देश

जब मॉब लिंचिंग का शिकार होने से बचे थे महात्मा गांधी!  ऐसे बची थी जान

विवेक जब शून्य हो जाता है, तब व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बन जाता है, और ऐसी विवेक-शून्य भीड़ क्या कुछ करती है, आज के इस दौर में यह बताने की जरूरत शायद नहीं रह गई है। आज से सवा सौ साल पहले मोहनदास करमचंद गांधी का ऐसी ही एक भीड़ से सामना दक्षिण अफ्रीका में हुआ था।

फोटो: IANS
फोटो: IANS 

विवेक जब शून्य हो जाता है, तब व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बन जाता है, और ऐसी विवेक-शून्य भीड़ क्या कुछ करती है, आज के इस दौर में यह बताने की जरूरत शायद नहीं रह गई है। आज से सवा सौ साल पहले मोहनदास करमचंद गांधी का ऐसी ही एक भीड़ से सामना दक्षिण अफ्रीका में हुआ था।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

भीड़-हिंसा, जिसे आज ‘मॉब लिंचिंग’ कहा जाता है, उससे गांधी मुश्किल से बच पाए थे। वरना, गांधी के महात्मा बनने की कहानी वहीं ठहर जाती और उनकी पहचान मोहनदास करमचंद तक ही सीमित हो गई रहती।

कारोबारी दादा अब्दुल्ला के बुलावे पर उनकी कंपनी को कानूनी मदद देने सन् 1893 में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी अपने संघर्षो के बल पर महज तीन साल के भीतर यानी सन् 1896 तक एक राजनेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। उन्होंने 22 अगस्त, 1894 को नताल इंडियन कांग्रेस (एनआईसी) की स्थापना की और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हितों के लिए संघर्ष करते रहे। इसी क्रम में वह सन् 1896 में भारत लौटे थे।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

गांधी अपने अभियान में लगे हुए थे कि अचानक नताल के भारतीय समुदाय की तरफ से एक तार आया और वह 30 नवंबर, 1896 को दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हो गए। इस बार उनके साथ उनका परिवार यानी पत्नी और बच्चे भी थे।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

गांधी के दक्षिण अफ्रीका पहुंचने से पहले ही उनके ‘ग्रीन पंफ्लेट’ ने वहां तूफान खड़ा कर दिया था। हरे रंग की इस पुस्तिका में भारतीयों के सामने खड़ी समस्याओं का जिक्र था, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में यह अफवाह फैलाई गई थी कि गांधी ने इस पुस्तिका में गोरे यूरोपियों के बारे में बुरा-भला लिखा है, और भारत में उन्होंने इस समुदाय के खिलाफ अभियान चला रखा है, और अब वह दो जहाजों में भारतीयों को भरकर नताल में बसाने ला रहे हैं।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक, गांधी की जहाज जब डर्बन पहुंची तो माहौल इतना गरम था कि जहाज के किसी यात्री को उतरने नहीं दिया गया और जहाज 21 दिनों तक समुद्र में प्रशासन के नियंत्रण में रहा। लेकिन गांधी के खिलाफ गुस्सा फिर भी कम नहीं हुआ था। भीड़ दोनों जहाजों को वापस करने की मांग कर रही थी या उसे समुद्र में डूबो देना चाहती थी।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

अंत में प्रशासन ने दोनों जहाजों को बंदरगाहों से लगने की अनुमति तो दे दी, मगर गांधी को भीड़ से बचाने की कोई तरकीब उसके पास नहीं थी।

गिरिराज किशोर अपनी पुस्तक 'बा' में लिखते हैं कि वक्त की नजाकत को समझते हुए गांधी ने पत्नी और बच्चों को अपने मित्र जीवनजी रुस्तमजी के घर एक गाड़ी में सुरक्षित भेज दिया। उनकी योजना थी कि वह दादा अब्दुल्ला के कानूनी सलाहकार मिस्टर लाटन के साथ किसी तरह छिपकर पैदल निकल जाएंगे। लेकिन जब वह एक रेलिंग को पकड़कर परिवार को जाते हुए देख रहे थे, तभी युवाओं की एक भीड़ ने उन्हें पहचान लिया। भीड़ 'गांधी..गांधी..' चिल्लाते हुए मोहनदास पर टूट पड़ी। बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह आज अपने देश में अफवाहों पर भड़की हुई भीड़ किसी निर्दोष पर टूट पड़ती है।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

गिरिराज लिखते हैं, “गांधी पर भीड़ का हमला इस कदर था कि वह बदहवास होकर रेलिंग पर झुक गए थे। अगर डरबन के पुलिस सुपरिंटेंडेंट आर.सी. अलेक्जेंडर की पत्नी सारा अलेक्जेंडर वहां से न गुजर रही होतीं तो गोरों की हिंसक भीड़ गांधी की हत्या कर दी होती। सारा ने देखा कि भीड़ किसी को बेरहमी से पीट रही है। वह भीड़ को चीरती हुई अंदर घुस गईं। अलेक्जेंडर दंपति गांधी का बहुत सम्मान करता था। उन्होंने तत्काल अपना छाता गांधी के ऊपर फैला दिया। भीड़ एक क्षण के लिए रुक गई। इसी दौरान किसी भारतीय ने मिस्टर अलेक्जेंडर को भी खबर कर दी थी। तत्काल पुलिस पहुंच गई थी।”

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

गांधी की जान फिलहाल तो किसी तरह बच गई थी, लेकिन खतरा खत्म नहीं हुआ था। सिपाहियों ने उन्हें रुस्तमजी के घर तक पहुंचाया। वहां डॉक्टर बुलाए गए और उनकी मरहम-पट्टी हुई। कपड़े फट गए थे, शरीर पर जख्म ही जख्म थे, जिनमें से कई काफी गहरे थे। गांधी राहत की सांस भी नहीं ले पाए थे कि भीड़ वापस रुस्तमजी के घर के बाहर जमा हो गई। पुलिस सुपरिंटेंडेंट भी गारद के साथ पहुंच गए। भीड़ दरवाजा तोड़कर घर में घुसना चाहती थी। भीड़ में शामिल लोग चिल्ला रहे थे- हमें गांधी चाहिए। अंत में सुपरिंटेंडेंट की सलाह पर गांधी सिपाही का भेष धारण कर वहां से जान बचाकर निकल गए, वरना भीड़ उनके साथ ही दो-दो परिवारों की जान ले लेती।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

भारत से लेकर ब्रिटेन तक यह खबर फैल गई कि गांधी को फांसी दी जाएगी। दिल्ली के वायसराय ने इसपर चिंता जताई। दूसरी ओर लंदन से औपनिवेशिक मंत्री जोसेफ चैंबरलेन ने दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश भेजा। लेकिन जब मोहनदास से पूछा गया कि वे कौन लोग थे, जिन्होंने उनपर हमले किए, तब उन्होंने बदले की कार्रवाई करने से इनकार कर दिया।

गांधी ने कहा कि "हमलावर नौजवान थे, रायटर द्वारा गलत खबर प्रसारित करने के कारण भ्रमित हो गए थे।" अटॉर्नी जनरल के कहने पर उन्होंने यही बात लिखित में भी दे दी।

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

दूसरे दिन अखबारों में छपा कि चैंबरलेन के आदेश के बावजूद गांधी ने अटॉर्नी जनरल को लिख कर दे दिया कि वे बदले की कार्रवाई नहीं चाहते। इस खबर को पढ़कर दक्षिण अफ्रीका चकित रह गया था। गांधी के जान के दुश्मन अब उनके चाहने वाले बन गए। मित्र और मुवक्किल दोनों बढ़ गए। लिंचिंग पर आमादा पागल भीड़ को मात्र 27 साल के मोहनदास ने अपने इस कदम से मोह लिया था। भीड़ का विवेक वापस लौट आया था, और मोहनदास महात्मा बनने की ओर बढ़ चले थे। लेकिन हम तो आज भी भीड़ का हिस्सा बनते जा रहे हैं!

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: 02 Oct 2019, 9:01 AM IST