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गैर-कानूनी तरीके से अफ्रीकी चीतों को भारत में बसाने की है योजना, लेकिन सरकार के लिए सब माफ

भारत ने नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से अफ्रीकी चीते मंगाने की पूरी तैयारी कर ली है। लेकिन इससे वन्यजीव संरक्षणवादियों में नाराजगी है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

भारत ने नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से अफ्रीकी चीते मंगाने की पूरी तैयारी कर ली है। लेकिन इससे वन्यजीव संरक्षणवादियों में नाराजगी है। कुछ खबरों के मुताबिक, शायद ये चीते 15 अगस्त से पहले आ जाएं जिससे आजादी के 75वें साल के जश्न को और बेहतर बनाया जा सके।

सरकार ने भारत में चीतों के लिए 2021 में एक कार्ययोजना शुरू की जिसके तहत मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में 748 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की पहचान की गई। कार्ययोजना में कहा गया कि यहां शुरू में 21 चीते रखे जा सकेंगे और अगले 30-40 साल में यहां 36 चीते रखे जा सकेंगे जिसके लिए कूनो के 3,200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को चीतों के रहने के लिहाज से सुरक्षित कर लिया जाएगा। कूनो 6,800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।

हैरानी की बात है कि भारतीय वन्यजीव संस्थान से जुड़े उन्हीं लोगों ने इससे पहले भारत में चीतों को ‘फिर से बसाने’ की संभावनाओं पर 2010 में रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें दावा किया गया था कि कूनो वन्यजीव अभयारण्य के 347 वर्ग किलोमीटर में 27 चीते रह सकते हैं और इसके पूरे 3,200 किलोमीटर क्षेत्र में 100 चीते जीवित रह सकते हैं। साफ है, दोनों रिपोर्टों में इस बात को लेकर विसंगतियां हैं कि कूनो में कितने चीते रह सकते हैं। रिपोर्ट तैयार करने वालों ने कूनो में रह सकने वाले चीतों की संख्या में बदलाव किया। लेकिन ऐसा क्यों किया, इसका कोई कारण नहीं बताया।

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चीता खास तरह के माहौल में रहते हैं। उन्हें खास तरह के रहवास की जरूरत होती है जिसमें वे सुरक्षित रूप से प्रजनन कर सकें, छिप सकें और शिकार कर सकें। जो चीते यहां लाए जा रहे हैं, वे बंद प्रजनन सुविधाओं में रहे और वे जंगल में प्राकृतिक तौर पर प्रशिक्षित शिकारी नहीं। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए कूनो नेशनल पार्क में पेड़ों और झाड़ियों को हटाकर घास के मैदान ‘बनाए’ गए हैं।

इस देश में चीतों को बसाने में यह एक बड़ी बाधा है। भारत के अधिकांश संरक्षित क्षेत्रों को पहाड़ी इलाकों में विकसित किया गया था जो खेती के लिए उपयुकत नहीं थे और उन्हें संरक्षित क्षेत्ररों के रूप में निर्धारित करने से पहले भी मनुष्य उनमें कुछ नहीं करते थे और उन्हें मोटे तौर पर अविकसित ही छोड़ दिया गया था।

इसलिए, यह सवाल बनता है कि अतिरिक्त 15 चीतों को बसाने के लिए क्या कूनो में 3,200 वर्ग किलोमीटर के संभावित चीता क्षेत्र से 169 गांवों को स्थानांतरित किया जाएगा? कार्ययोजना के अनुसार, कूनो के साथ ही 3-4 और अभयारण्यों में भी कम संख्या में चीते रखे जाएंगे ताकि ये कूनो में रह रही चीतों की आबादी के लिए अनुवांशिक रूप से मददगार हो सकें। जरूरत के हिसाब से प्रजनन के लिए इन्हें आपस में मिलाया जाएगा। इसके साथ ही समय-समय पर अफ्रीका से और चीते भी लाए जाएंगे।

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लंबे-चौड़े दावे और जोखिम हैं बड़े

ऐसे में मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि देश में कुछ चीतों को बसाने के लिए इतनी मशक्कत क्यों की जा रही है? इसकी दो वजहें बताई गई हैं। पहली, ‘खोए हुए गौरव’ को वापस पाना- माना जाता है कि भारत में लगभग 70 साल पहले चीते खत्म हो गए थे। हालांकि, भारत में चीतों के विलुप्त होने के ठीक-ठीक समय के बारे में स्पष्टता नहीं है। लगभग सभी साक्षष्य लिखित ऐतिहासिक अभिलेखों के रूप में हैं।

राजा-महाराजाओं ने बड़े पैमाने पर जंगली जानवर पाल रखे थे जिनमें तेंदुए (पैंथेरा पार्डस) भी थे। लेकिन इनसे मिलते-जुलते चीतों के बारे में जो ऐतिहासिक रिकॉर्ड है, उसकी सटीकता को तय करना मुश्किल है। संभव है कि हमने चीतों को कथित रूप से पहले ही खो दिया हो क्योंकि राजस्थान के इतिहास में 250 साल के दौरान जंगली चीते के होने का कोई निर्विवाद रिकॉर्ड नहीं मिलता जबकि यह ऐसा राज्य है जो चीतों के लिए सबसे उपयुक्त होता।

दूसरा दावा यह है कि चीतों के आने से घास के मैदानों पर निर्भर जीव-जंतुओं को बढ़ावा मिलेगा। विडंबना यह है कि कूनो नेशनल पार्क में घास के मैदान विकसित करने के लिए पेड़ों और झाड़ियों को हटाया जा रहा है। कूनो में घास के छोटे-छोटे मैदान हैं जो घने जंगलों वाली पहाड़ियों से घिरे हुए हैं और ये पहाड़ियां तेंदुओं से भरी हैं। कार्ययोजना के अनुसार, वहां प्रति 100 किलोमीटर क्षेत्र में 9 तेंदुए हैं। यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि चीता इस बेहद फुर्तीले, मौकापरस्त और माहिर शिकारी से कैसे अपना बचाव करेगा।

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कोई जवाबदेही नहीं

योजना के मुताबिक, 30-40 वर्षों में चीतों की संख्या को 36 करने का लक्ष्य है। महज 36 चीतों के लिए तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करते हुए 3,200 वर्ग किलोमीटर इलाके को सुरक्षित किया जाना है। इसकी तुलना में, पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों को बचाने का कार्यक्रम देखें। यह योजना यहां 7 बाघों को रखने से शुरू हुआ और 12-13 वर्षों में इनकी आबादी बढ़कर 70 हो चुकी है। ये बाघ लगभग 800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रह रहे हैं, यानी पन्ना टाइगर रिजर्व के कुल क्षेत्रफल (1578 वर्ग किलोमीटर) के आधे इलाके में।

इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि कूनो कभी बाघों का घर हुआ करता था और यहां 3,200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 350 से अधिक बाघ रह सकते हैं, यानी मध्य प्रदेश में बाघों की कुल आबादी का 70 फीसद। मध्य प्रदेश में बाघ अभयारण्यों का कुल इलाका 10,208 वर्ग किलोमीटर है जिसमें बफर जोन और गांव भी हैं और इसके मुकाबले 3,200 वर्ग किलोमीटर कितना बड़ा इलाका है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है और इतने बड़े इलाके को सिर्फ 36 चीतों के लिए सुरक्षित किया जा रहा है!

योजना यह है कि एक बार जब चीता यहां के माहौल में रच-बस जाएं तो यहां उन्हें बाघों और शेरों के साथ रखा जाएगा। लेकिन इसके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है। चीता कार्ययोजना को बड़ी सावधानी से तैयार किया गया है और इसमें इस तरह के प्रावधान किए गए हैं कि खराब से खराब स्थिति में भी परियोजना को तकनीकी रूप से विफल नहीं माना जा सके। सफलता का मानदंड इस तरह तय किया गया है कि अगर कुल रखे गए चीतों में से आधे भी बच जाते हैं तो परियोजना को सफल माना जाएगा। परियोजना तभी विफल मानी जाएगी जब सभी चीतों की पांच साल के भीतर मृत्यु हो जाए, और कार्ययोजना में कहा गया है कि बीच-बीच में अफ्रीका से और चीते लाए जाते रहेंगे। ऐसी स्थिति में संबंधित विशेषज्ञों को जवाबदेह ठहराना बहुत ही मुश्किल होगा।

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कई हैं शंकाएं

कूनो राष्ट्रीय उद्यान को पहले एशियाई शेरों के लिए विकसित किया गया था लेकिन गुजरात इन शेरों को दूसरे राज्यों में भेजना नहीं चाहता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि चीता संरक्षण के नाम पर गुजरात की ताकतवर सियासी लॉबी ने यह सुनिश्चित कर लिया कि अब गुजरात को एशियाई शेर कूनो भेजने नहीं पड़ेंगे?

एशियाई चीता (एसिनोनिक्स जुबेटस वेनाटिकस) का प्राकृतिक क्षेत्र ईरान है लेकिन वहां भी इनकी संख्या बेहद कम है। ईरान अकेला देश है जहां इस प्रजाति के चीते हैं। इसलिए अफ्रीकी चीते लाए जा रहे हैं। इसलिए यह कहने की जगह कि चीतों की आबादी को ‘बहाल’ किया जा रहा है, यह कहना सही होगा कि इन चीतों को पहली बार भारत में लाया जा रहा है क्योंकि अफ्रीका से लाए जा रहे चीतों की प्रजाति अलग है।

कानूनी रूप से भारत में विदेशी प्रजातियों के जानवर नहीं लाए जा सकते, बेशक वे आनुवंशिक रूप से अपनी भारतीय उप-प्रजातियों के करीब हों। इसके साथ ही उन्हें कैद में रखकर जंगली शिकार उपलब्ध कराना भी अवैध है। चूंकि सरकार इस परियोजना का समर्थन कर रही है, इसलिए इस तरह की गैर-कानूनी गतिविधि भी तूल नहीं पकड़ रही। चीता के लिए बिछाए जा रहे कालीन के नीचे इस तरह की बातें दब गई हैं।

(लेखक धर्मेंद्र खंडाल रणथंभौर में गैर लाभकारी संगठन टाइगर वॉच से 20 वर्षों से कंजरवेशन बायोलॉजिस्ट के तौर पर जुड़े हुए हैं।)

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