भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रुश्दी जैसे लोगों के खिलाफ आतंकी कार्रवाई और घृणास्पद बयानों का एकमात्र मकसद लोगों को डराना और आलोचना करने वाले का मुंह बंद कराना है। ऐसे लोग दुनिया को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी पर भरोसा करने वालों की हत्या भी हो सकती है और इस तरह से लेखकों और सांस्कृतिक संगठनों पर भी दबाव बनाने की कोशिश करते हैं कि वो ऐसा ना करें, अन्यथा उन्हें भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
मई महीने में फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन सप्ताह के मौके पर सलमान रुश्दी ने कहा था, "अभिव्यक्ति की आजादी वह आजादी है जिस पर तमाम दूसरी तरह की स्वतंत्रताएं निर्भर होती हैं।”
इसे सौभाग्य ही समझा जाये कि अभिव्यक्ति पर इस तरह के शुरुआती हमलों और अपराधों के बाद इसमें कमी आ जाती है. मसलन, साल 2015 में फ्रांसीसी व्यंग्य समाचार पत्र शार्ली एब्दो के दफ्तर पर हुए हमले के बाद जैसा हुआ था।
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आलोचक सलमान रुश्दी की विवादास्पद किताब ‘द सैटेनिक वर्सेस' 1988 में छपी थी, लेकिन इतने सालों बाद लेखक को मारने की कोशिश करके हमलावर अपनी मानसिकता का परिचय दे रहे हैं। यह अपराध के पागलपन को उजागर करता है।
दूसरी ओर, सलमान रुश्दी पर चाकू से हुए हमले की घटना ने तीन दशक पुरानी इस किताब को फिर से चर्चा में ला दिया है। रुश्दी की हत्या की कोशिश के बाद से ‘द सैटेनिक वर्सेस' की जमकर बिक्री हो रही है और ऑनलाइन कंपनी अमेजन की बिक्री सूची में यह शीर्ष पर है।
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डीडब्ल्यू को दिए एक इंटरव्यू में पीईएन सेंटर जर्मनी की वाइस प्रेसीडेंट कॉर्नेलिया जेत्शे कहती हैं, "रुश्दी के लिये लड़ने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उन्हें पढ़ा जाए और लेखक में छिपे राजनीतिक व्यक्तित्व को उजागर किया जाए।”
‘द सैटेनिक वर्सेस' दो भारतीय अभिनेताओं की कहानी है जो एक विमान दुर्घटना में बच जाते हैं. इनमें से एक फरिश्ता या देवदूत बन जाता है जबकि दूसरा एक शैतान जैसा दिखता है। उपन्यास के शीर्षक का संदर्भ उन दो शब्दों से है जिन्हें शैतान पैगंबर मोहम्मद के लिए धीमी आवाज में इस्तेमाल करता है. कुरान के इतिहास को जाने बिना रुश्दी के संकेतों को समझना आसान नहीं है।
किताब के प्रकाशन के छह महीने बाद, फरवरी 1989 में ईरान के क्रांतिकारी नेता आयतुल्ला खमेनेई ने रुश्दी के खिलाफ एक फतवा जारी किया और सभी मुसलमानों से अपील की कि ईशनिंदा के चलते उनकी हत्या कर दी जाए।
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सलमान रश्दी को मारने के एवज में इनाम की घोषणा भी की गई थी जो सरकार से जुड़ी संस्थाओं, निजी लोगों और सरकारी मीडिया के जरिए बढ़ते-बढ़ते चालीस लाख डॉलर तक हो गई थी।
उस वक्त किताब के कुछ अनुवादक भी रुश्दी के आलोचकों की हिट लिस्ट में आ गए थे. जापानी भाषा के अनुवादक और इस्लामी स्कॉलर हितोशी इगाराशी की 1991 में किसी अज्ञात व्यक्ति ने हत्या कर दी। जर्मन भाषा में इस किताब का अनुवाद करने वाले व्यक्ति का नाम अभी भी गुप्त रखा जाता है। रुश्दी खुद कई साल तक निजी सुरक्षा में अज्ञात जगहों पर रहे।
कॉर्नेलिया जेत्शे कहती हैं, "फतवा ने उनके जीवन को जैसे दो भागों में बांट दिया- एक किताब लिखने से पहले और उसके बाद क्योंकि हत्या के प्रयास की आशंकाएं बनी हुई थीं। हालांकि किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि इतने दिनों के बाद भी रुश्दी लोगों के निशाने पर हैं। पिछले 20 वर्ष से वो आमतौर पर स्वतंत्र और स्वच्छंद जीवन व्यतीत कर रहे थे। यह उम्मीद करना मुश्किल है कि एक बार फिर वो इसी तरह से रह पाएंगे।”
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सलमान रुश्दी के बेटे जफर का भी कहना है कि उनके पिता को जो जख्म मिले हैं वो उनकी जिंदगी को बदल देने वाले हैं। पिछले दिनों उन्होंने ट्वीट करके कहा था, "लेकिन उनका उत्साही जीवन और सेंस ऑफ ह्यूमर अभी भी वैसा ही है।”
जेत्शे रुश्दी को तीस साल से भी ज्यादा समय से जानती हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहती हैं, "भाषा के मामले में सलमान रुश्दी सबसे ज्यादा शक्तिशाली लेखकों में से एक हैं। मैं उनकी उदासीनता, बुद्धिमानी और खुद का विरोध करने की प्रवृत्ति की प्रशंसक हूं।”
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पत्रकार और लेखक गुंटर वॉलराफ रुश्दी को कई दशक से जानते हैं. 1993 में उन्होंने रुश्दी को कोलोन स्थित अपने घर पर बुलाया था. कुछ साल पहले डेनमार्क में उनकी रुश्दी से मुलाकात हुई थी।
वॉलराफ कहते हैं, "वो हमेशा बेपरवाह दिखते थे लेकिन इस माहौल ने उन्हें काफी सतर्क कर दिया था।”
रुश्दी कई साल तक न्यूयॉर्क में रहे जहां वो काफी आजादी से इधर-उधर जाते थे और खुद को सुरक्षित महसूस करते थे। इस बात को उन्होंने खुद स्वीकार किया था. वॉलराफ यह भरोसा नही कर पाते हैं कि इतने दिनों के बाद कोई व्यक्ति उनकी जान लेने की कोशिश कैसे कर सकता है। वो कहते हैं, "महत्वपूर्ण बात यह है कि हत्या की कोशिश करने वाला यह अनुरोध कर रहा है कि वो दोषी नहीं है।”
जैसा कि इस तरह के हर अपराधी को लगता है कि वो जो कर रहा है वो ईश्वर की इच्छा से कर रहा है और इसके लिए वो दोषी नहीं है। वॉलराफ स्वीकर करते हैं, "कि यह एक व्यापक लोकतांत्रिक प्रतिवाद है जो कि आजादी के पक्ष में खड़ा है और इस तरह की कार्रवाइयों से उसे मजबूती मिलती है।”
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कॉर्नेलिया जेत्शे कहती हैं कि एकजुटता के संदेशों को कम करके नहीं आंकना चाहिए, "जो बात पीड़ित लेखकों को मनोवैज्ञानिक रूप से मदद करती है वो ये ज्ञान है कि उन्हें भुलाया नहीं गया है।”
पीईएन जर्मनी ने हाल ही में घोषणा की है कि वो रुश्दी को अपनी संस्था का सम्मानित सदस्य बनाएगी। अंतरराष्ट्रीय लेखक संघ भी कुछ ऐसी व्यवस्था कर रहा है जिससे ‘द सैटेनिक वर्सेस' को दुनिया भर में डिजिटल रूप में पढ़ा जा सके, उसी तरह जैसे 1989 में फतवा जारी होने के बाद पूरी दुनिया में पढ़ा गया था।
गुंटर वॉलराफ कहते हैं, "रुश्दी को साहित्य का नोबेल मिलना बाकी है। दरअसल, ये तो उन्हें तभी मिल जाना चाहिए था जब खमेनेई ने उनके खिलाफ फतवा जारी किया था लेकिन स्वीडिश एकेडमी जैसी कई संस्थाएं राजनीतिक कारणों और ईरान के साथ आर्थिक हितों को देखते हुए इसकी सिफारिश नहीं कर सकीं।”
वॉलराफ जोर देकर कहते हैं कि अब समय आ गया है कि यह पुरस्कार देकर एक संदेश दिया जाए. वॉलराफ अपनी इस सूची में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए जूलियन असांज और आलेक्सी नावल्नी का नाम भी जोड़ देते हैं।
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