केंद्र की मोदी सरकार ने राफेल विमान सौदे में फ्रांस के साथ नया समझौता करने के पीछे सबसे बड़ा आधार मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार द्वारा सौदे में किए गए विलंब को बताया है। सरकार ने कहा है कि देश की तात्कालिक सुरक्षा के लिए मोदी सरकार को 36 विमान उड़ंतु यानी फ्लाई अवे हालत में लेना पड़े।
केंद्र सरकार ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने जवाब में बताया कि पड़ोसी देशों द्वारा अपने लड़ाकू विमानों के बेड़े को आधुनिक बनाने और सुरक्षा कारणों की वजह से पिछली यूपीए सरकार के करार की जगह नया समझौता करना पड़ा है। पिछले करार के मुताबिक कुल 126 राफेल विमान फ्रांस से खरीदे जाने थे, जिसमें से 108 बाद में भारत में निर्मित होने थे।
लेकिन, सरकार ने अपने जवाब में इन 36 लड़ाकू विमानों की कीमत नहीं बताई है, क्योंकि कोर्ट ने सरकार को यह जानकारी गोपनीय तौर पर बंद लिफाफे में देने को कहा था। सरकार ने तर्क दिया कि 36 विमानों की तकनीकी जानकारियां सार्वजनिक इसलिए नहीं की गईं, क्योंकि इससे प्रतिद्वंदी देशों को भारत की रक्षा तैयारियों की जानकारी मिल सकती थी।
सरकार ने इस बारे में जो शपथ पत्र सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया है उसमें कहा गया है कि, ‘दुश्मन देशों ने अपने पुराने लड़ाकू विमानों को अपग्रेड करवा दिया था। जबकि हमारे 126 विमानों की खेप पहुंचने में देरी हो रही थी।‘ सरकार ने इस शपथ पत्र की प्रति याचिकाकर्ता को भी सौंपी है। सरकार ने कहा है कि, ‘2010 से 2015 के बीच हमारे पड़ोसी देशों ने अपने लड़ाकू विमानों को न सिर्फ आधुनिक किया, बल्कि उन्होंने अपने लड़ाकू विमानों के बेड़े में 400 विमान शामिल कर लिए, जोकि 20 स्कॉर्डन के समकक्ष होते हैं।‘ शपथ पत्र में कहा गया है कि, ‘हमारे पड़ोसी मुल्कों ने न केवल चौथी पीढ़ी बल्कि पांचवीं पीढ़ी के विमानों को भी अपने बेड़ों में शामिल करने की तैयारी शुरु कर दी थी, और इस तरह के हालात देश की सुरक्षा के लिए विकट और चिंताजनक हो रहे थे।‘
फ्रांस विमान सौदे से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक लिमिटेड को बाहर रखे जाने के सवाल पर शपथपत्र में सरकार खामोश है और इसका कहीं भी जिक्र तक नहीं किया गया है कि उसने कोई प्राईवेट पार्टनर यानी अनिल अंबानी की रिलायंस कंपनी को कहीं भी करार में हिस्सेदार नहीं बनाया है।
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रोचक बात यह भी है कि सरकार ने राफेल मामले में 22 सितंबर 2018 को पीआईबी द्वारा जारी किए गए प्रेस नोट को इस शपथ पत्र के साथ लगाया है। यह प्रेस नोट तब जारी किया गया था, जब फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने एक इंटरव्यू में कहा था कि रिलायंस कपंनी को इस सौदे में ऑफसेट पार्टनर बनाने का दबाव मोदी सरकार की तरफ से बनाया गया था। सरकार ने इस प्रेस नोट मे कहा था कि दसॉल्ट और रिलायंस के बीच साझा वेंचर करार पूरी तरह दो निजी कंपनियों के बीच का मामला है और भारतीय कंपनी का चयन दसॉल्ट ने अपने विवेक से किया है।
लेकिन सरकार ने इस मामले में जांच की मांग करने वाले एनजीओ कॉमन कॉज़ को राफेल सौदे से जुड़े दस्तावेज़ सौंपने से इनकार कर दिया। जबकि सरकार ने दस्तावेज़ खुद ही पिछली सुनवाई में कोर्ट में पेश किए थे। सुप्रीम कोर्ट ने तब कहा था किजो दस्तावेज़ सार्वजनिक नहीं हैं, कम से उन्हें तो कोर्ट में पेश किया जाए, सरकार ने इस बात का फायदा उठाते हुए याचिकाकर्ता को दस्तावेज़ नहीं सौंपे।
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अदालत में सरकार द्वारा 16 पन्नों का दस्तावेज सौंपा गया है, जिसमें सबसे ऊपर लिखा है याचिकाकर्ता की कॉपी। इसमें नौ पन्नों में तो मात्र राफेल सौदे के निर्णय लेने की पूरी प्रक्रिया की कहानी बयान की गई है। पांच पन्ने ऑफसेट पार्टनर के मामले में उठाए गए मुद्दों का जवाब देने मे जाया कर दिए। बाकी दो पन्नों में रक्षा मंत्रालय का वह प्रेस नोट है जो पीआईबी ने 22 सितंबर को सरकार की सफाई में जारी किया था।
शपथ पत्र में कहा गया है कि 36 राफेल विमानों की खरीद 2013 में अपनाई गई रक्षा खरीद की नई प्रक्रिया का पालन करते हुए की गई। शपथ पत्र आगे कहता है कि 36 विमानों की खरीद के लिए भारत की ओर से विशेष वार्ताकार टीम बनाई गई। इसी टीम ने फ्रांस की तरफ से नियुक्त टीम से एक साल से भी अधिक समय तक वार्तालाप का सिलसिला चलाया। उसके बाद ही रक्षा मामलों व कैबिनेट कमेटी की संस्तुति ली गई।
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