यूपी और सुदूर बिहार, झारखंड व बंगाल समेत कई राज्यों की ओर दिल्ली-एनसीआर के श्रमिकों और दिहाड़ी मजदूरों के पलायन ने केंद्र और राज्य सरकारों को हिलाकर रख दिया है। 24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 21 दिन के लॉकडाउन की अकस्मात की गई घोषणा के तत्काल बाद दिल्ली के रास्ते हरियाणा व पंजाब के शहरों से आए लाखों श्रमिक बदहवासी में पैदल ही गांवों की ओर बढ़ गए। कई जगहों पर इन बेकसूर लोगों की पुलिस ने बर्बरता से पिटाई भी की। इससे मजदूरों के पांव कतई नहीं ठिठके। वे हर सूरत में दिल्ली और बाकी शहरों को छोड़ गांवों को कूच कर रहे हैं।
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दिल्ली को जोड़ने वाले सभी प्रमुख सीमा क्षेत्रों में पैदल सैकड़ों मील दूर अपने गांवों की ओर पैदल भागने को विवश लोगों की जुबां पर अपनी अपनी कहानियां हैं। बदहवासी में भाग रहे इन श्रमिकों का कहना है कि "कोरोना वायरस से कहीं अधिक वे बिना आमदनी के दिल्ली एनसीआर या दूसरे शहरों में किराये के ठिकानों को एक माह भी वहन नहीं कर सकते। इधर 21 दिन के देशव्यापी लॉकडाउन के बाद दिल्ली एनसीआर छोड़ रहे श्रमिकों का कहना है जब रोजगार ही नहीं रहा तो दिल्ली मे रहने का खर्च व बच्चों की स्कूल फीस कैसे भरेंगे और अपने गांव में परिवार के लिए हर महीने खर्च कहां से भेज सकेंगे। ज्यादातर पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अपील का कोई असर नहीं हुआ।
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पश्चिमी यूपी के बागपत तहसील के बली गांव निवासी सुशील कुमार शर्मा शाहदरा के रोहताश नगर में एक नामी ब्रांड की मिठाई की दुकान में काम करते थे। वे कहते हैं, "22 मार्च की रविवार को पीएम मोदी ने जनता कर्फ़्यू का ऐलान जो किया, खाने पीने की दुकानों को बंद करने के लिए पुलिसवालों को दुकानदारों से बदसलूकी करने का लाइसेंस मिल गया। हमारी दुकान को जल्द खराब होने वाली मिठाइयों का लाखों का नुकसान उठाना पड़ा। इस तरह दिल्ली के आजाद मार्केट में सेल्समैन का काम करने वाले अल्मोड़ा के किशन जोशी दुखी मन से कहते हैं, "शहर में तो पड़ोसी भी मुसीबत में मदद नहीं करेंगे, अब जाकर अपने गांव रहेंगे तो हर कोई आड़े वक्त हाथ बंटाने खड़ा हो जाएगा।"
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श्रमिकों पर इस देशव्यापी संकट पर इंटक के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अशोक सिंह कहते हैं, "दिल्ली में भवन व निर्माण क्षेत्र के अलावा रेहड़ी पटरी, दैनिक मजदूरी करने वालों, होटल रेस्तरां, मॉल व हजारों शोरूम व छोटी मोटी फैक्ट्रियों में लाखों लोगों की रोजी रोटी चलती थी। वह सब ठप हो गया। काम धंधा बंद होने से उनकी सबसे पहले नौकरी से छुट्टी हो गई। सरकार कहती है कि उनके घर के पतों पर उन्हें भोजन पानी भिजवाया जाएगा लेकिन जिनके रहने का ही कोई अता पता ही नहीं, कोई छत नहीं, तो अपने-अपने गांवों को वापस लौटने की अलावा विकल्प ही क्या था।
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दिल्ली से अपने परिवार के साथ गावों की ओर कूच कर रहे कई मजदूरों से बात हुई। उनमें से ज्यादातर का कहना है कि बिना रोजगार के हम लोग खाली बैठे दिल्ली में कैसे गुजर बसर करेंगे। कई श्रमिकों का कहना है कि यह नोटबंदी की तर्ज पर लिया गया ऐसा पैंतरा था जिसमें इस बारे में जरा भी सोचा नहीं गया कि अचानक बेरोजगार हुए देश के करोड़ों श्रमिक व असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूर बिना सरकारी मदद के जिंदा कैसे रह सकेंगे। गांवों की ओर लौट रहे श्रमिकों मानते हैं कि हमें चंद घंटे नहीं बल्कि कम से कम एक सप्ताह का वक्त दिया जाना चाहिए था, ताकि लोग अपना बंदोबस्त करके अगला कदम उठाते। बिहार यूपी बॉर्डर के सिताब दियारा के राम सुमेर कहते हैं, "मैं दिल्ली के नारायणा की एक फैक्टरी में रात की ड्यूटी पर था। सुबह पता लगा कि कर्फ्यू लग चुका है। उसका भाई हरियाणा में था। दिल्ली की ओर आने पर उनके साथ कई श्रमिकों को पुलिस ने निर्ममता से पीटा। दिल्ली के आंनद विहार टर्मिनल पर पूर्वी यूपी के बलिया जाने के लिए दो दिन से बस के इंतजार में बैठे बैंकुठ लाल यादव ने कहा जो कुछ भी हुआ उसमें गरीब ही मरेगा। कोरोना से ज्यादा लोग अब भूख, बेरोजगारी और बिना रोजगार के परिवार के भरण पोषण की चिंता में मरेंगे।"
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सीटू महासचिव व पूर्व सांसद तपन सेन कहते हैं, "पीएम मोदी को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि उनका रात को 8 बजे का संबोधन सरकार के लिए उलटबांसी साबित होगा।" उनका भी मानना है लॉकडाउन होने के बाद सभी देशवासियों को संक्रमण से बचाव के लिए घरों के भीतर बने रहना बहुत अच्छा सुझाव था। लेकिन इस घोषणा का दूसरा पक्ष यह भी था कि लोगों के मन में रोजगार छिन जाने और अनिश्चितकाल के लिए रोजी रोटी का जो विकट संकट पैदा हुआ है उसके न केवल मेहनकश लोगों को बल्कि समूची अर्थव्यवस्था के लिए घातक परिणाम हो सकते हैं। लोगों का जीवन बचना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन महामारी के कारण व्यापक अफरातफरी का असर कम करने के लिए जरूरी है कि सभी जनधन खातों में लोगों को परिवार की गुजर बसर के लिए एक निश्चित राशि का हर माह ट्रांसफर हो। तपन सेन कहते हैं की श्रमिकों को लॉकडाउन की अवधि में श्रम मंत्रालय की ओर से मालिकों की ओर से बिना काम के वेतन देने का जो फरमान जारी हुआ है, वह पूरी तरह अव्यावहारिक व विशाल असंठित क्षेत्र के लिए पूरी तरह छलावा है।
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एटक महासचिव अमरजीत कौर भी श्रम मंत्रालय के पैकेज पर सवाल खड़े करती हैं। उनका कहना है कि यह पैकेज मात्र 3.48 करोड़ उन श्रमिकों को ही मामूली राहत देगा जो संगठित क्षेत्र में आते हैं। जबकि अंगठित सेक्टर मिलाकर करीब 9 करोड़ श्रमिक हैं इनमें से ज्यादातर रजिस्टर्ड नहीं हैं। मदद उन सबको चाहिए। कंस्ट्रक्शन बोर्ड वेलफेयर क्षेत्र में सरकार के पास 52000 करोड़ रूपए का कोष है। अमरजीत कौर का कहना है कि सरकार ध्यान रखे कि बड़ी तादाद में लोगों के रोजगार छिन गए। इससे विपदा से कई लोग घरों से बेघर हो गए। असंगठित क्षेत्र में कईयों के पास रोजगार मात्र 10- 15 दिन का ही होता था। ऐसे लोगों के सामने जिंदा रहने का संकट पैदा हो गया है।
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