हाल के समय में मध्य-पूर्व में आए बदलावों से लोकतंत्र और मानवाधिकारों की क्षति हुई है। सऊदी अरब में महिलाओं को ड्राईव करने का अधिकार मिलने से बाहरी तौर पर समाज-सुधार की एक आकर्षक तस्वीर बनती है, लेकिन उसके पीछे छिपी कड़वी हकीकत विश्व को तब नजर आई है जब सऊदी नीतियों के आलोचक स्तंभकार जमाल खगोशी की इस्तांबुल स्थित सऊदी दूतावास में बहुत क्रूर ढंग से हत्या कर दी गई।
इस आलोचक की हत्या के लिए सऊदी अरब की सत्ता के उच्चतम स्तर पर शक होना स्वाभाविक था, क्योंकि इतना बड़ा निर्णय तो उच्चतम स्तर पर ही लिया जा सकता था। कुछ अन्य प्रमाण भी इस ओर संकेत कर रहे हैं। इस कारण सऊदी अरब के अति शक्तिशाली क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान की सऊदी समाज में कट्टरपंथ कम कर सुधार लाने वाली छवि बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई है।
सलमान ने मानवाधिकारों की सबसे अधिक क्षति तो यमन विरोधी युद्ध और भयंकर बमबारी से की है। सत्ता के शीर्ष पर आते ही उन्होंने यमन पर ऐसा हमला कर दिया जिसका कोई औचित्य ही नहीं था। संयुक्त राज्य अमेरिका से अरबों डॉलर से बहुत विध्वंसक हथियार खरीदे गए और इनसे यमन में भयंकर बमबारी कर उसे तबाह कर दिया गया। वहां हजारों निर्दोष मारे गए। स्कूली बच्चों को ले जा रही बस तक को बमबारी का निशाना बनाया गया। यमन में ध्वस्त हुई बुनियादी सुविधाओं के कारण यहां हैजे जैसी जानलेवा बीमारियां भी फैल गईं।
इसके अतिरिक्त सलमान के सत्ता संभालने के बाद लेबनान के प्रधानमंत्री को सऊदी अरब में ही अनुचित ढंग से रोक दिया गया। इस तरह की घटना अन्तराष्ट्रीय राजनीति में बहुत कम होती है। अबू धाबी से सऊदी अरब की एक महिला कार्यकर्ता को उठाकर सीधे सऊदी अरब की एक जेल में भेज दिया गया। एक भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का मुखौटा लगाकर सलमान के विरोधी अनेक राज परिवार के व्यक्तियों और बड़े व्यवसायियों को अचानक गिरफ्तार कर लिया गया या उनकी संपत्ति जब्त कर ली गई।
आश्चर्य है कि इस तरह की मनमानियों का पश्चिमी देशों ने बहुत कम विरोध किया क्योंकि वे चाहते थे कि सऊदी अरब से हथियारों और अन्य व्यापार के अरबों डॉलर के उनके सौदे जारी रहें। खासकर अमेरिका ने तो सऊदी अरब और यूएई से हुई सौदेबाजी से बहुत लाभ हासिल किया। इन दोनों अरब देशों के शक्तिशाली युवराजों की ट्रंप के दामाद कुशनेर से बहुत गहरी दोस्ती है और अमेरिका की मध्य-पूर्व नीति में ट्रंप ने कुशनेर को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान पहले ही दे दिया है।
इन समीकरणों ने अब यह रूप ले लिया है कि सऊदी अरब और यूएई की इजराइल से बहुत सांठ-गांठ हो गई है जबकि इजराइल, मध्य-पूर्व में अमेरिका का सबसे विश्वसनीय साथी रहा है। यह तीनों देश मिलकर ईरान के प्रबल विरोधी हो गए हैं और ईरान से अमेरिका का परमाणु समझौता रद्द कर उस पर नए सिरे से कड़े प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं, जिसका प्रतिकूल असर अनेक तेल आयातक देशों को भी झेलना पड़ रहा है। इन बदलते समीकरणों का प्रतिकूल असर फिलिस्तीनियों के लोकतांत्रिक हकों पर नये हमले के रूप में भी देखा जा रहा है और उनकी समता और लोकतंत्र की संभावनाएं कम होती जा रही हैं। मिस्र भी फिलिस्तीनियों से मुंह मोड़कर आर्थिक कारणों से सऊदी अरब से नजदीकी बना रहा है।
इन अरब देशों में मुस्लिम ब्रदरहुड और अन्य संगठनों से जुड़े मौजूदा सत्ता के विरोधी तत्त्व कहीं नजदीक शरण की तलाश में अधिक संख्या में तुर्की में जमा हो रहे हैं। तुर्की के राष्ट्रपति एर्डोगन का अपना मानवाधिकार रिकार्ड चाहे अच्छा न रहा हो, पर सऊदी अरब, यूएई, मिस्र आदि अरब देशों के सत्ता-विरोधियों को यहां पनाह मिल रही है। इस्तानबुल में खगोशी की हत्या के मामले को भी दुनिया की नजर में बनाए रखने में तुर्की और एर्डोगन की प्रमुख भूमिका रही है। कतर से सऊदी अरब ने सलमान के नेत्तृत्व में जो मनमानी की, और उसपर प्रतिबंध लगाकर उसे अलगाव में धकेलने का प्रयास किया, उसका विरोध भी तुर्की ने किया है। अमेरिका के प्रति एर्डोगन का संदेह है कि उन्हें सत्ता से हटाने के प्रयास में अमेरिका की भूमिका थी, इसलिए नाटो का सदस्य होने के बावजूद तुर्की ने रूस और ईरान से अपने संबंध सुधारे हैं। इस तरह सऊदी अरब-इसराईल-यूएई-अमेरिका के समीकरण के मुकाबले में तुर्की-ईरान-कतर-फिलीस्तीन-रूस का समीकरण उभर सकता है। इसका असर सीरिया पर भी पड़ेगा और सीरिया में असद की सत्ता को हटाने के प्रयास और कठिन होंगे।
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इस जटिल स्थिति में खगोशी की हत्या के मामले को लेकर एक प्रयास यह हो सकता है कि पश्चिमी देश सलमान की जगह सऊदी अरब में एक बेहतर सत्ताधारी की तलाश शुरू करें। ऐसा हुआ तो स्थितियां बहुत तेजी से बदल सकती हैं। लेकिन इसके स्थान पर एक अन्य प्रयास यह भी हो सकता है कि वे इस बहाने सऊदी अरब पर अपना दबाव बढ़ाकर अपने लिए अधिक आर्थिक लाभ अर्जित करें। आखिर यमन की भयंकर तबाही के बाद भी तो अमेरिका ने अपने संकीर्ण हितों के आधार पर ही निर्णय लेने जारी रखे थे। उस समय तो मानवधिकारों की बात नहीं की थी।
फिलहाल कुल मिलाकर तो यही लग रहा है कि मध्य पूर्व में मानवाधिकार और लोकतंत्र आगे बढ़ने के बजाए पीछे हटते नजर आ रहे हैं।
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