श्रीलंका के प्रधानमंत्री ने पिछले महीने कहा कि देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई है और उसके पास खाना और ईंधन खरीदने के लिए भी धन नहीं है। कर्ज चुका ना पाने के कारण पहले ही डिफॉल्ट हो चुके श्रीलंका के पास जरूरी चीजों के खरीदने के लिए भी धन नहीं बचा था जिसके चलते उसने पड़ोसियों, भारत और चीन के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी मदद मांगी है।
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प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने इसी साल मई में दफ्तर संभाला था। उन्होंने कहा कि देश रसातल की ओर जा रहा है और उसका पुनर्निर्माण पहाड़ काटने जैसा काम होगा। प्रदर्शनकारियों के बढ़ते दबाव के कारण शनिवार को उन्होंने व राष्ट्रपति राजपक्षे गोटाबाया ने इस्तीफे की पेशकश की थी।
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ऐसी खबरें बहुतायत में आ रही हैं कि देश में लोगों की हालत खराब है। वे कम खाना खा रहे हैं और जरूरी चीजों के लिए घंटों-घंटों लाइन में लगे रहने को मजबूर हैं।
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श्रीलंका पर 51 अरब डॉलर का कर्ज है और उसका ब्याज चुकाने के लिए भी धन नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था का इंजन माना जाने वाला पर्यटन उद्योग पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। 2019 में आतंकी हमलों का डर, उसके बाद कोविड महामारी और अब डूबी अर्थव्यवस्था के कारण पर्यटक श्रीलंका से मुंह मोड़ चुके हैं। देश की मुद्रा 80 प्रतिशत नीचे जा चुकी है जिसकी वजह से आयात मुश्किल हो गया है और महंगाई आसमान पर है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक खाने-पीने की चीजें 57 प्रतिशत महंगी हो चुकी हैं।
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इसी स्थिति का नतीजा है कि देश तेजी से दिवालिया होने की ओर बढ़ रहा है। राजनीतिक भ्रष्टाचार एक समस्या है जिसने ना सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था की जड़ें खोदीं बल्कि मदद मिलना भी मुश्किल बना दिया।
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वॉशिंगटन स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल डिवेलपमेंट में पॉलिसी फेलो अनीत मुखर्जी कहते हैं कि आईएमएफ या वर्ल्ड बैंक से कोई भी मदद कड़ी शर्तों पर मिलनी चाहिए। समाचार एजेंसी रॉयटर्स को उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि मदद के लिए मिले धन का दुरुपयोग नहीं होगा। वह इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि श्रीलंका दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण जहाजी रास्तों में से एक पर है और रणनीतिक रूप से इतने महत्वपूर्ण देश को बर्बाद नहीं होने दिया जा सकता।
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आमतौर पर श्रीलंका में खाने-पीने की कोई कमी नहीं होती लेकिन अब लोगों का भूखे सोना एक सच्चाई बन चुकी है। यूएन वर्ल्ड फूड प्रोग्राम का कहना है कि हर दस में नौ परिवार या तो एक वक्त का खाना छोड़ रहे हैं या गुजर करने के लिए जरूरतें कम कर रहे हैं। इसके अलावा कम से कम 30 लाख लोग तो सरकारी मदद पर ही गुजर कर रहे हैं।
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स्वास्थ्य सेवाएं भी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। जरूरी दवाओं और अन्य सामान के लिए डॉक्टर सोशल मीडिया पर मदद मांग रहे हैं। पासपोर्ट चाहने वाले श्रीलंकाइयों की संख्या बढ़ गई है क्योंकि बहुत से लोग काम की तलाश में विदेश जाना चाहते हैं। सरकारी कर्मचारियों को अगले तीन महीने के लिए हफ्ते में एक अतिरिक्त छुट्टी दी गई है ताकि वे अपना अनाज खुद उगा सकें।
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अर्थशास्त्रियों का कहना है कि संकट की कई घरेलू वजह हैं जैसे कि भ्रष्टाचार और धन का कुप्रबंधन। जनता का गुस्सा देश के राष्ट्रपति राजपक्षे और उनके भाई व पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे पर फूट रहा है। इसी गुस्से के कारण महिंदा राजपक्षे को पिछले महीने इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन यह हालत कुछ महीनों या हफ्तों में नहीं हुई है। पिछले कई साल से देश की हालत लगातार खराब हो रही थी।
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2019 में जब ईस्टर के मौके पर देश के कई चर्चों व होटलों में सिलसिलेवार बम धमाके हुए और 260 से ज्यादा लोग मारे गए तो पर्यटन उद्योग पर सबसे बड़ी चोट पड़ी। उस खराब होती स्थिति में सरकार की नीतियों ने और नुकसान पहुंचाया। जब कर्ज बढ़ रहा था और सरकार को अपनी आय बढ़ाने की जरूरत थी, तब राजपक्षे ने देश के इतिहास की सबसे बड़ी कर छूट का ऐलान किया.हाल ही में वे कर छूट वापस ली गईंलेकिन तब तक श्रीलंका की रेटिंग गिराई जा चुकी थी जिस कारण उसका अन्य देशों से कर्ज लेना नामुमकिन हो गया।
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अप्रैल 2021 में राजपक्षे ने अचानक रसायनिक खाद के आयात को प्रतिबंधित कर दिया। इसका मकसद ऑर्गैनिक खेती को बढ़ावा देना बताया गया। लेकिन किसानों के लिए यह ऐलान हैरतअंगेज और मुश्किल भरा था. धान की फसल कम हुई और कीमतें बढ़ गईं. विदेशी मुद्रा बचाने के लिए सरकार ने ऐश-ओ-आराम की चीजों के आयात पर रोक लगा दी. इस बीच यूक्रेन में युद्ध शुरू हो गया जिस कारण अनाज और तेल के दाम बढ़ गए. नतीजा यह हुआ कि मई में खाद्य मुद्रा स्फीति 60 प्रतिशत तक जा पहुंची।
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अब तक श्रीलंका सरकार मदद के लिए इधर-उधर हाथ-पांव मार रही है. उसे सबसे बड़ी मदद भारत से मिली है जिसने 4 अरब डॉलर का उधार दिया है. जून में भारत का एक प्रतिनिधिमंडल कोलंबो गया था और अधिक मदद उपलब्ध कराने पर दोनों पक्षों की बातचीत हुई। लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे चेतावनी देते हैं कि भारत ज्यादा समय तक श्रीलंका का काम नहीं चला पाएगा।
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हाल ही में कोलंबो टाइम्स अखबार में छपी एक खबर का शीर्षक स्थिति को बहुत साफ करता है। अखबार ने लिखा, “मुद्राकोष पर टिकी है श्रीलंका की आखरी उम्मीद।” सरकार मुद्रा कोष के साथ एक बचाव-राहत पैकेज पर मोलभाव कर रही है और विक्रमसिंघे ने उम्मीद जताई है कि गर्मियों के आखिर तक शुरुआती समझौता हो जाएगा।
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सरकार तेल संकट से निपटने के लिए रूस से तेल खरीदने पर विचार कर रही है। श्रीलंका ने चीन से भी ज्यादा मदद मांगी है। इसके अलावा अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने भी कुछ करोड़ डॉलर उपलब्ध कराए हैं। जून में संयुक्त राष्ट्र ने देश की मदद के लिए एक अंतरराष्ट्रीय अपील जारी की थी। लेकिन देश को अगले छह महीने का काम चलाने के लिए छह अरब डॉलर की जरूरत है, जिसके मिलने के आसार फिलहाल नजर नहीं आ रहे।
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