दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनावों में एनएसयूआई की जीत ने साबित कर दिया है कि देश के युवाओं और छात्रों का अब नफरत की सियासत से मोह भंग होना शुरु हो गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में एनएसयूआई और पिछले सप्ताह जेएनयू में लेफ्ट यूनिटी की जीत से जो संदेश निकलता है, वह यह है कि यंग इंडिया या फिर कहें कि ‘न्यू इंडिया’ ने अपना फैसला सुना दिया है।
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) के चुनाव में आरएसएस और बीजेपी की छात्र शाखा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को अपनी जीत की आहट संभवत: पहसे से सुनाई दे रही थी, इसीलिए कुछ-कुछ बहाने बनाकर एनएसयूआई के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार रॉकी तुसीद का नामांकन ही खारिज करवा दिया गया था। इस नाटकीयता के बाद दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर तुसीद को चुनाव लड़ने का मौका मिला और उन्होंने 16 हजार से ज्यादा वोट हासिल किए। 2012 के बाद ये पहला मौका था जब डूसू अध्यक्ष का पद एनएसयूआई ने जीता। एनएसयूआई के ही कुणाल सहरावत ने भी 16 हजार से ज्यादा वोट हासिल कर उपाध्यक्ष पद जीता।
शुरुआती रुझानों में संयुक्त सचिव पद भी एनएसयूआई के खाते में ही गया था, लेकिन कई बार हुई मतगणना के बाद आखिरकार यह पद एबीवीपी के हिस्से में आया। एनएसयूआई ने इस पद के नतीजे को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती देने की बात कही है।
इससे पहले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी भगवा को खारिज करते हुए लेफ्ट यूनिटी को विजयी बनाया था। उधर त्रिपुरा से भी यही खबर है कि एसएफआई ने राज्य के 22 सरकारी कालेजों के छात्र संघ चुनावों में शानदार जीत हासिल की है। बीजेपी शासित राजस्थान में भी विद्यार्थी परिषद को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा और हाल ही में संपन्न राजस्थान विश्वविद्यालय के चुनावों में चार में से तीन मुख्य सीटें इसके हाथ से निकल गयीं। वहां भी एनएसयूआई का प्रदर्शन शानदार रहा।
बीजेपी शासित एक और राज्य उत्तराखंड में भी छात्रों और युवाओं ने आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा का ध्वज उठाए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नकार दिया। देहरादून के महादेवी कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय में छात्र संघ की चारों सीटों पर एनएसयूआई ने क्लीन स्वीप किया और एबीवीपी का सूपड़ा साफ हो गया। बीते सात साल में ये पहला मौका था जब इस कॉलेज में छात्रों ने एबीवीपी को बाहर का रास्ता दिखा दिया। उधर, पंजाब विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनावों में भी एनएसयूआई ने तीनों मुख्य सीटें अपने कब्जे में की और एबीवीपी महज एक सीट से ही मुंह ताकती रह गयी।
पूर्वोत्तर से लेकर उत्तर भारत और राजधानी दिल्ली तक में संघ और बीजेपी पोषित छात्र संघ की हार से साफ हो गया है कि युवाओं ने अब उस राजनीति को खारिज करने की शुरुआत कर दी है, जो सिर्फ ऐसे सपने दिखाती है जिसका यथार्थ से कुछ लेना देना नहीं होता। इन सभी जीत के यह अर्थ भी हैं कि युवा उस वादे से निराश हैं जिसमें हर साल एक करोड़ रोजगार या नौकरी देना का झूठा सपना था। 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दो नहीं, कई प्रचार सभाओं में कहा था कि अगर उनकी सरकार आएगी तो एक करोड़ नौकरियां दी जाएंगी।
Published: 13 Sep 2017, 8:36 PM IST
लेकिन 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में साफ तौर पर लिखा है कि रोजगार क्षेत्र में वृद्धि बेहद निराशाजनक रही है। सर्वे में बेरोजगारी की दर 5 फीसदी बतायी गयी है, जो कि 2013-14 के मुकाबले अधिक है। सर्वे में फॉर्मल और इनफॉर्मल दोनों क्षेत्रों को शामिल किया गया था।
इतना ही नहीं श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक जुलाई 2014 से दिसंबर 2016 के बीत आठ बड़े सेक्टरों (मैन्यूफैक्चरिंग, ट्रेड, कंस्ट्रक्शन, एजुकेश, हेल्थ, इंफार्मेशन, टेक्नालॉजी, ट्रांसपोर्ट और अकोमोडेशन एंड रेस्त्रां) में 6,41000 नौकरियां मिलीं। इन्हीं सेक्टर में अगर जुलाई 2011 से दिसंबर 2013 के आंकड़े देखें तो उस दौरान देश में 12,80000 नौकरियां मिली थीं।
Published: 13 Sep 2017, 8:36 PM IST
इतना ही नहीं इंडियास्पेंड के एक विश्लेषण के मुताबिक बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए की सरकार के दौरान प्रधानमंत्री रोजगार गारंटी मिशन के तहत दी जाने वाली नौकरियों में भी भारी कमी आयी है। 2014 के पहले के तीन सालों के मुकाबले इस मिशन के तहत नौकरियों में 39 फीसदी की कमी है।
यह वह आंकड़े हैं जिन्हें देखने के बाद देश के युवा खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं। छात्रों को अपना भविष्य साफ नजर नहीं आ रहा है। ऐसे में यंग इंडिया ने संदेश दे दिया है कि न्यू इंडिया क्या चाहता है।
गोस्वामी तुलसीदास ने अपने एक दोहे में कहा है:
तेहि बुझाव घन पदवी पाई...
गोस्वामी तुलसीदास के इस दोहे का अर्थ है कि आग से पैदा धुआं मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है। शिक्षकों का अपमान, परस्पर गाली-गलौज, निराधार आरोप, घृणा और वैमनस्य का माहौल, असहमति की आवाज़ों पर हमले और उन्हें गोलियों की गूंज से खामोश करने का दुस्साहस, इतिहास से छेड़छाड़, परिसरों में टैंक रखने की वकालत, बोलने और किसी भी माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी...ये सब उस अग्नि से उठ रहे धुएं में साफ नजर आ रहे थे, जो बीते करीब साढ़े तीन साल से देश के युवा और छात्रों के ऊपर मंडरा रहा था। यह धुंआ अब मेघ बनकर बरसना शुरु हो गया है, और जैसा कि तुलसीदास ने अपने दोहे में कहा है, मेघ ने वर्षा रूप लेकर इस आग को बुझाने का काम शुरु कर दिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय और हाल ही में हुए दूसरे छात्र संघों के चुनाव के नतीजे बताते हैं कि युवा और छात्रों का उस आख्यान या नैरेटिव से मोहभंग हो रहा है, जिसके बीज बीते तीन-साढ़े तीन सालों में बोए गए हैं।
ये तथ्य है कि अलग – अलग छात्र संघ चुनावों में अलग-अलग विचारों के छात्र संघों ने जीत हासिल की है, और इन सभी के अलग-अलग अर्थ और संदेश हो सकते हैं, लेकिन जिस विचारधारा के छात्र संघों की हार हुई है, उसका संदेश एक ही है, नफरत की सियासत किसी को मंजूर नहीं है।
Published: 13 Sep 2017, 8:36 PM IST
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Published: 13 Sep 2017, 8:36 PM IST