहुमत और अल्पमत और हार-जीत की डुगडुगी बजती हुई दिखती है और पैनलिस्ट के तू-तू, मैं-मैं के शोर में सब कुछ डूबा रहता है।

इन सब में यही नहीं बताया जाता कि सैंपल कहां से हैं और किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति से कितना प्रभावित है। भूगोल, रुचि और समर्थन के अलावा फिर ये कैसे तय किया जाएगा कि जो वो कह रहा है वही सही है। तो ऐसे में एग्जिट पोल का सारा का सारा दारोमदार इसी एक बात पर टिका है कि व्यक्ति को पूछे गए सवाल के जवाब में वो जो कहता है वो कितना प्रामाणिक और सही है। ये एक तरह से अनुमान और आभास का मिलाजुला संग्रह बनकर रह जाता है। कभी सही तो अधिकांश बार गलत। भारत के चुनावों को लेकर अधिकांश सर्वे का इतिहास तो यही बताता है।

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इन एग्जिट पोल के व्यवसायिक निहितार्थ तो हैं ही, साथ ही जानकारों को ये संदेह भी रहता है एग्जिट पोल एक खास राजनीतिक झुकाव वाले आंकड़े भी दे सकते हैं। और अगर ऐसा हो रहा है या होता हुआ दिखता है तो इसकी रोकथाम के उपाय क्या हैं, ये बड़ा सवाल है। इस पर नियंत्रण कैसे पाया जा सकता है? क्या चुनाव आयोग की ऐसे मामलों में कोई भूमिका हो सकती है?

उसने इतना तो कुछ वर्षों पहले जरूर कर दिया था कि एग्जिट पोल पूरी मतदान प्रक्रिया खत्म होने के बाद ही जारी किए जा सकते हैं, पहले नहीं। लेकिन ऐसा होते हुए भी ये क्यों नहीं माना जा सकता कि संभावित नतीजों से पहले एक सनसनी और राजनीतिक दबावों का वायुमंडल तैयार करने में भी ये एग्जिट पोल प्रछन्न भूमिका निभा सकते हैं। चुनाव आयोग की जैसी तीखी आलोचना और भर्त्सना इन चुनावों में हुई है, वैसा पहले कभी इस एजेंसी के साथ नहीं हुआ। तो ऐसे में एग्जिट पोल को लेकर उसके ऐक्शन की दिशा क्या होगी, कहना कठिन है।

और एक आखिरी बात, अगर ये सर्वेक्षण वास्तविक चुनावी नतीजों से मेल खाते हैं तो इनका बाजार और जरूरत तो और फले फूलेगा, साथ ही दावों का डंका भी खूब जोर-शोर से बजेगा। लेकिन अगर नतीजे उलट गए तो क्या होगा? क्या एग्जिट पोल अपनी चूक को स्वीकार करेंगे और ये बताएंगे कि उनसे कहां और कैसे चूक हुई या वे नये बाजारों और नयी सांख्यिकी का रुख करेंगे?

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