अफगानिस्तान के विभिन्न हिस्सों से अपना घरबार छोड़ कर आए सिख और हिंदू समुदायों के लोग, काबुल के पास करते परवान में दशमेष पिता गुरुद्वारा में, हफ्तों से पनाह लेकर रहने को मजबूर हैं। अफगानिस्तान में पिछले महीने सिविल सरकार के पतन और युद्ध और हिंसा से जूझते देश में तालिबानियों के हाथ सत्ता आने के बाद से देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों की जिंदगियां भी उलट-पलट गई हैं।
अफगानिस्तान में इस समय करीब 250 सिख और हिंदू रहते हैं। काबुल हवाईअड्डे के पास आत्मघाती बम धमाके की वजह से 140 के करीब लोग हवाईअड्डे में दाखिल ही नहीं हो पाए, जहां से उन्हें भारतीय सेना की निकासी उड़ान लेनी थी। तालिबानी हुकूमत में फिलहाल एयरपोर्ट से उड़ानें बंद हैं। ऐसे में इन अल्पसंख्यकों को चरमपंथी इस्लामी हुकूमत में अपना भविष्य डांवाडोल दिखता है।
काबुल एयरपोर्ट से अमेरिकी विमान की आखिरी उड़ान से पहले भारत ने काबुल से करीब 600 लोगों को निकाल लिया था। इसमें 67 अफगानी सिख और हिंदू थे, निकाले गए लोगों में सांसद अनारकली कौर होनारयार और नरेंदर सिंह खालसा भी थे।
"अफगानी हिंदू और सिख हजारों साल का इतिहास” किताब के लेखक इंदरजीत सिंह बताते हैं कि अफगानिस्तान की सिख और हिंदू आबादी की जड़ें सदियों पुरानी है, उस समय ये देश भी नहीं बना था। उन्होंने बताया, "आज के अफगानिस्तान में सिखों का इतिहास, इस इलाके में सिख धर्म के संस्थापक गुरू नानक देव के दौर में तलाशा जा सकता है। 16वीं सदी में सिख धर्म का भी उदय हुआ था। और हिंदुओं की जड़ें तो और भी पीछे जाती हैं।”
हुकूमत किसी की भी हो, अफगानिस्तान पर काबिज सत्ताएं इन अल्पसंख्यकों को "विदेशी” की तरह ही देखती आई हैं। अपने पूर्वजों के देश में उनकी स्थिति दोयम दर्जे की बना दी गई। जर्मनी में रहने वाली अफगान सिख मानवविज्ञानी पूजा कौर मट्टा कहती हैं, "सिख और हिंदू वहीं के बाशिंदे हैं, बाहरी नहीं।” दूसरे बहुत से सिखों और हिंदुओं की तरह, पूजा के माता पिता की जड़ें भी गजनी और काबुल में थीं। वे 1990 के दशक के मध्य में अफगानिस्तान में तालिबानी लड़ाकों के सत्ता पर कब्जे के बाद यूरोप जाकर बस गए थे। 1992 में उनकी संख्या 60,000 थी। आज 300 से भी कम है।
वर्षों से चले आते सिलसिलेवार और संस्थागत भेदभाव के बावजूद, अल्पसंख्यक इस उम्मीद में थे कि नागरिक सरकार चली तो कुछ समान अधिकार भी हासिल हो पाएंगे। लेकिन 2018 और 2020 में दो बड़े भारी हमलों के बाद ये उम्मीद भी चूरचूर हो गई। अफगानी सांसद नरेन्दर खालसा के पिता पहले आत्मघाती बम हमले में मारे गए थे और कम से कम 25 सिख श्रद्धालुओं की 2020 में गुरद्वारा पर हुए हमले में मौत हो गई थी।
"इस्लामिक स्टेट” गुट से जुड़े एक इलाकाई गिरोह, "इस्लामिक स्टेट खोरासान” (आईएस-के) ने दोनों हमलों की जिम्मेदारी ली थी। ये गिरोह हाल में काबुल के हामिद करजई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हुए आत्मघाती बम धमाके के लिए भी जिम्मेदार था जिसमें कम से कम 182 लोगों की जानें चली गई थी। नयी तालिबानी हुकूमत के तहत, सिखों और हिंदुओं को ऐसे दौर में धकेल दिए जाने का डर है जहां उन्हें गैर-मुस्लिम के तौर पर अपनी निशानदेही के लिए पीले रंग के टैग लगाए रखने को मजबूर किया जाएगा।
पूजा कौर कहती हैं, "सिखों और हिंदुओं को उनके मजहबों की वजह से निशाना बनाया जाता है। उत्पीड़न के डर के बच्चों की एक पीढ़ी स्कूल का मुंह नहीं देख पाई। अपने प्रियजनों की मौत पर उन्हें दफनाने भी नहीं दिया जाता था और पत्थर बरसाए जाते थे।” घर बेशक स्थायित्व का बोध कराता है लेकिन ये समुदाय बहुत पहले इस बोध को गंवा चुके हैं।
भारत में अफगानिस्तान से आने वाले सिखों और हिंदुओं के प्रति स्वागत का नजरिया दिखता है लेकिन शरण मांगने वालों और शरणार्थियों के प्रति सरकार की हिचकिचाहट भरी और अस्थिर सी नीति ने सैकड़ों लोगों को अधर में लटका दिया है। शरण मांगनेवालों के प्रति सरकार की नीति अलग अलग है. ये उस देश के साथ आपसी संबंधों पर आधारित है जहां से शरणार्थी आ रहे हैं या घरेलू राजनीति को ध्यान में रखते हुए तय की जाती है।
पिछले महीने, भारत सरकार ने कहा था कि हिंदुओं और सिखों के अलावा वो सभी धर्मों के अफगानियों को शरण देगा। लेकिन सरकार जो कहती है वो धरातल पर शायद नहीं नजर आता है। सरकार की शरणार्थी नीति के अभाव में, लोगों के वीजा मंजूर कैसे किए जा रहे हैं, इसमें कम पारदर्शिता रह गई है। रिफ्यूजी स्टेटस में स्पष्टता की कमी के अलावा, भारत में जिंदगी इतनी आसान भी नहीं। अधिकांश अफगानी बिरादरी दिल्ली में रहती है। लेकिन ये एक महंगा शहर है। बहुत से अफगानियों के पास वर्क परमिट नहीं है. दान-दया पर कब तक टिके रहा जा सकता है।
अफगानिस्तान से भागने वाले सिखों और हिंदुओं को एक नयी जिंदगी शुरू करने की उम्मीद है, एक बेहतर और स्थिर जिंदगी और उन्हें ये भी उम्मीद है कि वे अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बना पाएंगे। 29 साल की पूजा कौर मट्टा उन बच्चों में से थी जिसके माता-पिता ने अफगानिस्तान छोड़ने का फैसला किया था और उसके लिए अवसरों की एक नयी दुनिया खोल दी थी। आज वो अपने समुदाय के बारे में संवादों को प्रोत्साहित करना चाहती हैं।
लेकिन बड़ी संख्या में अफगानिस्तान छोड़कर जाने वाले सिखों और हिंदुओं से अलग कुछ ऐसे परिवार भी हैं जिन्होंने देश में ही रहने का फैसला किया है। वे अपने गुरुद्वारों और मंदिरों के निगहबान की तरह वहीं रहना चाहते हैं। उनके लिए वही उनकी बचीखुची विरासत है। पूजा कौर मट्टा कहती हैं, "हमारा कोई घर नहीं है। अफगानिस्तान में लोग हमें इंडियन बुलाते हैं, भारत में हम अफगानी कहलाते हैं।”
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"हम लोग सिर्फ एक सुरक्षित ठिकाना चाहते हैं जहां हम अपनी जिंदगी बेखौफ होकर गुजार सकें। हमें ऐसी जगह चाहिए जहां हम पर जुल्म न हों, हमें अपना धर्म मानने की छूट हो, अपनी रिवायतें, रस्में निभा सकें, नौकरी कर सकें और अपने बच्चों को पालपोस कर बड़ा कर सकें।”
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