यूपीए सरकार ने 2022 तक सौर ऊर्जा से 20 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा था, लेकिन जो काम 60 साल में हुआ, उसे पांच साल में करने के दावे को साबित करने के लिए मोदी सरकार ने इस लक्ष्य को पांच गुणा बढ़ा दिया। दावा किया कि 2022 तक देश में 1 लाख मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन होगा। इससे वाहवाही तो हुई, लेकिन अब जमीनी स्थिति उस बड़बोलेपन की पोल खोल रहे हैं। लगभग चार साल बीत चुके हैं और अब तक सौर ऊर्जा क्षमता के लक्ष्य का केवल 26,025 मेगावाट यानि 26 प्रतिशत ही लक्ष्य हासिल हो सका है। वहीं, भारतीय सौर बाजार पर चीन का कब्जा हो चुका है।
यूपीए सरकार ने जब जवाहर लाल नेहरू सौर मिशन शुरू किया था तो सरकार को अंदाजा था कि घरेलू सौर सेल और मॉड्यूल बनाने वाले उद्योगों की क्षमता काफी कम है, इसलिए उसने साल 2013 में घरेलू उद्योग को प्रमोट करने के लिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों के मुताबिक डोमेस्टिक कंटेंट रिक्वायरमेंट (डीसीआर) की पॉलिसी बनाई। इसमें प्रावधान किया गया था कि जो सौर ऊर्जा परियोजनाएं डीसीआर श्रेणी के तहत बनाई जाएंगी, उसमें घरेलू सौर सेल और मॉड्यूल इस्तेमाल होंगे।
अगले साल मोदी सरकार ने सौर ऊर्जा का लक्ष्य तो बढ़ा दिया, लेकिन डीएसआर पॉलिसी को दरकिनार कर दिया। इतना ही नहीं, साल 2015 में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की उस सिफारिश को भी नहीं माना, जिसमें चीन, ताईवान, मलेशिया से आयात हो रहे सौर पैनल और ग्लास पर एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाने को कहा गया था। इस वजह से देश के सौर ऊर्जा बाजार पर चीन का 80 फीसदी कब्जा हो गया है।
चीन का सस्ता माल
चीन से आयातित सौर पैनल घरेलू उद्योगों में तैयार पैनल से लगभग आधे कीमत पर उपलब्ध हैं। यही वजह है कि भारत में ज्यादातर सौर ऊर्जा प्लांट में चीन से आयातित सौर पैनल लगाए गए और अभी भी लगाए जा रहे हैं। हालांकि उनकी गुणवत्ताअच्छी नहीं है। सौर ऊर्जा उद्योग से जुड़े एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि एक सौर ऊर्जा प्लांट की उम्र कम से कम 25 साल होती है। उसके बाद उसकी उत्पादन क्षमता कम होती चली जाती है, लेकिन चीन से आयातित सौर पैनल की गुणवत्ता 20 से 25 फीसदी कम है यानी कि इन प्लांट की उत्पादन क्षमता 15 से 18 साल बाद कम होने लगेगी।
वहीं लक्ष्य पाने की जल्दबाजी के चलते मोदी सरकार ने अपना सारा ध्यान बड़ी सौर ऊर्जा परियोजनाओं पर लगाया और घरों की छतों पर लगने वाले सौर प्लांट पर ध्यान नहीं दिया गया। यही वजह है कि तय लक्ष्य के मुताबिक, छतों पर लगने वाले (रूफटॉप सोलर) प्लांट से 2022 तक 40 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन किया जाना है, लेकिन चार साल बीतने के बाद अभी केवल 14,43.74 मेगावाट (3.60 प्रतिशत) ही क्षमता हासिल हो सकी है। इसमें भी सरकार का ध्यान घरों की बजाय संस्थानों पर अधिक है।
सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरमेंट की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, अब तक रूफटॉप सोलर प्लांट का जो लक्ष्य हासिल किया गया है, उसमें 70 फीसदी हिस्सेदारी औद्योगिक एवं वाणिज्यिक इकाइयों की है, जबकि केवल 20 फीसदी रिहाइशी इकाइयों और 10 फीसदी अन्य की है। इस स्कीम के तहत सरकार ने 23,450 करोड़ रुपये का इन्सेंटिव देने की घोषणा की थी। इसमें से 14,450 करोड़ रुपये बिजली वितरण कंपनियों को दिए जाने हैं, जबकि रिहायशी उपभोक्ताओं को 9,000 करोड़ रुपये देने का वादा किया गया था।
सरकार के उतवालेपन के कारण जब घरेलू उद्योगों का नुकसान बढ़ता गया तो उन्होंने सरकार पर दबाव बढ़ाया, तब जाकर 30 जुलाई 2018 को सोलर इंपोर्ट पर सेफगार्ड ड्यूटी लगाई गई। लेकिन, इसका असर उल्टा हुआ। देश में जिन कंपनियों ने सौर परियोजनाओं के टेंडर हासिल कर लिए थे, उन्होंने अपना काम धीमा कर दिया, बल्कि कंपनियों ने नए टेंडर लेने से मना ही कर दिया। इस कारण लक्ष्य को हासिल करना और ज्यादा मुश्किल हो गया है।
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