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भूमि सुधारों और भूमिहीनों की उपेक्षा से बढ़ता जा रहा है संकट

एक समय हमारे देश में भूमि सुधार का कार्यक्रम मजबूती से आगे बढ़ रहा था और सीलिंग या हदबंदी कानून के अन्तर्गत भूमिहीनों में वितरण के लिए बहुत सी भूमि चिह्नित हुई थी। फिर एक समय ऐसा भी आया जब भूमिहीनों के भूमि हकों को भुला ही दिया गया।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया भूमि सुधारों और भूमिहीनों की उपेक्षा

हाल के समय में हमारे देश की विकास प्रक्रियाओं की एक बहुत बड़ी विसंगति यह रही है कि भूमि सुधारों के एजेंडे को और ग्रामीण भूमिहीन मजदूरों के हितों को बुरी तरह भुला दिया गया है। किसानों के प्रति नीतियां चाहे अनुचित रही हों, पर उनकी समस्याओं की कम से कम चर्चा तो हुई है, पर भूमिहीन कृषि मजदूरों को तो लगभग पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया है। यदि इन विषयों पर केन्द्र सरकार की ओर से महत्त्वपूर्ण निर्देश जारी किए जाएं तो इससे राज्य सरकारों की सक्रियता बढ़ सकती थी, पर केन्द्र सरकार ने तो जैसे इन महत्त्वपूर्ण विषयों की ओर से मुंह मोड़ लिया है।

लेकिन मुंह मोड़ लेने से कोई समस्या दूर नहीं हो जाती है। इस बारे में व्यापक मान्यता है कि हमारे गांवों में सबसे अधिक निर्धनता उन परिवारों में हैं जो भूमिहीन है। ऐसे परिवारों की संख्या बहुत अधिक है और वह बढ़ रही है। वे कृषि मजदूरी, छिटपुट अन्य मजदूरी और प्रवासी मजदूरी पर आश्रित हैं। कुछ समय पहले मनरेगा के आगमन और अपेक्षाकृत अच्छे क्रियान्वयन से उनके जीवन में जो एक नई उम्मीद आ गई थी, हाल के समय में मनरेगा को कम महत्त्व देने से यह उम्मीद भी धूमिल हो गई है।

यहां तक कि इनमें से अनेक परिवारों के आवास भूमि अधिकार भी सुरक्षित नहीं हैं जिसके कारण वे बहुत अनिश्चय की स्थिति में रहते हैं। इस अनिश्चित स्थिति के कारण वे शोषण सहने के दबाव में भी रहते हैं। भूमि के बिना गांव में उनकी और भावी पीढ़ियों की स्थिति बहुत कमजोर हो रही है।

एक समय हमारे देश में भूमि सुधार का कार्यक्रम मजबूती से आगे बढ़ रहा था और सीलिंग या हदबंदी कानून के अन्तर्गत भूमिहीनों में वितरण के लिए बहुत सी भूमि चिह्नित हुई थी। पर अनेक कारणों से यह कार्यक्रम अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाया। फिर एक समय ऐसा भी आया जब भूमिहीनों के भूमि हकों को भुला ही दिया गया।

भूमि अधिकारों की अवहेलना होने पर अन्य उपायों से महज अल्पकालीन राहत भी दी जा सकती है। दूसरी ओर कुछ कृषि योग्य भूमि मिलने से और आवास भूमि का हक सुनिश्चित होने से भूमिहीन परिवारों की आजीविका और आर्थिक-सामाजिक स्थिति टिकाऊ तौर पर मजूबत होती है।

इसके अतिरिक्त भूमि सुधार कार्यक्रम में और भी बहुत से महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कार्य किया जा सकता है जिनमें से कुछ आधी-अधूरी स्थिति में पड़े हैं। इसका एक उदाहरण है वन अधिकार कानून का अधूरा एजेंडा। आवास भूमि सुनिश्चित करने के प्रयास भी आधी-अधूरी स्थिति में छोड़ दिए गए हैं।

भूमि सुधारों को पटरी पर लाने का एक उपाय यह है कि 11 अक्टूबर, 2012 को यूपीए सरकार ने एकता परिषद सहित और अनेक जन आंदोलनों से जिस 10-सूत्री भूमि सुधार कार्यक्रम पर समझौता किया था, उसके आधार पर आगे बढ़ा जाए। उस समय देश भर के सैंकड़ों संगठनों के जन सत्याग्रह कार्यक्रम के अंतर्गत लगभग 1 लाख भूमिहीन आगरा में एकत्र हुए थे और वहां केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि और ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने उनसे सहानुभूतिपूर्ण माहौल में बातचीत कर इस समझौते की राह निकाली थी।

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इस समझौते पर पिछले चार वर्षों के दौरान प्रगति न होने के कारण अब एकता परिषद और सहयोगी संगठन फिर से जन आंदोलन की तैयारी कर रहे हैं जिसमें पिछले 10-सूत्री कार्यक्रम के आधार पर ही एक नया 6-सूत्री मांग पत्र तैयार किया गया है। इसमें अनुसूचित क्षेत्रों के लिए पेसा कानून मजबूत करने, भूमि सुधार परिषद की स्थापना और सक्रियता, भूमि से जुडे़ मकदमों पर शीघ्र निर्णय लेने, महिलाओं के भूमि अधिकारों को मान्यता देने, ग्रामीण आवासीय भूमि सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाने और क्रियान्वित करने, राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति तैयार करने और क्रियान्वित करने जैसी मांगे रखी गई हैं जिन पर सही भावना से कार्य हो तो ग्रामीण निर्धनता दूर करने और निर्धन परिवारों की हकदारी की दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है।

इन मांगों और इनसे जुड़े प्रयासों को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। इसके अतिरिक्त कृषि मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए उनके लिए अलग से कानून बनाना चाहिए और साथ में मनरेगा के क्रियान्वयन में भी महत्त्वपूर्ण सुधार होने चाहिए।

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