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आखिर क्यों अपना रहे हैं देश भर के दलित बौद्ध धर्म ?  

रविवार बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर गुजरात के ऊना गांव के दलित परिवार समेत राज्य के विभिन्न स्थानों से आये 300 से अधिक दलितों ने अंबेडकर द्वारा प्रचारित बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

बौद्ध धर्म के मानने वालों के लिए बुद्ध पूर्णिमा सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिन है। वैशाख में पड़ने वाली इस पूर्णिमा के दिन ही शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में सिद्धार्थ का जन्म हुआ था, इसी दिन लंबी तपस्या के बाद सिद्धार्थ गौतम को ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे विश्व में बुद्ध के नाम से विख्यात हुए और इसी दिन उनका परिनिर्वाण हुआ। रविवार की रात बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर गुजरात के ऊना गांव के उस दलित परिवार समेत 300 से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया, जिसके सदस्यों को जुलाई 2016 में हिंदुत्व से प्रेरित कथित गौरक्षकों ने बेरहमी के साथ कोड़ों से मारा था।

इसके पहले 11 अप्रैल को महाराष्ट्र के शिरसगांव में 500 से अधिक दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया था। इन दोनों घटनाओं को पिछले वर्षों में लगातार बढ़े जातिगत तनाव और बढ़ते जा रहे अत्याचारों के खिलाफ दलितों के सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध के रूप में देखा जा रहा है।

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दिलचस्प बात यह है कि गुजरात विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के विधायक प्रदीप परमार भी धर्मांतरण के समय उपस्थित थे और उनका कहना था कि वह विधायक केवल इसलिए हैं, क्योंकि भीमराव अंबेडकर ने ऐसा संविधान बनाया कि एक दलित होते हुए भी वह विधायक बन पाए।

जब से केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आई है, तब से देश भर में गौरक्षा के नाम पर मुसलमानों और दलितों पर हमले बढ़े हैं और इस कारण जातिगत एवं साम्प्रदायिक तनाव में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। हिन्दू समाज की सवर्ण जातियों में दलितों के प्रति स्वाभाविक रूप से हिकारत और नफरत का भाव रहता है जिसके पीछे जातिगत श्रेष्ठता की भावना है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2007 और 2017 के बीच दस सालों के दौरान दलितों के प्रति अपराधों में 66 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और दलित महिलाओं पर होने वाले बलात्कारों की संख्या दो गुनी हो गयी। इसलिए उत्तर प्रदेश हो या महाराष्ट्र या गुजरात या राजस्थान, दलितों के बीच बेचैनी और असंतोष बढ़ता जा रहा है और पिछले एक साल से इसकी अभिव्यक्ति धरनों, प्रदर्शनों और आंदोलनों के माध्यम से हो रही है। उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर रावण और गुजरात में जिग्नेश मेवाणी इसी प्रक्रिया के दौरान उभरे युवा दलित नेता हैं।

समस्या यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके जैसे अन्य हिंदुत्ववादी संगठन अंबेडकर के जीवनकाल में हमेशा उनका विरोध और 'मनुस्मृति' जैसे जातिव्यवस्था के पोषक एवं समर्थक ग्रंथों का समर्थन करते रहे। इसलिए अब जब प्रधानमंत्री मोदी अंबेडकर की प्रशंसा करते हैं, बौद्ध भिक्षुकों को दलितों के बीच अपने संदेश के साथ भेजते हैं और उनकी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब दलितों के घरों में जाकर वहां खाना खाने के बहुप्रचारित और सार्वजनिक आयोजन करते हैं, तो इस सबको दलित गंभीरता से नहीं लेते और इसे केवल दिखावा और छलावा ही समझते हैं।

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अंबेडकर ने तो अपनी मृत्यु से लगभग बीस वर्ष पहले घोषणा कर दी थी कि उनका जन्म भले ही एक हिन्दू के रूप में हुआ हो, उनकी मृत्यु हिन्दू के रूप में नहीं होगी। अपनी मृत्यु से दो माह पहले अक्टूबर 1956 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ अंबेडकर ने हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और तभी से प्रतिवर्ष दलित अपना असंतोष और विरोध व्यक्त करने के लिए धर्मांतरण का सहारा लेते हैं।

अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और उसके पहले कई विधानसभा चुनाव होने हैं। दलितों की आबादी भारत की कुल आबादी का लगभग बीस प्रतिशत है। अब इस आबादी को दबा कर रखना अधिक से अधिक मुश्किल होता जा रहा है लेकिन फिर भी सरकारें उनके उत्थान के लिए सार्थक और कारगर उपाय करने के बजाय केवल प्रतीकात्मकता का सहारा लेती हैं।

आने वाले दिनों में इन प्रतीकात्मक कदमों का कोई खास असर होने वाला नहीं है, क्योंकि अब दलितों के बीच अपनी अस्मिता, आत्मगौरव और अधिकार की चेतना बढ़ रही है। उनकी समस्याओं का समाधान बुनियादी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के नहीं होने वाला। अब उनके बीच पढ़े-लिखे और आधुनिक चेतना सम्पन्न युवाओं का नेतृत्व पनप रहा है। यह नेतृत्व समाज में सम्मान के साथ जीने का अधिकार और सत्ता में वाजिब हिस्सेदारी मांग रहा है। उसके बिना यह संतुष्ट होने वाला नहीं। निहित स्वार्थों के लिए यह खतरे की घंटी है।

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