मैं कभी यह तय नहीं कर पाया कि पाकिस्तान ने अमेरिका से निकाह किया था या फिर अमेरिका ने पाकिस्तान को रखैल रखा हुआ था। यह सच है कि अमेरिका एक अमीर यानी धनी और ताकतवर देश है और पाकिस्तान एक गरीब लेकिन सुंदर युवती। यह भी सच है कि अमेरिका को पाकिस्तान की ज़रूरत है, इसीलिए वह बार-बार पाकिस्तान के लिए अपने प्रेम का इजहार करता रहा है। और दूसरी तरफ पाकिस्तान, दुनिया से बेपरवाह, अमेरिका को ही पनी जिंदगी का मिशन समझे बैठा था। कोई माने या न माने, लेकिन सत्तर साल तो इसी तरह बीत गए। इस दौरान अमेरिका कई बार नाराज हुआ, लेकिन पाकिस्तान का रुख यही रहा कि वह कमजोर है, गरीब है, पड़ोस में भारत जैसा दुश्मन मौजूद है, ऐसे में उसे अमेरिका जैसे यार की जरूरत है। इसलिए, भारत से बचने के लिए, पाकिस्तान ने सत्तर साल तक खुद को अमेरिका की कैद में रखा।
लेकिन, रंग बदलता है आसमां कैसे कैसे.... कोई सोच सकता था, कि इतने सालों का रिशता और नजदीकियां इस तरह टूट जाएंगी। ये सिर्फ तलाक नहीं है, बल्कि संबंध विच्धेद की घोषणा है। अमेरिका तो पूर्व में भी पाकिस्तान के साथ अपनी दौलत और ताकत के बूते बदतमीजी या उसकी बेइज्जती करता रहा है। लेकिन यह पहली बार है कि पाकिस्तान ने तुर्की-ब-तुर्की जवाब देना शुरू कर दिये हैं। खुल्लम खुल्ला बगावत का ऐलान कर दिया है। अमेरिका के दुश्मनों से हाथ मिलाने का ऐलान किया है। यह भी तय करना मुश्किल हो गया है अमेरिका ने पाकिस्तान को छोड़ा है, या पाकिस्तान ने नए दोस्त मिल जाने के बाद अमेरिका की ही छुट्टी कर दी है।
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9/11 यानी अमेरिका पर सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद जब पाकिस्तान ने अमेरिका का साथ देने की घोषणा की थी, तो शर्त सिर्फ एक ही थी कि भारत को अफगानिस्तान के मामलों से दूर रखा जाएगा। 9/11 के शुरुआती वर्षों में इस समझौते का पालन भी हुआ। लेकिन,फिर पाकिस्तान ने ग्वादर पोर्ट अमेरिकी फर्म को देने का समझौता खारिज करके, सामरिक महत्व के इस बंदरगाह को चीन के हवाले कर दिया। अमेरिका के खिलाफ पाकिस्तान का यह पहला खुला विद्रोह था। और यही विद्रोह, दोनों के बीच पहले तलाक और फिर संबंध विच्छेद का कारण भी बना।
यह माना जाता है कि रूस को अफगानिस्तान के बंजर जमीन से कोई प्रेम नहीं था। यह भी ध्यान में रखना होगा कि अफगानिस्तान में इराक और लीबिया की तरह तेल के भंडार नहीं हैं, जिसके लिए रूस और अमेरिका वहां अपनी सेनाएं भेजें। यह गर्म पानी तक पहुंचने की लड़ाई है। रूस सिर्फ इसलिए अफगानिस्तान में आया था, क्योंकि वह वहां से पाकिस्तान आना चाहता था। इसी सोच और नीति के तहत, पाकिस्तान ने रूस के खिलाफ अमेरिकी युद्ध लड़ा था, जिससे गर्म पानी तक रूस की पहुंच को रोका जा सके। आखिर थक-र कर रूस अफगानिस्तान से वापस चला गया, जिसे अब भी पाकिस्तान में पाकिस्तान की जीत माना जाता है।
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लेकिन आज वह पाकिस्तान, अमेरिका से तलाक और रिश्ता खत्म होने के बाद गर्म पानी का ग्वादर बंदरगाह, रूस और चीन को बेचने को तैयार हो गया है। अमेरिका को यह एकदम पसंद नहीं आया। बाकी तो सब बहाने हैं। चीन के पास भी गर्म पानी का कोई बंदरगाह नहीं है। वैसे भी चीन को दुनिया भर में अपना माल भेजने के लिए सात दिन लगते हैं। ऐसे में, अगर उसे पाकिस्तान का ग्वादर बंदरगाह से एक रास्ता मिल जाए, तो उसे अपना सामान भेजने में तीन दिन का वक्त ही लगेगा। इतना ही नहीं, गर्मियों के मौसम में भी उसका कारोबार खूब चलेगा।
पाकिस्तान समझता है कि अमेरिका पाकिस्तान से बहुत दूर बैठा है। पाकिस्तान में उसकी रूचि अस्थायी रहती है। इस दौरान अमेरिका की भारत से नजदीकियां भी बहुत बढ़ी हैं। ऐसे में पाकिस्तान को अमेरिका पर भरोसा नहीं रहा है। इसीलिए उसने चीन के साथ जाने का फैसला कर लिया और ग्वादर बंदरगाह चीन को दे दिया गया। पाकिस्तान ने सी पैक समझौते के तहत चीन को अपना सामान दुनिया भर में भेजने के लिए ग्वादर बंदरगाह से रास्ता दे दिया है। अब पाकिस्तान में हर जगह चीन नजर आ रहा है। पाकिस्तान के स्कूलों-कॉलेजों में चीनी भाषा सिखाने और पढ़ाने वाले हजारों शिक्षण केंद्र खोल दिए गए हैं। सरकारी अफसरों को चीनी भाषा सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। पाकिस्तान में चीनियों की आबाद भी बढ़ती हुई नजर आ रही है। अब तो शापिंग स्टोर में चीनी खरीदारी करते हुए भी नजर आने लगे हैं। बुद्धिजीवी लोगों को समझा रहे हैं कि चूंकि भारत और चीन की दुश्मनी है और वह सीमा विवाद में उलझे हैं, इसलिए अमेरिका के मुकाबले पाकिस्तान के लिए चीन बेहतर दोस्त हो सकता है। चीन पर ज्यादा भरोसा किया जा सकता है
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने जिस अफगान नीति की घोषणा की, वह पाकिस्तान के लिए कोई सरप्राइज़ (आश्चर्यजनक) नहीं थी। इस सबका पाकिस्तान को बहुत पहले से आभास था। अगर अमेरिका ने इस बार पाकिस्तान छोड़ने की तैयारी कर ली थी, तो पाकिस्तान ने भी अमेरिका का साथ छोड़ने की मुकम्मल तैयारी कर रखी थी। दोनों ही पक्ष तैयार थे। यही कारण है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की अफगानिस्तान घोषणा के पहले तीन दिन तक पाकिस्तान ने कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। इतना ही नहीं, इस पर पहले चीन ने प्रतिक्रिया जतायी और पाकिस्तान के पक्ष में एक उसे बचाते हुए एक बड़ा बयान जारी किया। इस बयान से ही चीन की पाकिस्तान में दिलचस्पी का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके बाद रूस के विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान के पक्ष में बयान जारी किया। इन दोनों सुपर पावर के बयान आने के बाद ही, पाकिस्तान ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। यह पहले से तय था कि रूस और चीन पाकिस्तान के पक्ष में एक स्पष्ट रुख का ऐलान करेंगे, उसके बाद ही पाकिस्तान, अमेरिका से अलग होने की घोषणा करेगा।
पाकिस्तानी संसद के दोनों सदनों ने अमेरिका के खिलाफ सर्वसम्मति से संयुक्त प्रस्ताव पारित कर दिया। ये प्रस्ताव यूं ही पारित नहीं हुए। इन प्रस्तावों से पहले पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठकें हुई थीं। इस समिति में सेना के सभी अंगों, नौसेना,वायु सेना और थलसेना के प्रमुख, आईएसआई प्रमुख, सरकार की तरफ से प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री शामिल होते हैं। यह पाकिस्तान की सबसे महत्वपूर्ण समिति है, जिसमें सेना और सरकार एक साथ बैठते हैं। इस समिति की दो अहम बड़ी बैठकें हुयीं और ये काफी लंबी बैठकें थीं। इन्हीं बैठकों में ही तय हुआ कि अब अमेरिका के प्रति रुख में कड़ाई बरती जाए
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सोचने वाली बात यह भी है कि पाकिस्तान संसद के दोनों सदनों में वह पार्टियां मौजूद हैं जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव लड़ती हैं, फिर भी दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से अमेरिका के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। और अमेरिका के साथ हर किस्म के सहयोग को खत्म करने का फैसला लिया। यहां तक कि अमेरिका के उप-विदेश मंत्री का पाकिस्तान दौरा भी रद्द कर दिया गया। इस तरह पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ अपने सभी संबंधों को खत्म करने का ऐलान कर दिया और कह दिया, चलो, जाओ, छुट्टी करो!
पाकिस्तान समझता है कि अमेरिका धीरे धीरे अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव बढ़ा रहा है। और इस बात की भी मजबूत संभावना है कि भारतीय सेना अफगानिस्तान में आ जाएगी। इस तरह, भारतीय सेना, पाकिस्तान के दोनों तरफ आ जाएगी। पाकिस्तान के सैन्य बुद्धिजीवी इसे समस्या नहीं मानते हैं। उनकी सोच है कि अगर नाटो की सेना अफगानिस्तान में नाकाम रही हैं, रूस की सेनाएं अफगानिस्तान में नाकाम रही हैं, अमेरिकी सेना विफल हो गई है, तो भारतीय सेना अफगानिस्तान में कैसे कामयाब हो सकती है? आने दो भारत को, कोई फर्क नहीं पड़ता। दूसरी तरफ, पाकिस्तान ने चीन और रूस को ग्वादर बंदरगाह देकर अपने साथ मिला लिया है। जल्द ही पाकिस्तान के विदेश मंत्री रूस, चीन और ईरान के दौरे पर जा रहे हैं। इस दौरे में ईरान को शामिल करने का यही अर्थ है कि पाकिस्तान सिर्फ सऊदी अरब ही नहीं बल्कि, पूरी अरब एकता का साथ छोड़ रहा है। वैसे भी अगर पाकिस्तान को रूस और चीन के साथ जाना है तो सऊदी अरब और अरब संघ का साथ मिलना वैसे भी मुश्किल है।
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