गाजियाबाद का एक प्रतिभाशाली हॉकी खिलाड़ी जिसमें कभी देश के लिए खेलने की संभावना दिखती थी। लेकिन ऐसे हुए कि आज वह सिर्फ 20 साल की उम्र में पंक्चर ठीक कर रहा है। स्टेट चैंपियनशिप में गोल्ड मैडलिस्ट यह खिलाड़ी ये सब उसी कॉलेज के आगे कर रहा है जहां वो कभी हॉकी खेलता था। इस खिलाड़ी का नाम नौशाद मेव है। कभी उसे लेफ्ट आउट का बेहतरीन खिलाड़ी कहा जाता था। पिता की मौत और परिवार के प्रति जिम्मेदारी ने उसे ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया। 12 साल की उम्र में हॉकी खेलना शुरू करने वाले इस खिलाड़ी ने 18 साल की उम्र में स्टिक खूंटी पर टांग दी।
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गाजियाबाद में खेल शिक्षक परवेज़ अली बताते हैं कि 3 साल पहले इस लड़के को उन्होंने हॉकी खेलते देखकर यह कहा था कि इस लड़के को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने से कोई रोक नहीं पाएगा। तब नौशाद स्टेट चैंपियनशिप में खेल रहा था। वो शम्भुदयाल इंटरकॉलेज का छात्र था और महामाया स्टेडियम गाजियाबाद में प्रैक्टिस करता था। शम्भुदयाल कॉलेज इसी नौशाद पर गर्व करता था और वो एक सितारा बन चुका था।
मगर इन तीन सालों में नौशाद की दुनिया बदल गई। उसके पिता को अल्लाह ने बुला लिया और कोच को 'भगवान' ने। पिता के चले जाने के बाद घर की जिम्मेदारियों का बोझ उस पर आन पड़ी। नौशाद को मजबूरन अपने पिता की पंक्चर की दुकान संभालनी पड़ी।
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20 साल का नौशाद मेवाती गाजियाबाद के इस्लामनगर इलाके में एक 60 गज के मकान में अपनी मां के साथ रहता है। साल 2015 में अपने पिता को खोने के पहले उसकी जिंदगी में हॉकी की बड़ी अहमियत थी। सिर्फ छठी कक्षा से हॉकी खेलना शुरू करने वाले नौशाद के सपने की उम्र सिर्फ 2015 तक थी जब उसने अपने पिता की पंक्चर की दुकान संभाल ली जो उसके ही कॉलेज के बाहर थी। हिम्मत तो तब भी बहुत टूटी मगर कोच के सहारे से हॉकी खेलना उसने इसके बाद भी जारी रखा मगर 2018 में उसके हॉकी के 'पिता' कोच रामनिवास त्यागी की मौत के साथ ही उसका सपना टूट गया और उसने हॉकी से तौबा कर ली।
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गाजियाबाद में जीटी रोड स्थित शम्भुदयाल कॉलेज के लिए खेलते हुए नौशाद 12 साल की उम्र में पहली बार मिर्ज़ापुर खेलने गया। 2015 में ग़ाज़ियाबाद में स्टेट चैंपियनशिप में वो गोल्ड मैडल हासिल करने वाली टीम का हिस्सा था। अब इसी कॉलेज के बाहर वो एक ठेली पर सजाई हुई दुकान पर पंक्चर लगाता है। नौशाद बताता है "मेरे खेल में परिवार में किसी की कोई रुचि नही थी। मैं एक सीनियर खिलाड़ी विनोद से प्रभावित हुआ था। कॉलेज में खेल होता था मुझे लगा मैं खेल सकता हूं तो खेलने लगा। लड़के बताते थे कि नेशनल खेलने पर सरकारी नौकरी मिल जाएगी। इसलिए मैं सरकारी नौकरी पाना चाहता था इससे मेरे परिवार की ग़रीबी दूर हो सकती थी। जब भी स्टिक से बॉल मारता था तो मुझे लगता था कि मैं अपनी ग़रीबी को दूर फेंक रहा हूं। मगर मेरी बॉल तो दूर चली गई मगर मेरी ग़रीबी वापस आ गई। अब्बू को नहीं जाना चाहिए था वो वक़्त से बहुत पहले चले गए । अम्मी को खेल से क्या मतलब ! एक बहन की शादी भी करनी थी। एक बड़े भाई हैं वो वेल्डिंग का काम करते हैं। हमारी पूरी कोशिश यह रहती है कि घर की जरूरतें पूरी हो। हॉकी ऐसा कर सकती थी मगर मैं पंक्चर जोड़ना नहीं छोड़ सकता था उससे मेरे घर में आटा आता है। हॉकी से क्या मिलता है ! मेरी अम्मी की समझ में तो यही आया ! अब हॉकी क्रिकेट तो नहीं है न! दो साल पहले छोड़ दी थी स्टिक! अब पंक्चर जोड़ कर 300 ₹ हर दिन कमा लेता हूं।"
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जुडो कोच परवेज़ अली बताते हैं कि अब वो नौशाद के लिए कुछ करना चाहते हैं और इसके लिए समर्थन जुटा रहे हैं, दरअसल वो कभी नहीं चाहते हैं पैसे के अभाव के कोई प्रतिभा दम तोड़ जाएं। वो जुडो के कोच हैं मगर नौशाद का निर्देशन करेंगे। उसे मैदान पर लौटना होगा। सिर्फ 10-12 हजार महीना रुपये न होने पर कोई प्रतिभा मरने नहीं दी जाएगी।
जिंदगी के थपेड़ों के बीच खेल को लेकर नौशाद का उत्साह अब कमज़ोर पड़ चुका है। उससे बातचीत में साफ़ लगता है कि अब उसे कोई उम्मीद नहीं है। हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है। मगर उदीयमान प्रतिभाओं को संजो कर रखने का कोई सरकारी प्लान दिखाई नहीं देता है। इसलिए नौशाद जैसा सूरज निकलने से पहले ही अस्त हो जाते हैं। नौशाद की अम्मी नसीमा कहती है"मैं कुछ नहीं कह सकती"।
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