24 फरवरी को रूस ने अपने पड़ोसी यूरोपीय देश यूक्रेन पर धावा बोल दिया। इसके 24 घंटे के भीतर अमेरिका से लेकर यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने रूस के खिलाफ तमाम प्रतिबंधों का मोर्चा खोल दिया। इन प्रतिबंधों का मकसद रूस को आर्थिक मोर्चे पर कमजोर करना है। अमेरिका ने अपने प्रतिबंधों में रूस के बैंकों, इसके हाइटेक सेक्टर और ओलिगार्कों यानी पुतिन के करीबियों को निशाना बनाया है। यूरोपीय संघ ने रूस की सरकार को पैसा मुहैया करानेवाले बैंकों और संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाया है। जर्मनी ने नॉर्डस्ट्रीम-2 गैस पाइपलाइन से गैर की सप्लाई शुरू करने पर रोक लगाई है।
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रूस ने पिछले साल नवंबर से ही यूक्रेनी सीमाओं पर सैनिक तैनात करने शुरू कर दिए थे। वह पश्चिमी देशों के संभावित प्रतिबंधों से निपटने की तैयारी भी कर रहा था। अमेरिका ने पिछले महीने ही फरवरी में रूस के हमला करने की चेतावनी दे दी थी। सवाल यह है कि रूस इन प्रतिबंधों से निपटेगा कैसे? अंतरराष्ट्रीय और आर्थिक मामलों के जानकार मानते हैं कि ईरान, बेलारूस और कजाखस्तान जैसे देश रूस को सियासी समर्थन तो दे सकते हैं, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर चीन ही रूस का मददगार हो सकता है। अहम बात यह है कि इसकी भूमिका तैयार हो चुकी है। पहले भूमिका समझेंगे, फिर मदद के रास्ते।
रूस ने जब यूक्रेन पर हमला किया, तो चीन ने इसकी आलोचना नहीं की। चीन ने इसे 'हमला' भी करार नहीं दिया। बस इतना कहा कि अब भी बातचीत के जरिए मसला सुलझाने का रास्ता खुला है। चीन ने इस घटनाक्रम के लिए अमेरिका और नाटो के उकसावे को जिम्मेदार बताया। उम्मीद के मुताबिक चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में गैर-हाजिर रहा। विश्लेषक इसके पीछे रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की बातचीत को वजह मानते हैं। 4 फरवरी को बीजिंग विंटर ओलिंपिक के उद्घाटन समारोह में दोनों नेताओं की मुलाकात हुई थी। इसके बाद पांच हजार पन्नों का एक साझा बयान जारी किया गया था।
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इस साझा बयान में नाटो के पूर्व की ओर बढ़ते विस्तार की आलोचना की गई थी। इसमें 'नए युग की शुरुआत' और 'सीमारहित सहयोग' की बातें की गई थीं। इसी मुलाकात में 90 खरब रुपए से ज्यादा के समझौते भी किए गए थे। जर्मन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में चीन की विशेषज्ञ डीडी किर्स्टन टाटलोव कहती हैं कि हो सकता है कि इस बैठक में पुतिन ने शी को अपनी पूरी योजना ना बताई हो, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि चीन को रूस के अगले कदम का जरा भी इलहाम ना हो। अब जबकि चीन बाकी एशियाई देशों से उलट रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों की आलोचना कर रहा है, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि चीन और रूस अमेरिका के खिलाफ साझा हितों पर काम कर रहे हैं।
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प्रतिबंधों के दौर में रूस को सबसे ज्यादा आर्थिक मदद की दरकार होगी। रूस अभी यूरोप को इसकी कुल जरूरत का 35 फीसदी तेल और गैस बेचता है। शी-पुतिन की बैठक में समझौता हुआ है कि चीन अगले 30 वर्षों तक रूस से तेल और गैस खरीदता रहेगा। यानी अगर रूस के यूरोपीय बाजार में कोई दिक्कत आती है, तो अगला खरीदार तैयार है। शी-पुतिन की बैठक में रूस की गजप्रोम और चीन की CNPC ने अगले 25 वर्षों तक नए रास्ते से गैस की आपूर्ति का समझौता किया है। 2019 में शुरू हुई 'पावर ऑफ साइबेरिया' नाम की यह पाइपलाइन 2025 तक अपनी पूरी क्षमता से काम करने लगेगी।
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चीन ने रूस से इसका गेहूं खरीदने का सौदा भी किया है। पहले इस आयात पर यह कहकर रोक लगाई गई थी कि रूसी गेहूं में फफूंद बहुत है। पश्चिमी देश रूस में पैसों की आपूर्ति रोकने के लिए बेकरार हैं, लेकिन गेहूं का यह सौदा इस आपूर्ति को बनाए रखने में मददगार साबित होगा। वहीं चीनी सरकार के मालिकाना हक वाले बैंक रूस को बड़े कर्ज मुहैया करा सकते हैं। ये कर्ज रूस की मुद्रा रूबल या चीन की मुद्रा युआन में हो सकते हैं। इससे इस लेन-देन पर प्रतिबंधों का ज्यादा असर नहीं पड़ेगा।
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वर्जीनिया में विलियम ऐंड मेरी कॉलेज की अंतरराष्ट्रीय रिसर्च लैब एडडाटा के मुताबिक रूस 2000 से 2017 के बीच चीन से सबसे ज्यादा कर्ज लेने वाला देश है। यह रकम करीब 151 बिलियन डॉलर है। माना जाता है कि चीन के 'चाइना डेवलपमेंट बैंक' और 'एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक ऑफ चाइना' का अमेरिकी कंपनियों के साथ ज्यादा कारोबार नहीं है। डॉलर सिस्टम से भी इनका खास वास्ता नहीं है। ऐसे में इन पर पाबंदियों का ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। इस तरह ये रूस के लिए मददगार साबित हो सकते हैं।
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रूस ने 2014 में क्रीमिया को अपने में मिला लिया था। तब से रूस और चीन ने आपसी कारोबार में डॉलर का इस्तेमाल जितना हो सके, घटाने की कोशिश की है। इस वजह से बीजिंग पाबंदियों का असर झेलने के मामले में पहले से मजबूत हुआ है। दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्ते भी मजबूत हैं। 2021 में दोनों देशों के बीच रिकॉर्ड 145 बिलियन डॉलर का कारोबार हुआ था, जो पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहा है।
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आज की तारीख में चीन के यूक्रेन समेत कई यूरोपीय देशों से अच्छे कारोबारी रिश्ते हैं। जानकार मानते हैं कि चीन रूस की मदद करने में अपने रिश्ते खराब नहीं करना चाहेगा। इस मुद्दे पर दो सूरत हैं। चीन कह रहा है कि रूस पर लगाई जा रही पाबंदियां अप्रभावी हैं, जो सिर्फ आम लोगों को परेशान करेंगी। इससे लग रहा है कि चीन का यूरोप से रिश्ते बरकारार रखना रूस की नहीं, बल्कि चीन की अपनी चुनौती है। दूसरी सूरत यह है कि 2020 में पीयू रिसर्च सेंटर ने जर्मनी, नीदरलैंड्स, स्पेन, स्वीडन और ब्रिटेन जैसे अहम देशों में एक सर्वे करके चीन के प्रति इनका मूड भांपा था। इसके नतीजे सर्वे की शुरुआत से अब तक चीन के लिए सबसे खराब थे।
पिछले साल यूरोपीय संघ ने भी इंडो-पैसिफिक यानी भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिए पहली बार कोई रणनीति जारी की थी। इसमें चीन को संभावित चुनौती के तौर पर दर्ज किया गया था। हाल ही में यूरोपीय संघ ने चीन के शिनजियांग प्रांत में कथित मानवाधिकार हनन में भूमिकाओं के लिए कई चीनी अधिकारियों पर पाबंदियां भी लगाई हैं। यह 1989 में तियानमेन चौक पर हुए नरसंहार के बाद चीन के खिलाफ उठाया गया सबसे कठोर कदम था। यूरोपीय संघ के चेक रिपब्लिक और लिथुआनिया जैसे देशों के ताइवान के साथ अच्छे रिश्ते भी हैं। ताइवान के मुद्दे पर चीन किसी भी देश की सुनने को तैयार नहीं है।
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ऐसा भी नहीं है कि चीन का रवैया किसी को दिख नहीं रहा है। ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन तो खुले तौर पर कह चुके हैं, "चीनी सरकार रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों को हल्का करने की कोशिश कर रही है। यह बर्दाश्त के बाहर की बात है। आप ऐसे वक्त में रूस के मददगार नहीं हो सकते, जब वे किसी और देश पर हमला कर रहे हैं।"
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दुनिया में आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से दो सबसे बड़े देश यकीनन एक-दूसरे के मददगार साबित हो सकते हैं। हालांकि, इस राह में कुछ अड़चनें भी हैं। कुछ जानकार मानते हैं कि डॉलर समेत अन्य मुद्राओं के इस्तेमाल की वजह से चीन रूस को पाबंदियों के असर से ज्यादा नहीं बचा पाएगा। रूसी सेंट्रल बैंक का डाटा बताता है कि 2021 के पहले नौ महीनों में दोनों देशों ने अपना 8.7 फीसदी आपसी कारोबार रूबल और 7.1 फीसदी दूसरी मुद्राओं में किया था। चीन और रूस के आपसी कारोबार में डॉलर की हिस्सेदारी 36.6 फीसदी और यूरो की हिस्सेदारी 47.6 फीसदी थी। ऐसे में अमेरिकी और यूरोपीय आर्थिक प्रतिबंधों का असर मुमकिन है और यह दूरगामी भी हो सकता है।
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दूसरी अड़चन अतीत को लेकर जताई जा रही है। अमेरिका के रवैये ने चीन और रूस को करीब ला दिया है। दोनों का अच्छे रिश्तों का लंबा अतीत रहा है और विचारधारा के स्तर पर भी दोनों करीब हैं। पर दोनों के बीच 1969 में सोवियत संघ और चीन के बीच हुआ सीमा विवाद भी है, जब जंग का एलान हुए बिना ही दोनों के बीच खूनी संघर्ष हुआ था। यह लड़ाई खत्म होने पर अमेरिका को चीन में रूस के खिलाफ एक दोस्त भी नजर आया था। इसके बाद शुरू हुई पिंग पॉन्ग डिप्लोमेसी ने उन हालात की नींव रखी, जो अब 50 साल बाद देखने को मिल रहे हैं। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि दोनों देश कब तक 'बड़ा भाई' बनने की महत्वाकांक्षा से मुक्त रह पाते हैं।
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