बीते दिनों फ्रांस, जर्मनी, स्पेन समेत यूरोप के 11 देशों में किसानों के विरोध प्रदर्शन देखने को मिले. लेकिन भारत में किसानों के प्रदर्शनों के प्रति सरकार के रवैये और यूरोप की सरकारों के रवैये में बहुत फर्क नजर आता है। अपनी मांगों को लेकर दिल्ली में प्रदर्शन करने के लिए पंजाब से चले किसान अभी दिल्ली की सीमा तक पहुंच नहीं पाए हैं। पंजाब और हरियाणा के बीच शंभू बॉर्डर पर किसानों और पुलिस के बीच भारी संघर्ष जारी है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, पुलिस ने वहां 12 परतों के बैरिकेड की व्यवस्था की हुई थी।
किसानों ने जब कुछ बैरिकेडों को तोड़ा, तो पुलिस ने उन पर वॉटर कैनन और आंसू गैस के गोले छोड़े। इस बार आंसू गैस छोड़ने के लिए ड्रोनों का इस्तेमाल भी किया गया। बाद में पुलिस ने रबड़ की गोलियों का इस्तेमाल भी किया। इनसे कई किसानों के घायल होने की खबर है।
किसान अगर हरियाणा पार कर लेते हैं, तो दिल्ली की सीमाओं पर भी उन्हें रोकने के व्यापक इंतजाम किए गए हैं। भारी संख्या में पुलिसकर्मियों और अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है। सीमेंट के बड़े-बड़े बैरिकेड, जंजीरें, कंटीली तारें और नुकीले तीर लगाए गए हैं. 2020 की ही तरह के दृश्य दोहराए जा रहे हैं।
हालांकि इस समय भारत ऐसा अकेला देश नहीं है, जहां किसान विरोध प्रदर्शन करने सड़कों पर उतरे हों। यूरोप के कम-से-कम 11 देशों में किसान अलग-अलग सरकारी नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. इनमें जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, पोलैंड, बेल्जियम, नीदरलैंड्स समेत कई देश शामिल हैं।
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फ्रांस के किसानों ने राजधानी पेरिस, तो जर्मन किसानों ने देश की राजधानी बर्लिन समेत कई शहरों में हाई-वे जाम किए। लेकिन भारत के मुकाबले इन देशों में किसान प्रदर्शनों के साथ शासन-प्रशासन के सलूक में बहुत अंतर दिखता है।
जर्मनी में किसानों की नाराजगी को देखते हुए सरकार ने बातचीत की मंशा दिखाई. कृषि मंत्री चेम ओजडेमिर खुद किसानों के प्रदर्शन में बातचीत करने गए। उन्होंने आश्वासन दिया कि उनके बस में जो कुछ भी है, वो सब करेंगे. सरकार स्पष्ट कर रही है कि वो अपने फैसलों के प्रति अड़ियल नहीं है।
एक और महत्वपूर्ण पक्ष है, विरोध के अधिकार की स्वीकार्यता. किसान ट्रैक्टर लेकर बर्लिन पहुंचेंगे, प्रदर्शन करेंगे, ये बात पता होने पर भी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की गई. पुलिस-प्रशासन की ओर से यह अपील की गई कि किसान मोटर लेनों को बाधित ना करें। लेकिन इन अपीलों के इतर किसानों की मूवमेंट रोकने या जबरन प्रदर्शन रुकवाने का रुझान नहीं दिखा। जबकि ऐसा नहीं कि प्रदर्शनों के कारण आम जनजीवन प्रभावित ना हुआ हो।
भारत में कई बार विरोध प्रदर्शन करने वालों पर विदेशी फंडिंग लेने या देश-विरोधी होने का इल्जाम लगा दिया जाता है। कई बार ये दोषारोपण बहुत हल्के अंदाज में किया जाता है, जिनमें ठोस आधारों की कमी दिखती है।
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जर्मनी में भी यह आशंका जताई गई कि धुर-दक्षिणपंथी तत्व किसान आंदोलन के बहाने अपना अजेंडा भुना सकते हैं। थुरिंजिया राज्य में "ऑफिस फॉर दी प्रॉटेक्शन ऑफ दी कॉन्स्टिट्यूशन" के प्रमुख स्टेफान क्रामर ने ऐसी आशंका जताते हुए साफ कहा कि दक्षिणपंथी चरमपंथी लोग किसानों के प्रदर्शनों का इस्तेमाल करने की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन इन आशंकाओं के आधार पर प्रदर्शनों को खारिज करने या उन्हें ना होने देने की कार्रवाई नहीं की गई।
भारत में ठीक इसके उलट हो रहा है। बल्कि 2020-21 में जो हुआ वही सब दोबारा होता हुआ नजर आ रहा है। उस समय भी किसान इसी तरह आक्रोश में थे। उन्हें रोकने के लिए पहली बार दिल्ली की सीमाओं को एक तरह के युद्धक्षेत्र में बदल दिया गया।
किसान महीनों तक सीमाओं पर ही डटे रहे. कठोर मौसम और पुलिस के साथ संघर्ष में लगी चोटों की वजह से कई किसानों की जान तक चली गई। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में तो इन किसानों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए पदयात्रा निकाल रहे कुछ किसानों पर गाड़ियां चलवा दी गईं। इतना सब होने के बाद अंत में सरकार को किसानों की बात माननी पड़ी।
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