डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा ऐसे समय में हो रही है, जब अमेरिका और भारत में ऐसे अभूतपूर्व संकट का दौर चल रहा है, जिसने दोनों देशों में लोकतंत्र की अवधारणा के लिए ही मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। अमेरिका में ‘हाउडी मोदी’ के बाद अब भारत में प्रस्तावित ‘नमस्ते ट्रंप’ के बावजूद वर्तमान में दोनों देशों के रिश्तों में उथल-पुथल है। अमेरिका एक सीमित व्यापार समझौते पर काम कर रहा है, जबकि भारत का रुख संरक्षणवादी है और उसकी अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है।
यूरोप के कई सहयोगी देशों, नाटो के रणनीतिक मित्र देशों और दक्षिण के देशों के साथ ट्रंप के रिश्तों में तनाव है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने सहयोगी देशों की सलाहों को लगातार नजरअंदाज किया है और अपने समर्थकों को ध्यान में रखकर ही वह नीतियों को तय करते हैं, काम करते हैं। भारत को लेकर उनके उद्देश्य अभी अस्पष्ट हैं।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने हिंदू राष्ट्रवाद का तेज उभार सुनिश्चित किया है। जैसा कि ‘मेजरिटेरियन स्टेट’ में उल्लेखित है, इस नई संकुचित व्यवस्था की चार विशेषताएं हैं, जो ट्रंप के अमेरिकी एजेंडे से मेल खाती हैं। वे हैंः लोकलुभावन नीतियां, राष्ट्रवाद, निरंकुशता और बहुसंख्यवाद। यह नया विस्तार सामाजिक तथ्यों, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष संस्थानों और कानून के शासन की अवहेलना करता है।
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अमेरिका में संस्थान मजबूत हैं और उनकी जड़ें कहीं गहरी हैं, लेकिन भारत में आज अल्पसंख्यक विरोधी बयानबाजी और हिंसा के साथ इतिहास के पुनर्लेखन की दलीलों को लोकप्रिय बनाया जा रहा है। बहुसंख्यक राष्ट्रवादियों की गहरी पैठ के कारण पहले से ही नाजुक स्थिति में पहुंच चुके लोकतंत्र के लिए आंतरिक और बाह्य शत्रुओं के साथ-साथ असहमति जताने वालों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार देने और इस्लामोफोबिया जैसे संकेतकों ने बड़ा खतरा उत्पन्न कर दिया है।
भारत में मुखर असहमति की विरासत रही है। 2019 के विनाशकारी नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनपीआर) और राष्ट्रीय जनसंख्यार जिस्टर (एनआरसी) और शत्रु संपत्ति अधिनियम (1968) जैसे मौजूदा कानूनों पर अमल के माध्यम से अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के अपमानजनक और असंवैधानिक कार्यों को चुनौती दी जा रही है। इस तरह के असंतोष पर सरकार ने जो प्रतिक्रिया दी है, वह साफ तौर पर तानाशाही रवैये को दिखाती है।
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देश में लगातार मुस्लिम समुदाय के लोगों, छात्रों, मीडियाकर्मियों, विद्वानों, बुद्धिजीवियों, वकीलों, कलाकारों को सरकारी अमले और हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है। राजनीतिक विरोध छिन्न-भिन्न हो चुका है और कई लोगों ने पाला बदलकर दक्षिणपंथ का दामन थाम लिया है, जैसा हाल में दिल्ली के चुनाव प्रचार के दौरान अरविंद केजरीवाल के मामले में दिखा।
ट्रंप गुजरात जाने वाले हैं। वही गुजरात जहां नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते 2002 में मुसलमानों के खिलाफ भयानक दंगे हुए और भारत को बहुसंख्यवादी देश में बदलने में जिसकी अहम भूमिका रही। ट्रंप के रास्ते में पड़ने वाली झुग्गियों और बदहाली को छिपाने के लिए वहां ऊंची दीवार खड़ी की जा रही है। दक्षिणपंथी हिंदुओं की पुरानी आकांक्षा को पूरा करते हुए भारत सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए को समाप्त कर दिया और जम्मू-कश्मीर को अस्थिर करने के लिए इसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटकर इनका शासन सीधे अपने हाथ में ले लिया।
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उसके बाद जम्मू-कश्मीर में हालात किस कदर अमानवीय हो गए हैं, इसे विभिन्न मीडिया के साथ-साथ आम लोगों ने भी रिकॉर्ड किया है जिनमें शामिल है, बच्चों, महिलाओं और बूढ़ों के साथ ज्यादती; लोगों को अवैध तरीके से हिरासत में रखना; नेताओं को नजरबंद करना, जीने की बुनियादी जरूरतों को नकारना; बोलने की आजादी, आंदोलन और असंतोष जाहिर करने पर रोक। सरकार बातों को गलत तरीके से भी पेश कर रही है और उसने धर्मस्थलों तक को बंद कर रखा है।
वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक कश्मीर के सेब उत्पादकों को जबर्दस्त “नुकसान” हुआ है और कश्मीर में उग्रवाद का दौर शुरू होने के बाद उनके लिए यह साल सबसे खराब साबित हो रहा है। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि कश्मीर में जिस तरह के अमानवीय हालात हैं, उसमें वहां सशस्त्र विद्रोह भड़क सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव के प्रवक्ता स्टीफन दुजारिक ने सभी पक्षों से संयम बरतने की अपील की है। 1990 के बाद के संघर्ष काल में कश्मीरियों को तरह-तरह की मुश्किल स्थितियों का सामना करना पड़ा है।
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सैनिकों को किसी गलती पर सजा से छूट देने वाले आफस्पा से लेकर विस्थापन, लोगों को जबरन लापता कर देने, यौन हिंसा, यातना, फर्जी मुठभेड़ और इस तरह मारे गए लोगों को अज्ञात से सामूहिक कब्रों में दफन कर देने जैसे हालात से गुजरना कश्मीरियों की नियति बन गई है। बेशक कश्मीरियों को आज के समय में सामाजिक प्रतिरोध के प्रदर्शन की इजाजत नहीं है, लेकिन कश्मीरियों के भविष्य को तय करने में कश्मीरियों की ही मुख्य भूमिका होनी चाहिए।
अब अमेरिका का रुख करें। 5 अगस्त के बाद राष्ट्रपति पद के कुछ उम्मीदवारों ने कश्मीर के हालात पर चिंता जताई। दक्षिण एशिया से जुड़े विभिन्न संगठनों ने कश्मीर में भारत की कार्रवाई की तीखी आलोचना की। 26 सितंबर, 2019 को विदेश मामलों से संबंधित अमेरिकी सीनेट की कमेटी ने कश्मीर में मानवीय संकट को दूर करने की अपील की। समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारत सरकार से अपील की थी कि वह कश्मीर में दूरसंचार और इंटरनेट सेवाओं को पूरी तरह बहाल करे, कर्फ्यू हटाए और संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद से गिरफ्तार लोगों को रिहा किया जाए।
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22 अक्तूबर को विदेश मामलों से संबंधित अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की समिति ने ब्रैड शर्मन की अध्यक्षता में कश्मीर पर बैठक की। 14 नवंबर को टॉम लैंटोस मानवाधिकार आयोग की बैठक भी कश्मीर के ही मुद्दे पर हुई। 21 नवंबर को कांग्रेस की सदस्य राशिदा तैयब ने हाउस रिजॉल्यूशन 724 पेश किया जिसमें जम्मू-कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार हनन की निंदा की गई और कश्मीरियों के आत्म निर्णय की मांग का समर्थन किया गया। 6 दिसंबर को, कांग्रेस की प्रमिला जयपाल ने हाउस रिजॉल्यूशन 745 पेश किया, जिसमें जम्मू और कश्मीर में संचार सेवा बहाल करने और सामूहिक हिरासत पर रोक लगाने का भारत सरकार से अनुरोध किया गया। इसके साथ ही कहा गया कि भारत को लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिए।
बड़ा सवाल ये हा कि इन सब पर राष्ट्रपति ट्रंप की प्रतिक्रिया आखिर क्या है? कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण से बेशक इस मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता बढ़ी है और कई मौकों पर भारत की निंदा भी की गई, लेकिन अमेरिका की प्राथमिकता इतर है। अमेरिका की इच्छा भारत का इस्तेमाल चीन के खिलाफ दीवार की तरह करने और यहां के बाजार में पैठ बनाने की है। अमेरिका को परवाह नहीं कि उसके समर्थन के कारण भारत तेजी से बहुसंख्यकवादी देश बनता जा रहा है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने एक बार यह संकेत दिया था कि मोदी ने उनसे कश्मीर पर मध्यस्थता की इच्छा जताई है जिसका भारत सरकार खंडन कर चुकी है। मोदी और ट्रंप दुनिया भर में बढ़ रहे दक्षिणपंथी नेताओं में हैं जो तार्किक असहमति को स्वीकार नहीं करते। क्या उनसे उम्मीद की जा सकती है कि वे कश्मीरियों को सबसे अहम किरदार मानते हुए कश्मीर मसले का हल निकालने में मददगार होंगे?
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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