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दक्षिण अफ्रीका में एक ऐसा कानून था जिसके कारण आठ साल से ऊपर की उम्र वाले एशियाई लोगों को पंजीकरण के लिए उंगलियों के निशान देने पड़ते थे। यह कानून उनपर न सिर्फ कई कर थोपता था, उनके यात्रा अधिकार भी सीमित और प्रतिबंधित कर दिए जाते थे। इतना ही नहीं हिन्दू या मुस्लिम रीति-रिवाजों से होने वाले विवाह भी अवैध ठहरा दिए गये थे। भारत से बीवी-बच्चों को लाने पर भी प्रतिबंध था। गांधीजी ने भारतीय समुदाय को इन कानूनों की अवहेलना के लिए लामबंद किया। अपनी ही पत्नी और बहुओं को प्रतिरोध में गिरफ़्तारी देने के लिए राजी किया जिसका नतीजा हुआ कि ऐसी महिलाओं की एक बहुत बड़ी फौज लामबंद होकर सामने आ गई। इस अहिंसक संघर्ष और हड़ताल में सात साल भले लगे हों, आखिरकार 1913 में जान स्मट्स की दक्षिण अफ्रीकी सरकार नरम पड़ी। इसी के अगले साल महात्मा गांधी भारत के लिए वापस रवाना हुए।
20,000 से ज्यादा भारतीय चीनी बागानों, कोयला खदानों और रेलवे में काम करते थे लेकिन इन्हें सोने की खानों में जाने की अनुमति नहीं थी
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गांधी मुजफ्फरपुर पहुंचे। कमिश्नर को चिट्ठी लिखी कि उनकी यात्रा किसानों की मुश्किलों को परखने, उनकी जांच के लिए है, न कि किसी नए आंदोलन के लिए। इस जांच में अफसरों की मदद भी मांगी। उन दिनों किसानों को बहुत कम पारिश्रमिक मिलता था। उन्हें नील की खेती के लिए मजबूर किया जाता और वे अवैध उपकर (सेस) के साथ ही कारखाना मालिकों और उनके एजेंटों का उत्पीड़न झेलने को अभिशप्त थे। गांधीजी किसानों को भड़काने के आरोप में अदालत में पेश किए गए। वे जेल जाने को तैयार थे लेकिन जांच रोकना गंवारा नहीं था। आखिरकार सरकार ने नरमी बरतते हुए एक आयोग बनाया जिसमें गांधी भी नामित हुए और शिकायतों के निस्तारण के लिए अंततः 1918 में एक कानून बनाना पड़ा।
25,000 शपथपत्र गांधीजी ने किसानों और बड़ी संख्या में महिलाओं और दलितों से एकत्र किए।
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एक ऐसा ‘काला कानून’ जो बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया या ज्यूरी के राजनीतिक मामलों की सुनवाई और बिना मुदमा चलाए ‘संदिग्धों’ के नाम पर हिरासत में रखने की मनमानी करने की छूट देता था। इससे भारतीयों में आक्रोश था और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने तो विरोध में 1915 में मिला अपना ‘नाइटहुड’ का सम्मान तक वापस कर दिया था। गांधी ने इस काले कानून के खिलाफ 6 अप्रैल को राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह का आह्वान किया। 13 अप्रैल के जलियांवाला बाग जैसे नरसंहार ने ऐसा आक्रोश फूंका कि देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन और हिंसा शुरू हो गई। यह कानून कभी लागू नहीं हो सका।
379 निर्दोष लोग मारे गए थे 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला नरसंहार कांड में।
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रॉलेट एक्ट और जलियांवाला बाग नरसंहार से स्तब्ध कांग्रेस ने स्व-शासन के लिए दबाव बनाने का संकल्प लिया और अगस्त-सितंबर, 1920 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का अह्ववान किया। ब्रिटिश सामान के बहिष्कार की अपील की गई। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों से अपने बच्चों को निकालने और सभी सरकारी संस्थाओं के बहिष्कार के साथ आम सभाएं और हड़ताल करने के निर्णय लिए गए। लेकिन इसी बीच गोरखपुर में चौरीचौरा कांड हो गया जिसके बाद गांधीजी ने फरवरी, 1921 में आंदोलन अचानक वापस लेने की घोषणा कर दी। इस घटना में उग्र भीड़ ने एक थाने को आग के हवाले कर दिया था।
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कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव पारित किया तो ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ शुरू करने का फैसला हुआ। गांधीजी ने अंग्रेजों को एकाधिकार देने वाला नमक कानून तोड़ने का फैसला किया। उन्होंने साबरमती से अस्सी लोगों के साथ मार्च शुरू किया लेकिन यात्रा आगे बढ़ने के साथ ही हजारों लोग जुटते गए। देश भर में इसका संदेश गया और पेशावर से असम और मालाबार से आंध्र प्रदेश तक स्वत:स्फूर्त विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। यह सब गांधी-इर्विन समझौते के साथ थमा जिसके साथ ही इस दौरान गिरफ्तार सभी भारतीयों की रिहाई हुई और गांधी को लंदन गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण मिला।
60,000 लोग नमक सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार हुए या हिरासत में ले लिए गए
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कांग्रेस ने 1939 में युद्ध को लेकर ब्रिटिश प्रयासों का यह कहकर समर्थन देने से इनकार कर दिया था कि भारत को पूर्ण स्वराज के आश्वासन से पहले कुछ भी संभव नहीं है। कांग्रेस के मंत्रियों ने प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया और लोगों को युद्ध में अंग्रेजों की मदद करने से दूर रहने को कहा गया। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, भारतीय व्यापारी वर्ग और अन्य कुछ लोग कांग्रेस के प्रस्ताव के विरोध और ब्रिटिश हुकूमत के समर्थन में आ गए। अगस्त, 1942 में महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया और आजादी के लिए अंतिम धक्का देने के तौर पर भारतीयों से ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। इसके 24 घंटे से भी कम समय में सभी कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें जेल में डाल दिया गया।
1,00,000 लोग भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तार हुए और 26,000 लोगों को ‘भारत रक्षा नियमों’ के तहत दोषी ठहराया गया था
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अगस्त में कलकत्ता के दंगों में पांच हजार लोग मारे गए और इसके छः सप्ताह बाद पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुल नोआखाली में दंगे भड़क उठे। महात्मा गांधी ने वहां का दौरा करने का फैसला किया। अमीर हिन्दू तो इलाका छोड़कर भाग गए लेकिन गरीब मारे गए या फिर उनका धर्मांतरण कर दिया गया। बिहार में भी असर पड़ा, जवाबी हिंसा और हत्याएं हुईं, तनाव चरम पर था। लेकिन तभी गांधी ने अपने जीवन की परवाह न करते हुए गांव-गांव, घर-घर पहुंचने के लिए पैदल मार्च का फैसला ले लिया। गांधी तब 77 वर्ष के थे, नंगे पैर चलते, हर रात किसी नए गांव में बिताते, हर दिन प्रार्थना सभाएं करते, रामधुन बजाते और मुसलमानों-हिन्दुओं दोनों को संबोधित करते। उनके रास्ते में तमाम बाधाएं खड़ी की गईं। सड़कें खोद दी गईं, संकरे रास्तों पर रात में मिट्टी और गंदगी डाल दी जाती। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ने वाला था! उन्हें तो रुकना नहीं था। हिन्दुओं की रक्षा के लिए सेना भेजने की मांग करने वालों को उनका जवाब था: ‘कायरों की रक्षा कोई भी पुलिस या सेना नहीं कर सकती’। आखिर उन्होंने अकेले दम पर शांति बहाल कराई।
1,00,000 हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई महिलाओं का अपहरण, धर्मांतरण या बलात्कार किया गया
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दिल्ली में चल रहे स्वतंत्रता दिवस के उत्सव से दूर 1947 के अगस्त और सितंबर में गांधी जी कलकत्ता में थे और विभाजन के दौरान लगाई गई सांप्रदायिकता की आग को बुझाने की कोशिश कर रहे थे। आजादी से दो दिन पहले 13 अगस्त को गांधी बेलियाघाट में जीर्ण-शीर्ण हालत में छोड़ दी गई हैदरी मंजिल में रहने चले गए। यहां एकमात्र रहने लायक बचे कमरे में गांधी 7 सितंबर तक मनु, आभा गांधी और अपने साथियों के साथ रहे। यहीं पर उन्होंने 31 अगस्त को अनिश्चितकालीन उपवास शुरू किया और 4 सितंबर को तोड़ा जब हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने उनसे मुलाकात की, हथियार सौंपे और उनसे अपना उपवास तोड़ने का अनुरोध किया।
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