सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) के प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक, केंद्र और राज्यों में सभी सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, वेतन, भत्ते और अन्य सेवा शर्ते, केंद्र सरकार ही तय करेगी। जरूरी नहीं कि सेवा अवधि पांच साल ही रहेगी। सर्विस पीरियड भी वही निर्धारित करेगी। सूचना आयुक्त, चुनाव आयुक्तों के समकक्ष नहीं रह जाएंगे और उनकी स्वायत्तता भी पहले जैसी नहीं रह जाएगी। कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी ने आरोप लगाया कि सरकार किसी भी हद तक जाकर इस ऐतिहासिक कानून को पलट देने पर आमादा है। कांग्रेस नेता शशि थरूर का कहना है कि सरकार के संशोधनों ने सूचना के अधिकार को उन्मूलन का अधिकार बना दिया है।
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आम बोलचाल में आरटीआई कहा जाने वाला ये कानून 2005 में अस्तित्व में आया था और तबसे लेकर आज तक शायद ही कोई वर्ष रहा होगा जब इसे लेकर चर्चा, चिंता, विवाद और आलोचनाएं न हुई हों। आरटीआई के पहले दस साल अगर सूचना के अधिकार आंदोलन को नई दिशा, तत्परता और तेवर देने वाले साल थे, तो वे इन आरटीआई एक्टिविस्टों, सूचना के अधिकार आंदोलनकारियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए कठिन और जानलेवा वर्ष भी थे। सरकारें और अधिकारीगण सूचना देने के कार्य में अक्सर आनाकानी करते दिखे और महत्त्वपूर्ण और कथित गोपनीय सूचनाओं को सार्वजनिक करने के मकसद में एक्टिविस्टों और अधिवक्ताओं को ऐड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। वे हत्या और हमलों का शिकार बने। दूसरे कई तरीकों से उनका दमन किया गया।
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कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) नामक स्वयंसेवी संस्था के मुताबिक 2005 से अब तक देश में आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हिंसा और उत्पीड़न के 442 मामले सामने आ चुके हैं। इनमें से 84 एक्टिविस्ट देश के विभिन्न हिस्सों में इस दरम्यान मारे गए। संस्था ने भी संशोधनों को वापस लेने की मांग की है। ध्यान देने वाली बात ये भी है कि फरवरी 2014 में संसद से पास व्हिसलब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट को अभी केंद्र ने लागू नहीं किया है।
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कानून को कमजोर बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सूचना का अधिकार कानून अब तक देश का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय कानून बना रहा है। एक अनुमान के मुताबिक हर साल चालीस से साठ लाख अर्जियां इस कानून के तहत दायर की जाती हैं। इस तरह ये देश का ही नहीं दुनिया का सबसे व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होने वाला कानून है। इसके जरिए ऐसी कई अहम सूचनाएं पब्लिक डोमेन मतलब लोगों के सामने आई हैं जो अन्यथा यूं ही दबी रह जातीं। साथ ही कई सुधार कार्यक्रम शुरू हुए हैं और वंचितों को उनके अधिकार और सुविधाएं हासिल हुई हैं। आरटीआई ने सरकारी सिस्टम की निष्क्रियता, अकर्मण्यता और यथास्थितिवाद को भी भरसक तोड़ने की कोशिश की है।
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शायद आरटीआई कानून की ताकत ही थी जिससे घबराकर संशोधनों की प्रशासनिक कोशिशें 2006 से ही शुरू हो गई थीं। सरकारी फाइल पर अधिकारियों या मंत्रियों की नोटिंग्स को सूचना के दायरे से हटाने का प्रस्ताव था। लेकिन फाइल नोटिंग से ही आखिरकार ये पता चलता है कि अधिकारी ने फाइल पर क्या कार्रवाई या संस्तुति की है। जाहिर है भारी जनविरोध के बाद इसे वापस लेना पड़ा। 2009 में ‘तंग करने वाली' और ‘ओछी' आरटीआई अर्जियों को खारिज करने का प्रस्ताव आया। लेकिन ये चिन्हीकरण अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण था और इसके दुरुपयोग के खतरे भी थे। भारी विरोध हुआ तो ये प्रस्ताव भी ठंडे बस्ते में चला गया।
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2012 में महाराष्ट्र सरकार ने आरटीआई अर्जी में शब्द संख्या 150 करने का प्रस्ताव रखा, हालांकि ये कानून की भावना के विपरीत था। हालांकि बताया जाता है कि सूचना अधिकारी इसी शब्द संख्या के आधार पर अर्जियां स्वीकार या खारिज करते आ रहे हैं। 2017 में डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग ने प्रस्ताव दिया कि आरटीआई कार्यकर्ता की मौत हो जाने के बाद उसकी दायर सूचना स्वतः ही समाप्त मान ली जाएगी, यानी उस पर कार्रवाई बंद कर दी जाएगी, लेकिन भारी विरोध ने इस प्रस्ताव से भी किनारा करना पड़ा। एक और कोशिश ये हुई कि दूसरी अपील की अर्जी, उसे पहले से सुनते आ रहे सूचना आयुक्त से हटाकर दूसरे को दे दी जाए। इस पर खुद केंद्रीय सूचना आयोग से ऐतराज उठा था।
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वक्त के साथ आरटीआई से बचने के रास्ते निकाले गये हैं और सूचना संपन्नता के अधिकार से शुरु हुआ आंदोलन, सत्ता और प्रशासन के पेचीदा और चालाक गलियारों में फंसने भी लगा। वैसे आरटीआई की उपयोगिता सरकारों के सूचना को छिपाए रखने के रवैये, कुछ अधिकारियों कर्मचारियों की उदासीनता, कुछ लोगों में जागरूकता के अभाव, अधिकारों को लेकर आलस्य और अनभिज्ञता की वजह से घिसती ही जा रही है, लेकिन एक और संकट इसके अस्तित्व पर मंडरा रहा है। वो है निजी क्षेत्र का फैलता दायरा।
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जिस तेजी के साथ और कमोबेश योजनाबद्ध ढंग से शिक्षा, स्वास्थ्य, बीमा, बिजली, पानी, परिवहन, रोजगार आदि तमाम सेवाओं में निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जा रहा है उनमें अब आरटीआई जैसे अधिकारों का क्या मूल्य और क्या सार्थकता रह पाएगी, कहना कठिन है।
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और अब ये ताजा संशोधन जिन पर सरकार की दलीलें गले नहीं उतरती। नियुक्ति, वेतन, भत्ते, और सेवाकाल आदि व्यवस्थाओं पर विधायी शक्तियों से लैस सूचना आयोगों को अपनी कृपा और नियंत्रण के दायरे में लाने के बाद इस बात की क्या गारंटी है कि सूचना का अधिकार कानून प्रभावी रह पाएगा। अगर सरकार के रहम पर ही सूचना आयुक्तों को काम करना है तो फिर आरटीआई कानून की क्या जरूरत। जनता को सूचना जैसी पारदर्शिताओं से दूर रख कर आखिर सरकार क्या बताना चाहती है।
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