लोकसभा चुनाव के समर में उतर रहे उम्मीदवार जहां अर्जुन की आंख की तरह अपनी सीट पर नजरें गड़ाए वोटरों को लुभाने की हर संभव कोशिश में लगे हैं, वहीं इस दंगल में योद्धाओं का एक और दल भी है, जो पर्दे के पीछे रहकर चुनावी आंकड़ों को खंगाल रहे हैं, मौजूदा रुझानों का आकलन कर रहे हैं, विश्लेषण कर रहे हैं, मंथन कर रहे हैं और फिर उसके हिसाब से रणनीति बना रहे हैं।
लेकिन ये सब वे अपने लिए नहीं, बल्कि अपने क्लाइंट्स के लिए कर रहे हैं। ये राजनीतिक सलाहकार या राजनीतिक रणनीतिकार हैं जो रोज 12-14 घंटे काम कर रहे हैं और अपने क्लाइंट्स की जीत सुनिश्चित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। उनकी मदद के लिए युवाओं की एक पूरी फौज उनके इस मिशन में साथ है, जिनमें रिसर्चर, डिजिटल मार्केटीयर्स, विश्लेषक और सॉफ्टवेयर इंजीनियर्स जैसे अपने क्षेत्र के माहिर और कुशल पेशेवर हैं।
भारत में चुनाव लड़ने के तौर-तरीके में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आया है और अब वोटरों को लुभाने के लिए चुनाव मैदान में उतरी पार्टियां और उम्मीदवार केवल चुनाव प्रचार और लोक लुभावन घोषणापत्रों पर ही भरोसा रखकर बाजी नहीं जीत सकते, बल्कि जीतने के लिए इससे बढ़कर भी काफी कुछ करना होता है और यहां भूमिका अदा करते हैं, खास चुनाव विशेषज्ञ- जिन्हें कैंपेन मैनेजर, राजनीतिक विश्लेषक, राजनीतिक सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार और चुनाव प्रबंधक जैसे विभिन्न नामों से जाना जाता है।
प्रशांत किशोर जहां आज भी इस मैदान के पोस्टर बॉय हैं, वहीं उनके जैसे पेशेवरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और इस क्षेत्र में कई नए नाम उभरकर सामने आए हैं, जिन्होंने इस उभरते हुए क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई है और अपने क्लांइट्स को जीत दिलाई है।
भारत के शीर्ष उद्योग संगठनों में से एक एसोचैम के मुताबिक, 2014 में भारत में करीब 150 राजनीतिक विश्लेषक थे। इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का मानना है कि अब यह संख्या बढ़कर 300 हो गई है और लगातार बढ़ रही है। ये रणनीतिकार अपने क्लांइट्स को वोटर स्विंग का आश्वासन देते हुए उनकी जीत सुनिश्चित करने के लिए कई नए और अकाट्य तरीकों, तकनीकों और विशिष्ट रूप से तैयार किए गए टूल्स का सहारा लेते हैं।
क्या ये रणनीतिकार विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव के अभियान के लिए अलग तरह की रणनीतियां अपनाते हैं? इस सवाल पर कई दिग्गजों के लिए चुनावी रणनीति तैयार कर चुके राजनीतिक रणनीतिकार और कैंपेन मैनेजमेंट कंपनी डिजाइन बॉक्स्ड के निदेशक नरेश अरोड़ा ने कहा, "हां, बिल्कुल, दोनों चुनावों के लिए विशिष्ट प्रकार की रणनीति की जरूरत होती है।”
नरेश अरोड़ा ने कहा कि विधानसभा चुनाव में स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाता है, जबकि लोकसभा चुनाव अखिल भारतीय मुद्दों पर आधारित होते हैं। अरोड़ा इन दिनों महाराष्ट्र में एक नए प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं और उनका लक्ष्य 2019 आम चुनाव हैं।
उनके विचारों से सहमति जताते हुए, देशभर में 1000 से भी अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से जुड़े रिसर्च या चुनावी अभियान में शामिल होने का दावा करने वाली पॉलीटिकल कंसल्टेंसी और मैनेजमेंट कंपनी लीड टेक के निदेशक विवेक बागड़ी कहते हैं, “विधानसभा चुनावों में हमारी कोशिश वोटरों से सीधा संपर्क करने की थी और इसमें वॉलंटियर्स और पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा डोर-टू-डोर कैंपेन ज्यादा महत्वपूर्ण था, लेकिन लोकसभा चुनावों में अप्रत्यक्ष संपर्क एक महत्वपूर्ण कारक है।”
2019 लोकसभा चुनाव के लिए विशिष्ट रणनीति के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, "2019 के दंगल में हमारी प्रमुख रणनीति मीडिया और 2-3 शीर्ष राष्ट्रीय नेताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों और एजेंडे के इर्द-गिर्द घूमती है।"
आगामी चुनाव बेहद करीब हैं। ऐसे समय में हर दिन ही नहीं, बल्कि हर मिनट महत्व रखता है, जिसे देखते हुए इन रणनीतिकारों के वॉर रूम में काफी हलचल और गहमा-गहमी है। पंजाब में 'मैं कैप्टन दे नाल', छत्तीसगढ़ में 'जन घोषणा पत्र' और राजस्थान में 'राजस्थान का रिपोर्ट कार्ड' जैसे कई चुनाव अभियानों की रूपरेखा तैयार कर चुके अरोड़ा चुनावी गहमा-गहमी के बीच अपने दिनभर की गतिविधियों के बारे में बताते हुए कहते हैं, "यह सातों दिन और चौबीसों घंटे का प्रयास है।"
उन्होंने कहा कि सुबह विश्लेषण से दिन की शुरुआत होती है, जिसके बाद एक दिन पहले तय की गई रणनीतियों पर काम किया जाता है। दिन आगे बढ़ने के साथ मुद्दों का फिर से विश्लेषण किया जाता है, जिसके बाद जमीनी स्तर पर काम कर रही टीमों द्वारा दिए गए फीडबैक की लगातार निगरानी के अलावा कंटेंट तैयार किया जाता है। दिन के आखिर में पूरे दिन भर के काम का आकलन किया जाता है और सभी टीमों से मिले फीडबैक के आधार पर अगले दिन की रणनीति पर काम किया जाता है।
इस चुनौतीपूर्ण मिशन में कई मुश्किलें भी सामने आती हैं, जिनमें से एक है फेक न्यूज से निपटना। बागड़ी कहते हैं, "सोशल मीडिया के कारण, काफी फेक न्यूज सामने आती हैं, इसलिए वॉर रूम में इनकी पुष्टि करना भी एक बड़ी चुनौती बन गया है। जो पार्टी या उम्मीदवार जीत की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा होता है, उसके लिए वॉर रूम हलचल और गहमा-गहमी से भरा होता है, और जो थोड़ा पिछड़ता दिखाई देता है उनके क्षेत्र में काफी गंभीरता पसरी नजर आती है।"
वैज्ञानिक डेटा हैंडलिंग का विश्लेषण और विशिष्ट अत्याधुनिक रणनीतियों की मदद से कुछ कैम्पेन मैनेजर कम से कम 2-5 प्रतिशत वोट स्विंग सुनिश्चित करने का दावा करते हैं। बागड़ी कहते हैं कि रणनीति तैयार करने का सही तरीका काफी फर्क ला सकता है। सही समय पर सही चोट करके कैम्पेन मैनेजर और पॉलीटिकल कंसल्टेंट्स वास्तव में वोट शेयर को 5 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं।
उन्होंने आगे बताया कि चुनाव पूर्व सर्वे का जमीनी स्तर पर इस्तेमाल करके, अगर सही प्रकार से मत विभाजन किया जाए और मतदाताओं से जुड़े आंकड़ों का विभाजन और हर आयाम से विश्लेषण किया जाए तो वास्तव में बाजी अपने पक्ष में की जा सकती है।
लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों और उनसे जुड़े बड़े नेताओं के लिए ये रणनीतिकार काम कर रहे हैं। कई रणनीतिकार तो लोकसभा चुनाव की घोषणा से भी काफी पहले से अपने क्लाइंट्स के लिए काम में लग गए हैं। हालांकि भले रणनीतिकार वोट स्विंग का भरोसा दें, लेकिन चुनाव में सबसे बड़ी ताकत जनता के पास होती है और आखिरी फैसला भी उसी का होता है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined