कहवा खाना kahava khana

जन्मदिवस विशेष: शिद्दत का दूसरा नाम थे शरद जोशी, जिनका एक लेख को पढ़ने के लिए लोग पूरा अखबार खरीदते

दुनिया के अखबारी इतिहास में यह विरले उदाहरण है कि कतिपय पाठक किसी एक लेखक-स्तंभ को पढ़ने के लिए समाचार पत्र खरीदते हों। यह अनूठा उदाहरण हिंदी में कायम हुआ। अखबार था 'नवभारत टाइम्स' और लेखक थे शरद जोशी।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

दुनिया के अखबारी इतिहास में यह विरले उदाहरण है कि कतिपय पाठक किसी एक लेखक-स्तंभ को पढ़ने के लिए समाचार पत्र खरीदते हों। यह अनूठा उदाहरण हिंदी में कायम हुआ। अखबार था 'नवभारत टाइम्स' और लेखक थे शरद जोशी। तब बहुतेरे पाठक शरद जोशी का, महान पत्रकार-संपादक राजेंद्र माथुर के संपादन में छपने वाले रोजाना स्तंभ 'प्रतिदिन' को पढ़ने के लिए 'नवभारत टाइम्स' खरीदते थे। यह कॉलम अखबार के आखिरी पन्ने पर छपता था। लिहाजा अखबार को पढ़ने की शुरुआत भी अंतिम पृष्ठ से की जाती थी! तो यह शरद जोशी का जादू और जलवा था। उन्हीं शरद जोशी का आज (21 मई) जन्मदिन है।

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शरदजी की याद प्रासंगिक है। उनका औपचारिक परिचय है: प्रबुद्ध, स्वतंत्र और बेबाक पत्रकार एवं व्यंग्यकार शरद जोशी का जन्म 21 मई, 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन में हुआ था। पत्रकारिता, आकाशवाणी और सरकारी नौकरी के बाद उन्होंने लेखन को ही अपना जीवन बना लिया। 'नई दुनिया' से उन्होंने लेखन की शुरुआत की। 1990 में 'हिंदी एक्सप्रेस' के संपादन का दायित्व संभाला। बाद में 'नवभारत टाइम्स' में दैनिक व्यंग्य लिखकर वे देशभर में चर्चित हो गए। फिक्शन (व्यंग्य) को कविता की तरह पढ़कर कवि-सम्मेलनों में मंच लूटने की भी उन्हें महारत हासिल थी। जीप पर सवार इल्लियां, रहा किनारे बैठ, मेरी श्रेष्ठ रचनाएं, पिछले दिनों, किसी बहाने, परिक्रमा, यथासंभव, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे, यत्र तत्र सर्वत्र और यथासमय आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं। 1989 में उन्हें पद्मश्री दिया गया। जिस्मानी अंत 5 सितंबर, 1991 को हुआ।

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जोशी जी का साहित्यिक अवदान महानता की सरहद को बखूबी छूता है। व्यवस्था-तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा आम आदमी को 'बोनसाई' बनाने वाली सत्ता-संस्कृति के विरुद्ध वे लगभग जिहादी स्तर पर आजीवन संघर्षरत रहे। शरद जोशी अपने सहज और बोलचाल के गद्य में ऐसी व्यंजना भरते थे जो पाठक के मन- मस्तिष्क को केवल झकझोरती नहीं, एक नई सोच भी पैदा करती थी। अवाम उनके लेखन के केंद्र में था। भ्रष्टाचार, शोषण, विकृति और अन्याय पर अपनी कलम से प्रहार करने का कोई भी मौका वह छोड़ते नहीं थे। जिस "नई दुनिया' को हिंदी पत्रकारिता के गौरवशाली स्कूल का दर्जा हासिल है, (इन दिनों वाली 'नई दुनिया' नहीं) उससे शरद जोशी ने पत्रकारीय सफर शुरू किया था। हिंदी के 'जीनियस' पत्रकार राजेंद्र माथुर ने भी। दोनों की मुलाकात वहीं हुई थी। माथुर साहब प्रयोगधर्मी पत्रकारों, लिखकों अथवा शब्द शिल्पियों की छांह थे और खुद भी पहली कतार के अव्वल प्रयोगकर्ता! उन्होंने अपने अखबार के लिए शरद जोशी से प्रतिदिन दो कॉलमीय स्तंभ लिखने को कहा। उस स्तंभ की वजह से चंद दिनों में ही 'नवभारत टाइम्स' की प्रिंट प्रतियां बढ़ गईं। प्रसार संख्या के लिहाज से उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' पहले नंबर पर था। मार्केटिंग टीम ने साफ इंगित किया कि हजारों पाठक सिर्फ शरद जोशी का स्थायी स्तंभ पढ़ने के लिए 'नवभारत टाइम्स' खरीदते हैं।

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जोशी जी कहीं भी हों और किसी भी हाल में, 'नवभारत टाइम्स' का स्तंभ वह बाजरूर लिखते थे। यह काम उनकी जीवनचर्या का अहम हिस्सा हो गया था। उन्हें पढ़ने वालों की जीवनचर्या का भी। अपने घोर प्रशंसकों के लिए वह लेखक नहीं बल्कि 'आदत' थे। उनके स्तंभ की नियममिता कभी नहीं टूटी और एकाध बार वह किसी वजह से नहीं छपा तो देशभर से टेलीप्रिंटों (तार) की बाढ़ अखबार के ऑफिस में आ गई। राजेंद्र माथुर खुद ऐसा मानते-कहते थे कि शरद जोशी और 'नवभारत टाइम्स' एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि उन्हें रज्जू बाबू (राजेंद्र माथुर) से स्वस्थ ईर्ष्या है कि 'जनसत्ता' के पास कोई शरद जोशी क्यों नहीं? जिक्रेखास है कि आपस में गहरे दोस्त राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी और शरद जोशी-तीनों मध्य प्रदेश के थे।

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हिंदी व्यंग्य के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई भी मध्यप्रदेश की धरती पर पैदा हुए। (समकालीन लेखन का एक प्रमुख नाम डॉक्टर ज्ञान चतुर्वेदी भी)। यह श्रेय यकीनन शरद जोशी के योग्य है कि उन्होंने व्यंग्य को 'विचारहीनता' के आरोपों की जकड़न से मुक्त करवाने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। परसाई का भी इसमें महत्ती योगदान है। दोनों का समूचा लेखन व्यंग्य-प्रधान है लेकिन वैचारिक-आधारशिला पर मजबूती के साथ टिका हुआ। हरिशंकर परसाई यह पहले से कर रहे थे और शरद जोशी ने आगे जाकर किया कि व्यंग्य की भाषा का नया सौंदर्यबोध रचा। अपने तौर पर बताया कि व्यंग्य हंसने-हंसाने की हास्यास्पद कवायद नहीं है बल्कि जनपीड़ा की तार्किक अभिव्यक्ति है। इसका सरलीकरण भाषा से लेकर विचार तक सरल नहीं बल्कि बेहद मुश्किल है।

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जनसमुदाय जब अक्षरों में अपना अक्स देखे, तब कोई भी विधा अतिरिक्त गंभीरता का रूप अख्तियार कर लेती है और ज्यादा जवाबदेही उसके हिस्से आती है। स्वाभाविक है कि जनचिंतन की विचारयात्रा के अति संवेदनशील सहयात्री शरद जोशी सरीखे लेखक इस सबके प्रथम नागरिक के बतौर सामने आते हैं। शरद जोशी के हिस्से यह श्रेय भी है कि उन्होंने हिंदी में टिकट खरीद कर व्यंग्य सुनने की रिवायत चलाई। उनके अभिन्न मित्र प्रोफेसर कांति कुमार जैन की एक जानदार कृति है, 'लौट कर आना नहीं होगा'। यह उनके संस्मरणों का संग्रह है। इसमें शरद जोशी पर उनका लंबा संस्मरण शुमार है। जैन साहब लिखते हैं, "मंच यमाई के सामने खड़े हुए शरद के व्यंग्य सुनना एक अनुभव हुआ करता था। उस जमाने में कवि सम्मेलनों के घटते स्तर को रोकने का जबरदस्त काम शरद जोशी के व्यंग्य पाठों ने किया। हिंदी में टिकट खरीदकर व्यंग्य सुनाने की परंपरा शरद ने चलाई। आप सर्कस देखने जाते हैं तो टिकट खरीदते हैं, लेखक की रचनाएं बिना दाम छुपाए क्यों सुनना चाहते हैं? शरद का तर्क दमदार था। उसने खूब व्यंग्य पढ़े, खूब पैसा कमाया, खूब लोकप्रियता अर्जित की।

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हिंदी के लेखक के भुक्कड़ पुनिया बने रहने का उन्होंने प्रत्याख्यान किया। जैसे कवि सम्मेलनों में कवि बुलाए जाते हैं, वैसे शरद भी बुलाए जाने लगे। शरद का व्यंग्य पाठ अच्छे से अच्छे कवि के काव्य पाठ पर भारी पड़ता...।" कांति कुमार जैन का यह कथन भी गौरतलब है, "शरद जोशी जो भी करते, शिद्दत से करते। यदि 'श' शरद जोशी का था तो वह शिद्दत का भी था। शरद जोशी ने इरफाना से प्रेम किया। शिद्दत से किया, व्यंग्य लिखे, शिद्दत से लिखे। अफसर से शत्रुता निभाई, शिद्दत से निभाई।" ‌ ‌ ‌‌‌ शरद जोशी ने कई फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों के संवाद भी लिखे। उनकी कलम से निकला धारावाहिक 'यह जो है ज़िंदगी' बेहद लोकप्रिय हुआ। 'दाने अनार के', 'प्याले में तूफान', 'सिहासन बत्तीसी', 'वाह जनाब', 'विक्रम बेताल'और 'देवी जी' सीरियल भी उनकी कलम की देन थे, जो अपने वक्त में खासे लोकप्रिय थे। शरद जोशी घोषित वामपंथी तो नहीं थे लेकिन प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता उनकी रगों में थी। उनके शब्द बखूबी इसकी गवाही देते हैं।

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