जब ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने अपने देश की यूरोपीय संघ की सदस्यता जारी रखने के प्रश्न पर जनमतसंग्रह कराया था, तब उन्हें वह कराने की जरूरत नहीं थी। उन्होंने वह कदम संवैधानिक आवश्यकता के तहत नहीं, बल्कि राजनीतिक दबाव में उठाया था। उन्होंने एक ऐसे प्रश्न को 'हां' या 'ना' के सीधे से वोट से जोड़ दिया जो बिल्कुल सरल नहीं था और ऐसा करके उन्होंने अपने देश को एक ऐसी राजनीतिक उथल-पुथल में डाल दिया, जो अभी तक जारी है।
हाल में जब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक बड़े संवैधानिक सुधार पर रूस की जनता की राय लेने के लिए जनमतसंग्रह की घोषणा की, तब उन्हें भी ऐसा करने की जरूरत नहीं थी। पुतिन ने भी संवैधानिक आवश्यकता के कारण नहीं, बल्कि राजनीतिक दबाव महसूस करते हुए ये कदम उठाया। उन्होंने 'हां' या 'ना' के एक सरल सवाल को एक अत्यंत पेचीदा मुद्दे के साथ जोड़ दिया। संवैधानिक सवाल हमेशा मुख्य रूप से सत्ता के सवाल होते हैं और ये उन चीजों को छूते हैं जो एक समाज को अंदर से जोड़ते हैं।
Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST
लोगों की राय लेने से पहले ही, पुतिन को सत्ता के सवाल का जवाब किसी फिल्मी दृश्य की तरह मिल चुका था। कई महीनों से मॉस्को में राजनीतिक सलाहकार और जानकार यह सोच-सोच कर परेशान हो रहे थे कि पुतिन संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति कार्यकाल की सीमा समाप्त होने के बाद भी सत्ता में कैसे बने रहेंगे? किसी नई नीति के जरिये? एक नए एकीकृत देश में? या फिर एक नए पद के जरिए?
इधर से उधर आलेख भेज गए, परिदृश्यों पर बहस हुई। फिर पुतिन की यूनाइटेड रशिया पार्टी की सांसद वैलेंटीना तेरेश्कोवा के राजनीतिक प्रस्ताव ने बाजी मार ली। तेरेश्कोवा को अंतरिक्ष में जाने वाली पहली महिला के रूप में जाना जाता है और वह पूर्ववर्ती सोवियत संघ की एक हीरो हैं। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि संविधान में एक संशोधन कर दिया जाए जिससे पुतिन को बतौर राष्ट्रपति दो और कार्यकाल मिल जाएं। अगर पुतिन खुद ऐसा चाहते हैं तो।
Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST
हाल में कई बार पुतिन ने सार्वजनिक रूप से इस विचार का जिक्र किया है और यह कहा है कि कुछ परिस्थितियों में वह फिर से राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के बारे में सोच सकते हैं। लगता है अब उन परिस्थितियों ने जन्म ले ही लिया है। 98 प्रतिशत मतों की गिनती हो चुकी है और लगभग 78 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने राष्ट्रपति से कहा है कि वह राष्ट्रपति बने रहें।
ये लगभग उन नतीजों के जैसा ही है जिनकी भविष्यवाणी क्रेमलिन के ज्योतिषियों ने हफ्तों पहले कर दी थी। संवैधानिक सुधार का असली लक्ष्य यही था कि जनमतसंग्रह से पुतिन को सत्ता में रखने की अपील निकलवाई जाए। वैधता तैयार की जाए, जबकि असलियत में वहां एक नैतिक शून्यता है।
Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST
पुतिन ने रूस के नागरिकों से संवैधानिक संशोधन को पारित करने के बदले में "स्थिरता और सुरक्षा" का वादा किया। वह दोनों ही वादे पूरे कर पाएंगे और इस बात पर उनके राजनीतिक विरोधियों को भी कोई संशय नहीं है। लेकिन यह किस कीमत पर होगा? कम से कम इतना तो अनुमान लगाना संभव ही है कि जब संविधान में किए गए दूसरे संशोधनों का हिसाब लगाया जाएगा तो कुल मिला कर तस्वीर कैसी होगी।
इन सबको एक साथ देखें तो पश्चिम और उसकी उदारपंथी व्यवस्था की तरफ से उसे और नकारा जाएगा। भविष्य में, अंतरराष्ट्रीय कानूनों पर रूसी कानून को वरीयता देना संविधान में स्थापित किया जाएगा और इसके साथ भगवान में विश्वास और जीने के हर उस तरीके का बहिष्कार होगा, जो परिवार की पारंपरिक अवधारणा से मेल ना खाता हो।
Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST
हो सकता है कि रूस के नए संविधान की भावना को दूसरे लोग भी महसूस करें। इस जनमतसंग्रह में मिले समर्थन के आधार पर, क्रेमलिन अपने शासन के मॉडल को आगे बढ़ाने के लिए और भी प्रोत्साहित होगा। पूरे यूरोप में, राजनीतिक विचारधारा के बाएं और दाएं, दोनों ध्रुवों के पॉपुलिस्ट उम्मीद कर सकते हैं कि रूस तानाशाही को पहले से भी ज्यादा भारी प्रोत्साहन देगा। हालांकि, वे देश जिन्होंने 30 साल पहले सोवियत संघ से आजादी हासिल की, इस संवैधानिक सुधार को लेकर ज्यादा खुश नहीं हैं। आखिर, इस सुधार के पीछे उन्हें एक तथाकथित "ऐतिहासिक सच" दिखता है. जो इतिहास की एक पुरानी, सोवियत-साम्राज्य संबंधी अवधारणा पर आधारित है।
Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST
मॉस्को में तनाव, कोरोना और अर्थव्यवस्था
इस संशोधित संविधान के जरिए रूस अपने मंसूबे स्पष्ट कर रहा है। नए संविधान की अवधारणाओं में वही दिखता है जो 20 साल से रूसी राजनीति की पहचान रही हैं। पुतिन अपनी शक्ति को और मजबूत करते जा रहे हैं और उस निरंकुश व्यवस्था को मजबूत करते जा रहे हैं जिसे सिर्फ उनके लिए बनाया गया है। अभी तक जो स्थिति है, इस तरह की व्यवस्था को खड़ा करने वाला और इससे फायदा उठाने वाला हर व्यक्ति आश्वस्त महसूस करेगा। फिर भी, इन दिनों मॉस्को में भारी तनाव दिखता है।
इस जनमतसंग्रह का परिणाम वही हो जो क्रेमलिन चाहता है और इस बात को सुनिश्चित करने में क्रेमलिन ने कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। लेकिन तब क्या होगा अगर हर तरह की संस्थागत विसंगतियों के साथ इस प्रभाव का असर बिलकुल उल्टा पड़े? अगर राष्ट्रपति को समर्थन नहीं मिला तो? अगर, इसकी जगह, जनमत-संग्रह के परिणाम को गंभीरता से नहीं लिया गया तो? अगर इसी वजह से राजनीतिक विरोध होने लगा तो? पुतिन की लोकप्रियता की रेटिंग महीनों से गिर रही है। रूस की अर्थव्यवस्था मंदी से लड़ रही है। कोरोना वायरस कंपनियों को भारी नुकसान पहुंचा रहा है।
Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन को जब अहसास हुआ कि ब्रेक्जिट जनमतसंग्रह पर उन्होंने जो जुआ खेला था और उसमें वह हार गए हैं, तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। वह कैमरों के आगे खड़े हुए, इस्तीफे की घोषणा की, हार मानी, मुड़े और प्रसन्नतापूर्वक गुनगुनाते हुए वहां से चले गए।
इसके उलट, अगर रूस के जनमतसंग्रह ने अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल नहीं किया, तो व्लादिमीर पुतिन राजनीतिक जीवन से सन्यास लेने भर में संतोष करने वाले नहीं हैं रूस की राजनीतिक व्यवस्था में यह विकल्प है ही नहीं। इसकी जगह, नए संविधान की बदौलत, पुतिन अब 16 और सालों तक राज कर सकते हैं। पूर्वानुमान है कि वो यही करेंगे- चाहे इसकी राजनीतिक कीमत और परिणाम कुछ भी क्यों न हो।
Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST
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Published: 03 Jul 2020, 12:08 AM IST