प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से आपने ‘मितरों…’ के अलावा कुछ और बातें सुनी होंगी। मसलन अपने भाषणों में वह कहते हैंः ’मेरी’ सेना, ’मेरे’ सैनिक आदि-आदि। लेकिन उनके मातहत काम करने वाले नीति आयोग और केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने जीडीपी के आंकड़ों में जिस तरह हेराफेरी की है, तो हो सकता है कि आने वाले दिनों में मोदी जी कहते सुने जाएं, ये ’मेरे’ आंकड़े हैं।
कहा जाता है कि आंकड़े दो तरह के होते हैं। एक वह जिनसे आपको सच्ची तस्वीर मिलती है और दूसरे जो बनाए हुए होते हैं। और अब नीति आयोग ने दिखा दिया है कि आंकड़े सियासी भी हो सकते हैं। ब्लूमबर्ग के एंडी मुखर्जी ने सही कहा है कि ‘क्या अब भारत के आंकड़े इस बात पर निर्भर करेंगे कि ’कौन-सी सरकार सत्ता में है।’
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) हर तीन महीने में राष्ट्रीय आय के आंकड़े जारी करती रही है। लेकिन, नवंबर के अंत में पहली बार ऐसा नहीं हुआ। उसकी जगह नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार जीडीपी की बैक सीरीज़ यानी पिछले वर्षों के संशोधित आंकड़े लेकर पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन के साथ नमूदार हुए। पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन ने नीति आयोग के इस कदम पर शक जताया। इतना ही नहीं, मोदी समर्थक अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य सुरजीत भल्ला ने भी कहा कि ’दूसरे लोगों के साथ मुझे भी सीएसओ की जगह नीति आयोग द्वारा सीधे इस तरह आंकड़े जारी करना उचित नहीं लगा है।’
ध्यान रखना होगा कि अर्थशास्त्री सुदीप्तो मुंडले की टीम बैक सीरीज़ यानी पिछले आंकड़ों का ऐसा विश्लेषण इस साल के शुरू में ही कर चुकी थी। इस टीम ने बताया था कि 2004 से 2014 के बीच यूपीए के 10 साल के शासन में देश की अर्थव्यवस्था में हर साल औसतन 8 फीसदी का विकास हुआ। मुंडले टीम द्वारा बताई गई यह विकास दर सीएसओ के उन आंकड़ों से ऊपर थी, जिसमें इन 10 साल के दौरान विकास दर को औसतन 7.5 फीसदी बताया गया था।
लेकिन, मुंडले टीम के आंकड़ों को वापस ले लिया गया और सीएसओ नए सिरे से बैक सीरीज़ जीडीपी के आंकड़े बनाने में जुट गया। और अब सीएसओ बता रहा है कि यूपीए शासन में देश की विकास दर औसतन 6.9 फीसदी रही। यह दर मोदी शासनकाल के 2015 से 2018 के दौरान 7.4 फीसदी औसत विकास दर से भी नीचे है।
इन आंकड़ों को पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने ’भद्दा मजाक’ करार दिया। वहीं रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाईवी रेड्डी ने कटाक्ष किया कि ‘दुनिया के अधिकतर हिस्सों में भविष्य अनिश्चित दिखता है, लेकिन भारत में तो गुजरा वक्त भी अनिश्चितता में लिपटा नजर आ रहा है।’
अर्थशास्त्रियों को यह समझाने में मशक्कत करनी पड़ी कि आंकड़ों के लिए सीएसओ ने जो तरीका अपनाया, उसमें कुछ भी गलत नहीं हो सकता है। यह भी हो सकता है कि इससे पहले जो तरीका अपनाया जाता था, वर्तमान तरीका उससे बेहतर हो। फिर भी, उन्होंने यह तो माना ही कि आंकड़ों के आकलन की प्रक्रिया को लेकर सीएसओ पूरी तरह से पारदर्शी नहीं रहा है और इस मुद्दे पर किसी स्वतंत्र पैनल को इसकी जांच करानी चाहिए।
बैक सीरीज आंकड़ों के साथ एक दिक्कत यह होती है कि दूसरे आर्थिक संकेतकों के देखे जाने पर आंकड़ों का तालमेल नजर नहीं आता। वास्तविक लोगों द्वारा ’वास्तविक’ अर्थव्यवस्था और आंकड़ों पर निर्भर सांख्यिकीविदों की राय के बीच इतना अंतर नहीं हो सकता कि वह तर्क को ही समाप्त कर दे।
इन आंकड़ों को लेकर असमंजस का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि कारोबारी अखबार बिज़नेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में सरकार से इन आंकड़ों को वापस लेने की मांग तक कर डाली। संपादकीय में लिखा गया कि आंकड़े असली अर्थव्यवस्था की तस्वीर नहीं पेश करते। इन आंकड़ों से सबसे बड़ा भ्रम यह पैदा हो जाएगा कि आखिर उन 10 सालों में असली तस्वीर थी क्या।
अर्थशास्त्री विवेक कौल ने कहा भी कि घरेलू कार और ट्रैक्टर की बिक्री, कोयले का इस्तेमाल वगैरह के संकेतक बैक सीरीज डाटा में असली तस्वीर नहीं पेश करते।
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इस दौरान मुंडले ने टीवी इंटरव्यू में साफ किया कि अर्थव्यवस्था में बदलाव वर्षों में आता है और रातों-रात बदलाव होना मुश्किल है। उन्होंने बताया कि उनके पैनल ने कई वर्षों के दौरान हुए बदलावों को आंकने के लिए इन्हें इस तरह विभाजित किया कि छोटे से छोटा बदलाव भी आंकड़ों से अछूता न रहे।
आंकड़ों की इस तरह हेराफेरी से अर्थशास्त्री काफी नाराज हैं। अशोक देसाई का तो यह तक कहना है कि हो सकता है सरकार ने ’नए अर्थशास्त्र’ का आविष्कार किया हो। उन्होंने कहा कि ’ऐसे देश में कुछ भी संभव है जहां बताया जा रहा हो कि वायुयान तीन सहस्राब्दि पहले भी बनाए जाते थे।’ देसाई ने यहां तक कहा कि सीएसओ ने भारतीय रिजर्व बैंक का बाजार के उपक्रम के तौर पर उपयोग किया है।
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