आजाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा झूठ क्या है? ‘धर्मनिरपेक्षता’ या फिर मोदी शासन की ‘रामराज्य’ से तुलना? और यह बात जब देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री कहे तो इसके अर्थ सिर्फ और सिर्फ झूठ ही हो सकते हैं और कुछ नहीं। इससे भी भयावह यह बात है कि जब किसी राज्य का मुख्यमंत्री यह कहे कि वह धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। और अगर यह मुख्यमंत्री देश के सबसे बड़े राज्य का हो, जहां करीब बीस फीसद आबादी अल्पसंख्यकों की हो, तो खतरा और गंभीर नजर आने लगता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साफ कह दिया है कि वे कुछ भी हो सकते हैं, धर्मनिरपेक्ष नहीं।
यूं तो कट्टर हिंदुत्व, कथित राष्ट्रवाद, गौरक्षा और मुस्लिम-अल्पसंख्यक विरोध की राजनीति से उपजे योगी आदित्यनाथ से धर्मनिरपेक्षता की उम्मीद करना ही बेमानी है, लेकिन जब वे एक संवैधानिक पद पर बैठे हैं, तो उनके इस बयान के अर्थ डराते हैं। सबसे पहले बताते हैं कि योगी आदित्यनाथ ने क्या कहा।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक दैनिक समाचार पत्र के कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ ने स्पष्ट कहा कि सेक्युलर यानी धर्मनिरपेक्ष शब्द ‘सबसे बड़ा झूठ’ है, जो आजादी के समय से बोला जा रहा है और इसने देश को नुकसान ही पहुंचाया है। कार्यक्रम में पूछे गए एक सवाल के जवाब में योगी आदित्यनाथ ने कहा कि, “मेरा मानना है कि आजादी के बाद भारत में सबसे बड़ा झूठ धर्मनिरपेक्ष शब्द है। नागरिकों के साथ, भारत के लोगों के साथ, उन लोगों को माफी मांगनी चाहिए, जिन्होंने इस शब्द को जन्म दिया और जो यह शब्द इस्तेमाल करते हैं।”
यहां योगी आदित्यनाथ संविधान निर्माताओं से माफी की बात करते हैं।
योगी ने आगे कहा कि, “कोई व्यवस्था धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकती। राजनीतिक व्यवस्था पंथनिरपेक्ष हो सकती है। अगर कोई हमसे कहेगा कि शासन उस उपासना विधि से चलनी चाहिए तो नहीं चल सकता। यूपी के अंदर देखूंगा तो 22 करोड़ लोगों को देखना होगा। मैं इन लोगों की सुरक्षा के प्रति, उनकी भावनाओं के प्रति जवाबदेह हूं। लेकिन एक समुदाय का तुष्टिकरण करने के लिए भी नहीं बैठा हूं। मैं पंथनिरपेक्ष हूं, लेकिन धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता।”
योगी यहीं नहीं रुके, उन्होंने इतिहास का मुद्दा भी उठाया। योगी ने कहा कि, “इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करना” राजद्रोह से कम बड़ा अपराध नहीं है। इसके बाद योगी आदित्यनाथ ने दावा किया कि यूरोप में “पाकी” शब्द सबसे बड़ी गाली है। उन्होंने कहा कि, “यूरोप में सबसे बड़ा अपमानजनक जो शब्द है, वो पाकी है। पाकिस्तान शब्द ही गाली का पर्याय हो गया है।”
योगी आदित्यनाथ के इन शब्दों के साफ अर्थ हैं कि वे न सिर्फ देश के लोकतांत्रिक ढांचे को बदलने की बात कर रहे हैं, बल्कि संविधान की मूल भावना को भी मानने को तैयार नहीं हैं। यहां यह जानना लाजिमी है कि हमारे संविधान के प्रीएम्बल यानी प्रस्तावना में ही लिखा है कि, “भारत लोकतांत्रिक प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य होगा।”
संविधान निर्माताओं ने यह प्रस्तावना यूं ही नहीं लिखी थी। उन्होंने इस बात पर गहराई से विचार किया था कि क्या आधुनिक युग में धर्म के आधार पर राज्य या सरकार का सुचारू संचालन संभव है? संविधान सभा में इस विषय पर पर्याप्त बहस हुई थी।
इतिहास गवाह है कि धर्म के आधार पर शासन चलाने के नतीजे कितने खतरनाक हो सकते हैं। इसीलिए भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य का संचालन किसी धर्म के आधार पर नहीं होगा। इतना ही नहीं, ध्यान देने की बात यह भी है कि भारत जैसे देश में जहां विभिन्न धर्म, संप्रदाय, भाषाएं, संस्कृतियां, रहन-सहन, परंपराएं और रीति रिवाज इतनी बड़ी संख्या में मौजूद हों, वहां इनमें से किसी एक को अगर सरकार बढ़ावा देती है तो इसके खतरनाक असर हो सकते हैं।
कुछ लोगों को देश की विभिन्नता कमजोरी लग सकती है, या कुछ लोग इसे अपने निहित स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने की साजिश भी कर सकते हैं या करते रहे हैं, इसीलिए संविधान निर्माताओं ने इस विभिन्नता और अनेकता को ही देश की एकता की ताकत बनाने का फार्मूला बनाया था। इसी ताकत का नाम धर्मनिरपेक्षता है।
इसी कारण भारतीय संविधान में भारत गणराज्य को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है। इसका साफ अर्थ यह है कि सरकार या सरकारें, जिसे संविधान में स्टेट या राज्य कहा जाता है, शासन संचालन में धर्म को महत्व नहीं देंगी। धर्म अपनी जगह रहेगा, धार्मिक संस्थाएं भी रहेंगी, धर्म को लेकर मान्यता या परायणता भी रहेगी और धार्मिक परंपराएं और रीति रिवाज भी चलते रहेंगे। सरकार न तो किसी धर्म को अपनाएगी और न ही किसी धर्म का विरोध करेगी।
इस तरह संविधान से साफ कर दिया है कि सरकार को धर्म की जरूरत नहीं है, लेकिन देश के हर नागरिक को उसके अपने धर्म और आस्था की आजादी है। सरकार की जिम्मेदारी यह जरूर है कि इस मोर्चे पर कोई किसी से जोर जबरदस्ती न करे।
जब संविधान में धर्मनिरपेक्षता को स्पष्टत: परिभाषित कर दिया गया है, तो फिर इस पर बहस क्यों? और जब एक संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति ऐसे वक्तव्य देता है तो इससे दुर्भावना की ही गंध आती है।
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