ब्रिटेन की मशहूर उपन्यासकार और दुनिया भर के नारीवादी आंदोलनों की एक महत्वपूर्ण प्रेरक वर्जीनिया वुल्फ को जन्में आज 136 साल हो गए। लगभग 77 साल पहले उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। लेकिन किताबों और विचारों से वास्ता रखने वालों के जगत में वे इन तमाम सालों में अलग-अलग रूपों में जीती रही हैं। कभी फसाना तो कभी हकीकत बनकर, कभी संघर्ष की ताकत तो कभी निराशा की डूबती हुई आवाज बनकर, लेकिन सबसे ज्यादा एक ऐसी लेखिका बनकर जिसने कथा साहित्य, जीवन और समानता के विचार को पुनर्भाषित किया। अलग-अलग पीढ़ियों के दुनिया भर के उनके लाखों प्रशंसक तो उन्हें श्रद्धांजलि दे ही रहे हैं, गूगल ने भी डूडल बनाकर उन्हें याद किया।
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वर्जीनिया वुल्फ ने अपनी लेखन शैली में 'चेतना के प्रवाह' के दृष्टिकोण को इस्तेमाल में लाने की कोशिश की, जिसके चलते उन्होंने अपने उपन्यास के किरदारों के जीवन की आंतरिक जटिलता को दर्शाया। वुल्फ की काल्पनिक कहानियों ने हमें दिखाया है कि किसी व्यक्ति का आंतरिक जीवन किसी कथानक की तरह ही जटिल और अजीब होता है।
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20वीं सदी की प्रमुख उपन्यासकारों में से एक वर्जीनिया का जन्म 1882 में लंदन में हुआ था। वुल्फ ने 1921 में एक डायरी प्रविष्टि में इस बात का जिक्र किया कि कैसे परिवार के साथ मनाई गई छुट्टियों की यादें और चारों तरफ के परिदृश्यों, खासकर गॉडरेवी लाइटहाउस ने बाद के सालों में उनकी काल्पनिक कहानियों पर अपना असर डाला।
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वर्जीनिया वुल्फ ने तकनीकी रूप से अपनी लेखन शैली में चेतना के प्रवाह को बखूबी स्पष्ट करते हुए लिखा था, "कॉर्नवल के प्रति मैं अविश्वसनीय रूप से इतनी रोमांटिक क्यों हूं? किसी एक के अतीत में, ऐसा लगता है कि मैं बच्चों को बगीचे में इधर-उधर भागते देख रही हूं..रात में समुद्र के लहरों की ध्वनि..जीवन के लगभग 40 वर्षो तक..सब कुछ उसी पर आधारित है, पूरी तरह से उसी के प्रभाव में हूं..बहुत कुछ है, जिसे कभी खुलकर स्पष्ट नहीं कर सकी।"
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बचपन के दिनों में वर्जीनिया वुल्फ ने घर पर ही अंग्रेजी क्लासिक और विक्टोरियन साहित्य की ज्यादातर पढ़ाई की। उन्होंने सन 1900 में पेशेवर रूप से लिखना शुरू किया और लंदन के साहित्यिक समाज और ब्लूम्सबरी समूह की महत्वपूर्ण सदस्य बन गईं। 'टू द लाइटहाउस' (1927) और 'मिसेज डलोवे' (1925) जैसे उपन्यासों ने उन्हें खूब लोकप्रियता दिलाई।
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समाचार पत्र 'द सन' के मुताबिक, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा में हालांकि थोड़ी गिरावट आई, लेकिन उनके कामों ने नए सिरे से प्रमुख मुद्दों - खासकर 1970 के दशक के नारीवादी आंदोलन को प्रेरित किया।
वर्जीनिया वुल्फ मानसिक बीमारी से भी जूझ रही थीं और 59 साल की उम्र में जीवन से निराश होकर उन्होंने आत्महत्या कर ली। 28 मार्च 1941 को ससेक्स में अपने घर के पास की एक नदी में कूदकर वुल्फ ने आत्महत्या की थी। उनका शव तीन हफ्ते तक नहीं मिला। उन्होंने अपने पति को संबोधित कर सुसाइड नोट में लिखा था, "प्रिय, मुझे लग रहा है कि मैं फिर से पागल हो रही हूं। मुझे लगता है कि हम फिर से उन भयावह पलों से नहीं गुजर सकते और मैं इस बार ठीक नहीं हो सकती।"
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