बुधवार को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में कासगंज हिंसा को लेकर एक स्वतंत्र जांच रिपोर्ट जारी की गई। इस रिपोर्ट में पूरी घटना के दौरान और बाद में पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं।
गणतंत्र दिवस यानी 26 जनवरी, 2018 को दिल्ली से 220 किलोमीटर दूर उतर प्रदेश के कासगंज शहर मे सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा था। हिंसा और आगजनी के अलावा फायरिंग भी हुई, जिसमें गोली लगने से एक शख्स की मौत हो गई। पुलिस के मुताबिक, उस दिन जब कुछ हिंदू युवक मोटरसाइिकल पर सवार होकर तिरंगा यात्रा निकाल रहे थे तो कुछ मुसलमानों ने उस यात्रा में बाधा पहुंचाई और इसके बाद हिंसा भड़क गई। इसके बाद पुलिस ने 28 मुसलमानों को आरोपी बनाया और दो हफ्ते के भीतर अधिकतर को गिरफ्तार भी कर लिया। ये स्वतंत्र जांच रिपोर्ट कहती है कि पुलिस ने इस मामले में हिंसा के लिए जिम्मेदार हिंदुओं को बचाव किया और बेगुनाह मुसलमानों को फंसा दिया।
जांच रिपोर्ट कहती है कि मोटरसाइकल रैली में शामिल कई लोग सीएम योगी आदित्यानाथ की पार्टी बीजेपी से जुड़े थे। कई के फ़ेसबुक पेज से जाहिर होता है कि वे मुस्लिम विरोधी हैं और हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक कट्टरता का व्यवहार करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि उस मोटरसाइिकल रैली में भाग लेने वाले लोगों की राजनीतिक और संगठनात्मक पृष्टभूमि की जांच करने की कोशिश नही की गई।
एफआईआर में चार मुसलमानों को नामजद करने के कुछ मिनट बाद ही 24 और मुसलमानों के नाम दे दिए गए। इन 24 मुसलमानों के नाम आखिरकार कहां से और कैसे मिले, यह नहीं बताया गया। आगे चलकर इन मुसलमानों में से ज्यादातर को मृतक 19 वर्षीय चंदन गुप्ता की हत्या का आरोपी बना दिया गया।
रिपोर्ट में बताया गया है कि तमाम पुलिसवालों और चश्मदीद गवाहों ने अपने बयान में कहा कि रैली में शामिल लोगों ने गोलीबारी की और मुसलमानो के घरों, दुकानों और मस्जिदों में आगज़नी और तोड़-फोड़ की गई। लेकिन उन्हें गिरफ्तार करना तो दूर उनकी जांच-पड़ताल तक नही की गई।
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रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश सरकार के सामने 6 मांगें रखी गई हैं:
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