लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिए आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी में से निकला हुआ खामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था।
वह चुपचाप सिर्फ सिगरेट पीता रहता था। कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था। फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था। और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े-बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे।
कभी मैं एक बार उसके हाथ को छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी।
तब भी कल्पना की करामात का सहारा लिया था।
उसके जाने के बाद मैं उसके छोड़े हुए सिगरेटों के टुकड़ों को संभालकर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले में बैठकर जलाती थी और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं।
सिगरेट पीने की आदत मुझे तब ही पहली बार पड़ी थी। हर सिगरेट को सुलगाते हुए लगता कि वह पास है। सिगरेट के धुंए में जैसे वह जिन्न की भांति प्रकट हो जाता था।
फिर वर्षों बाद अपनी इस अनुभूति को मैंने ’एक थी अनीता’ उपन्यास में लिखा। पर साहिर शायद अभी तक मेरे सिगरेट के इस इतिहास को नहीं जानता।
सोचती हूं - कल्पना की दुनिया सिर्फ उसकी होती है जो इसे सिरजता है और जहां इसे सिरजने वाला ईश्वर भी अकेला होता है।
आखिर जिस मिट्टी से यह तन बना है उस मिट्टी का इतिहास मेरे लहू की हरकत में है - सृष्टि की उत्पत्ति के समय जो आग का एक गोला सा हजारों वर्ष जल में तैरता रहा था उसमें हर गुनाह को भस्म करके जो जीव निकला वह अकेला था। उसमें न अकेलेपन का भय था, न अकेलेपन की खुशी। फिर उसने अपने ही शरीर को चीरकर - आधे को पुरुष बना दिया, आधे को स्त्री- और इसी में से उसने सृष्टि रची।
संसार की यह आदि कथा मात्र मिथ नहीं है, न केवल अतीत का इतिहास - यह हर समय का इतिहास है- चाहे छोटे-छोटे मनुष्यों का छोटा-छोटा इतिहास, मेरा भी।
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