वसंत पंचमी का दिन खगोलशास्त्र और ज्योतिष के अनुसार, वह दिन है जब धरती की मध्यरेखा सूर्य के ठीक सामने आ जाती है। इसे शीतकाल के क्रमश: अंत की शुरुआत और पृथ्वी पर नई फसलों से भी जोड़ा जाता है। कवियों के अनुसार, वसंत पंचमी के बाद धरती तरह-तरह के नये फूलों, आम्र मंजरियों, फल के पेड़ों पर कलियों और नये पत्तों के सौंदर्य से एक ऐसी नवयौवना वधू बन जाती है जो सुगंध और नये जीवन की आहट से भरी है। इसीलिए इसे पहले सुवसंतक या मदनोत्सव भी कहा जाता था। मदनोत्सव युवा जोड़ों के मिलन, नाच, गाने और मस्ती मनाने के साथ पखवाड़े भर तक चलता था।
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वसंत के दिन प्रयाग में गंगा स्नान और पीले कपड़े पहनने, पीले फूल धारण करने और मीठे पीले चावलों का भोग लगाने का विधान है। पीला रंग सरसों के खेतों में भी बिखरा रहता है। किसान के लिए वह कीमती सोने से कम नहीं। यह फूल सरस्वती पूजा में चढ़ाते हैं, जिसका बंगाल में खास महत्व है। कविवर निराला का जन्म भी वसंत पंचमी को ही हुआ था। सरस्वती पर उनकी प्रसिद्ध रचना, "वर दे वीणावादिनी वर दे", आज भी गाई जाती है।
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वसंत मशहूर सूफी संत हजरत निजामुद्दीन को भी बहुत प्रिय था। उनके प्रिय शिष्य हजरत अमीर खुसरो ने दरगाह में सरसों के पीले फूलों के गुच्छे सहित वसंत मनाने की शुरुआत कर अपने बेटे की मौत से उदास पीर को प्रसन्न किया था। खुसरो की "आज रंग है री मां रंग है री" जैसी तथा, "सघन बन फूल उठी सरसों" सरीखी वसंत पर रची बंदिशें सात सौ साल बाद आज भी खासतौर से इस दिन दरगाह से संगीत की महफिलों तक में गाई जाती है।
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