चीनी विदेश नीति के जानकारों में लगभग आम-राय बन चुकी है कि कोविड महामारी चीन की राजनयिक प्रतिष्ठा, अर्थव्यवस्था और खास तौर पर महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना के रास्ते में बड़ी चुनौतियां लेकर आई है। चीन के प्रतिष्ठित रिसर्च संस्थान चाइना इंस्टीटूट ऑफ कंटेम्परेरी इंटरनेशनल रिलेशंस के एक सर्वे के अनुसार कोविड-19 ने चीन की छवि और विश्वसनीयता को इस बुरी तरह खराब किया है कि आज दुनिया में चीन की साख गिरकर फिर वहीं पहुंच गई है, जहां वह 1989 के त्यानानमेन स्क्वायर नरसंहार के वक्त थी।
साफ है, वैश्विक आर्थिक मंदी, संकुचित होती अर्थव्यवस्था और गिरती विश्वसनीयता के बीच बेल्ट एंड रोड परियोजना पर भी सवालिया निशान खड़े हुए हैं और इन सवालों से पार पाना फिलहाल आसान नहीं लग रहा।
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बेल्ट एंड रोड परियोजना की घोषणा 2013 में चीनी राष्ट्रपति शी जीनपिंग ने कजाखस्तान (भूतल सिल्क रोड) और इंडोनेशिया (सामुद्रिक सिल्क रोड) में की थी। सैकड़ों अरब डॉलर की चीन-केंद्रित इस महत्वाकांक्षी परियोजना को अब तक 135 से ज्यादा देशों ने साझेदारी की मंजूरी दी है, जिसका मुख्य उद्देश्य न सिर्फ चीन के साथ यूरोप, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और एशिया के तमाम देशों का सीधा रेल और रोड संपर्क साधना है, बल्कि इन तमाम देशों में चीनी निवेश और व्यापार को पहले से कई गुना बढ़ाना भी है। खदानों से लेकर समुद्री पत्तन तक, कार-ट्रेन-हवाई अड्डे और स्टेडियम से लेकर कल-कारखानों तक- हर क्षेत्र में चीन का निवेश और दबदबा कई साझेदार देशों में बढ़ा है।
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तो क्या ठप पड़ जाएगी चीन की महात्वाकांक्षी परियोजना?
दरअसल इन आशंकाओं के पीछे कई वजहें हैं। महीनों से लॉकडाउन से जूझ रहे सैकड़ों देशों में ठप्प पड़े पर्यटन, उड़ान सेवाओं, होटल और तमाम उद्योग धंधों ने विश्व अर्थतंत्र को मंदी के दलदल में धकेल दिया है। अमेरिका, चीन और जापान समेत दुनिया के तमाम देश इस मंदी के दौर में कदम रख चुके हैं। कल-कारखानों, पर्यटन और आयात-निर्यात में आई वैश्विक गिरावट ने निर्यात पर निर्भर चीन की आर्थिक व्यवस्था को तगड़ा झटका दिया है.।कोविड ने निर्यात के कई दरवाजे भी बंद किए हैं, जिससे चीन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है और इसे संभलने में वक्त लगेगा।
आज चीन के सामने एक बड़ा सवाल है अपनी प्राथमिकताओं को फिर से तय करने का। पहले से ही अमेरिका से व्यापारिक युद्ध में फंसे चीन के लिए कोविड ‘कोढ़ में खाज’ की सी स्थिति लेकर आया है। कोविड की उत्पत्ति को लेकर 110 से ज्यादा देशों की डब्ल्यूएचओ से निष्पक्ष जांच की मांग के मुद्दे पर घिरा चीन विश्वसनीयता पर सवाल के साथ-साथ आस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी लड़ने को आतुर है और आस्ट्रेलिया से अपने महत्वपूर्ण आयात संसाधनों पर भी प्रतिबंध लगा रहा है। इन मुसीबतों के बीच बेल्ट एंड रोड परियोजना पर पूरा ध्यान लगाना उसके लिए बहुत कठिन हो गया है।
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आर्थिक रूप से कमजोर देशों का बोझ
चीन की चिंताओं की एक और आर्थिक वजह यह भी है कि इस परियोजना के साझेदार देशों में लगभग आधे देश (65 से अधिक) छोटे और मझोले श्रेणी के गरीब देश हैं, जिनकी आर्थिक दशा और दिशा दोनों ही लचर रही है। ये वही देश हैं जिनकी वर्षों से संप्रभु क्रेडिट रेटिंग और निवेश की सरलता के इंडेक्स में दयनीय दशा रही है। इनके बारे में बेल्ट एंड रोड परियोजना के विश्लेषकों ने पहले से चिंता जताई थी। कुछ एजेंसियों के अनुसार इस परियोजना में चीन ने अपने बैंकों के जरिये अब तक 460 अरब डॉलर से ज्यादा का कुल निवेश और कर्जा दे रखा है। पाकिस्तान, कंबोडिया, लाओस, जैसे कई देश इस श्रेणी में आते हैं।
कोविड महामारी के पसरते ही कुछ देशों ने बिगड़ती आर्थिक स्थिति के मद्देनजर चीन से लिए गए कर्जे में ढील का अनुरोध किया है। ऐसे संकेत मिलने शुरू हो गए हैं कि चीन कुछ चुनिंदा देशों से फिलहाल उधार पर ब्याज नहीं लेगा। साथ ही उसने यह भी स्पष्ट किया है कि यदि ऐसा निर्णय लिया गया तो वह सभी देशों पर एक साथ नहीं लागू होगा, बल्कि इसे हर एक साझेदार देश की दशा और पारस्परिक संबंधों को ध्यान में रख कर लिया जाएगा। फिलहाल चीन ने आधिकारिक तौर पर ऐसा निर्णय नहीं लिया है।
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वहीं दूसरी ओर, कई ऐसे साझेदार पश्चिमी देश हैं, जिन्होंने चीन को कोविड वायरस संबंधी सूचना छुपाने का जिम्मेदार माना है और इससे इन देशों में जनता का चीन से भरोसा भी उठना शुरू हो गया है। कोविड से लड़ने में चीन ने पीपीई किट्स कई देशों को भेजी और इटली और तुर्की जैसे कई देशों में इन किटों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी भी पायी गयी। चीन की विश्वसनीयता में आई गिरावट कम से कम कुछ सालों तक इन देशों में चीन की छवि सुधारने में रोड़ा अटकाती रहेगी।
फिलहाल चीन के लिए राहत की बात यह रही है कि अमेरिका और यूरोप में चीन को लेकर एक व्यापक आम-राय नहीं बनी है। यूरोप के कई महत्वपूर्ण देश अभी तक चीन को उदारवादी विश्व व्यवस्था के लिए बड़ा खतरा नहीं मानते। उनका मानना है कि चीन को अभी भी विश्व व्यवस्था का एक जिम्मेदार हिस्सा बनाया जा सकता है। पिछले दो महीनों में चीन ने कोविड पर अपनी आलोचना के जवाब में आक्रामक रुख अपना कर तमाम दुनिया को अपने से दूर ही किया है। वक्त रहते न संभलने से परिस्थितियां वैश्विक ध्रुवीकरण की ओर ले जा सकती हैं जो किसी भी देश के लिए अच्छी नहीं होंगी।
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चीन के लिए सही साथी चुनने की उलझन
चीन के सामने सबसे बड़ी उलझन ये आने वाली है कि वो देश जिनमें निवेश से उसे सीधा आर्थिक फायदा है वो इसके साथ आने में कतराएंगे, तो वहीं उन देशों की कतार ज्यादा बड़ी होगी जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और जहां निवेश का निर्णय आर्थिक कम और सामरिक-कूटनीतिक ज्यादा है। श्रीलंका का हंबनटोटा पोर्ट एक ऐसा ही उदाहरण है। जब श्रीलंका की सरकार ने 6 प्रतिशत ब्याज पर 8 मिलियन डॉलर का उधार वापस करने में असमर्थता जाहिर की तो चीन की सरकार ने बदले में 99 साल के लिए पोर्ट को अपने प्रबंधन में रखने की पेशकश कर दी।
इस पर सहमति होने से श्रीलंका की आर्थिक समस्याएं तो सुलझ गयी लेकिन पोर्ट का नियंत्रण भी हाथ से जाता रहा। यहां दिलचस्प बात यह है कि हर देश श्रीलंका की तरह का सामरिक महत्व नहीं रखता। ऐसे में किन देशों में चीन अपनी सिकुड़ती अर्थव्यवस्था के हित में निर्णय लेता है और कहां उसके सामरिक-कूटनीतिक हित पहले आते हैं, ये देखना महत्वपूर्ण होगा। हालांकि यह तय है कि चीन अपने निवेशों को एक ही तराजू में तौलने की स्थिति में नहीं है।
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इन तमाम मुश्किलों के बावजूद बेल्ट एंड रोड परियोजना के ठप्प होने के पूरे आसार नहीं हैं। इसकी प्रमुख वजह है राष्ट्रपति शी का इस परियोजना की ओर व्यक्तिगत झुकाव। शी को यह परियोजना कुछ इस कदर पसंद आ चुकी है कि यह न सिर्फ उनकी फ्लैगशिप परियोजना बन गई है बल्कि इसे चीनी संविधान में भी शामिल कर लिया गया है। इस परियोजना को ठंडे बस्ते में डालना उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाएगा और इसलिए शी ऐसा होने नहीं देंगे।
यहां यह समझना जरूरी है कि पिछले तीन दशकों में कई बार ऐसे अवसर आए हैं जहां चीन ने दुनिया को दिखाया है कि भूतपूर्व सोवियत संघ की तरह वह प्रतिष्ठा में प्राण गंवाने में विश्वास नहीं रखता। अमेरिका से कहा-सुनी के बीच भी उसने कभी व्यावहारिकता का साथ नहीं छोड़ा और कदम-कदम पर सावधानी से अपनी नीतियों में फेर-बदल भी किए हैं। नीतिगत स्तर पर शायद यही वजह रहेगी जिससे चीन के बेल्ट एंड रोड परियोजना में परिवर्तन देखने को मिलेंगे और इन्हीं व्यावहारिक नीतियों के चलते बेल्ट एंड रोड परियोजना कभी पूरी तरह ठप्प नहीं पड़ेगी।
(लेखख राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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