अगस्त 2018 में आई नाबार्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि देश भर के 52 फीसदी से ज्यादा किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। हर किसान पर एक लाख रुपए से ज्यादा का कर्ज है। एनएसएसओ का कहना है कि किसानों पर 58.4 फीसदी संस्थागत कर्ज है, वहीं 41.6 फीसदी गैर संस्थागत कर्ज है। सरकारों की ओर से की जाने वाली कर्जमाफी में संस्थागत कर्ज ही शामिल किया जाता है, जिसमें केवल फसली कर्ज के रूप में खाद और बीज जैसी चीजों के लिए लिया गया कर्ज माफ किया जाता है।
गैर संस्थागत कर्ज के आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के अनेक वादों के बावजूद छोटे किसानों को किसान कर्ज देने की एक भी योजना कारगर साबित नहीं हुई। आज भी बड़ी संख्या में इन छोटे किसानों को महाजनों, व्यापारियों, नेताओं और बड़े किसानों पर आश्रित रहना पड़ता है, जो मनमाने ब्याज दर पर पैसा देते हैं। छोटे और मध्यम किसान संस्थागत और गैर संस्थागत कर्ज में इस तरह डूबे हैं कि उनके लिए खेती-किसानी करना आसान नहीं रह गया है।
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देश के किसी न किसी भाग में आए दिन आंधी-तूफान, चक्रवात, बाढ़, ओले गिरने, बेमौसम बारिश से बड़े पैमाने पर फसलों को नुकसान होता है। किसान कभी साल दर साल सूखा झेलता है तो कभी बाढ़ की मुसीबत। इस स्थिति से निपटने के लिए फसल बीमा योजना एक बेहतर विकल्प हो सकती है। बीजेपी ने पिछले चुनाव में एक संपूर्ण बीमा योजना लाने का वादा किया था, लेकिन बदले में दिया प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, जिसका लाभ किसानों के बजाय निजी कंपनियों को मिला। किसानों की लड़ाई लड़ रहे पत्रकार पी साईंनाथ का आरोप है कि इस बीमा योजना में राफेल से भी बड़ा घोटाला हुआ है। बीमा कंपनियां देश के महज एक जिले से बीमा राशि के रूप में करीब 173 करोड़ रुपए जुटाती हैं, जबकि बीमा के रूप में वहां के किसानों को बहुत कम राशि दी जाती है।
नवंबर 2018 में सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के हवाले से द वायर में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक बीमा कंपनियों के मुनाफे में 350 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वहीं बीमा कवर करने वाले किसानों की संख्या में 0.42 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यह आंकड़े इस योजना में मची लूट की गवाही देते हैं। वैसे जलवायु जोखिम प्रबंधन की रिपोर्ट की मानें तो 70 फीसदी किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की जानकारी ही नहीं है। मात्र 30 फीसदी किसानों को ही इस बीमा योजना के बारे में पता था, जिसमें केवल 12 फीसदी लोगों ने बीमा कराया था।
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फसल उत्पादन को केन्द्र में रखकर सरकारें अगर आयात-निर्यात नीति बनाएं, तो काफी कुछ स्थितियों में सुधार हो सकता है। जिन फसलों का उत्पादन अधिक होता है उनका आयात न किया जाए। अपनी जरूरत भर रखने से अधिक जितना हो सके उसका निर्यात करने पर जोर दिया जाए। लेकिन मोदी सरकार बार-बार आयात-निर्यात नीतियों के जरिए भी किसानों को धक्का पहुंचाती रही हैं।
बात चाहे 2014 में आलू पर न्यूनतम निर्यात मूल्य की सीमा की हो या फिर पिछले साल गन्ने की बंपर पैदावार के बावजूद पाकिस्तान से चीनी का किया गया आयात हो, मोदी सरकार ने अपनी नीति से किसान को नुकसान ही पहुंचाया है। नतीजा ये हुआ कि 2013-14 में कृषि उपज का निर्यात 4300 करोड़ डॉलर से घटकर 2016-17 में 3300 करोड़ डॉलर पर पहुंच गया। इसी के साथ अरहर, चना, गेहूं, चीनी, दूध पाउडर जैसी वस्तुओं के आयात से किसानों की फसलों के दाम गिर गए।
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पिछले वर्षों में कृषि उत्पादकता लगातार घटी है। इसकी एक वजह प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से अधिक दोहन भी है। भूजल का भंडार कम होता जा रहा है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल से जमीन की उपजाऊ क्षमता कम हो रही है। जहां फसलों की सिंचाई नलकूपों से होती है, वहां के हालात और भयावह स्थिति में पहुंच चुके हैं। यहां धान उत्पादन में अग्रणी पंजाब का उदाहरण दिया जा सकता है, जहां कई जिले डार्क जोन में जा चुके हैं। दूसरे राज्यों में भी हालात कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। कई राज्यों में ऐसी फसलों को ज्यादा महत्व दिया जाता है जिनमें पानी की कई गुना ज्यादा खपत होती है।
भूजल का संरक्षण और मिट्टी की सेहत सुधारना आज कृषि उत्पादकता की बड़ी जरूरत है। इसका समाधान किए बिना न पैदावार बढ़ेगी न खेती किसानी टिकाऊ होगी। प्रयास ये होना चाहिए कि उन फसलों को उतना ही उगाया जाए जितनी देश को जरूरत है। उसमें भी उन किस्मों को ज्यादा तरजीह दी जाए, जिनका कम पानी में भी उत्पादन किया जा सकता है। इसमें धान, केला, गन्ना, कपास आदि फसलों को शामिल किया जा सकता है। इसी तरह उन पौधों का पौधरापण भी न किया जाए जो बड़ी मात्रा में पानी सोखते हैं। उत्तर प्रदेश सहित अनेक राज्यों में बड़े पैमाने पर यूकेलिप्टस और पापुलर की खेती होती है, जो इतना पानी सोखते हैं कि आसपास किसी फसल को होने नहीं देते। इसके बावजूद इनकी अंधाधुंध खेती हो रही है। इनकी बड़े पैमाने पर नर्सरियां चल रही हैं।
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देश में प्रति एकड़ पैदावार दूसरे देशों के मुकाबले काफी कम है। ऐसे में अगर लागत ऊंची होती है तो कम उत्पादन दोहरी समस्या बन जाता है। लागत के अनुपात में कृषि उत्पादों के मूल्य में कमी हो रही है। उर्वरक (यूरिया, सुपर, डीएपी, एनपीके आदि) बीज, कीटनाशक, दवाएं और परिवहन लागत कई गुना बढ़ चुकी है। हर साल खेती के पीक मौसम में डीएपी का संकट पैदा कर दिया जाता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण बताता है कि देश के 40 फीसदी किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। कभी कृषि प्रधान देश कहे जाने वाले भारत में कठिन हो चुकी खेती की प्रमुख वजह विकास के नाम पर आकार दी जाने वाली आधारभूत संरचना है, जो खेती और किसान विरोधी है।
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देशी कारपोरेट से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक ने किसानों के बीजों पर कब्जा कर लिया है। हाइब्रिड फसलों के नाम पर किसानों के सामने महंगे बीज का संकट खड़ा हो गया है। ये बीज उनकी परंपरागत खेती-किसानी की राह में बाधा हैं। किसानों से परंपरागत देशी बीज छीनने और हाइब्रिड फसलों के बीजों पर आश्रित बनाने का मतलब उनका गुलाम बनाना है। विशेषज्ञ नरसिंह दयाल कहते हैं, “हमारे अधिकांश विज्ञानियों ने अपूर्ण और अधकचरे विज्ञान पर आधारित जीएम टेक्नॉजी के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ से अनभिज्ञ होने के कारण चुप्पी साध ली है। मीडिया और राजनेता इस टेक्नोलॉजी से बिल्कुल अनजान हैं। जीएम बीजों के संचालन, नियमन और प्रबंधन के लिए कोई सक्षम और स्वतंत्र निकाय का गठन सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद अभी भी अधर में लटका हुआ है। लेकिन जीएम फसलों की खेती को हमारे देश में एक महामारी की तरह फैलाया जा रहा है।”
सरकारी तंत्र और कृषि वैज्ञानिकों का एक तबका खाद्य सुरक्षा के नाम पर जीएम टेक्नोलॉजी के विकास का साथ दे रहा है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त रहेगा कि इस तकनीक के विकास के लिए नेताओं, अफसरों, कृषि बायोटेक कंपनियों और जीन इंजीनियरों का एक पूरा गिरोह काम कर रहा है, जो देश की कृषि को कंपनियों का चारागाह बनाने पर तुला है। हरित क्रांति से कुछ समय के लिए खाद्यान्न की पैदावार अवश्य बढ़ी, लेकिन यह भी सच है कि उसने परंपरागत कृषि प्रणाली पर दूरगामी नकारात्मक प्रभाव छोड़ा।
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