देखिए न, कोई इंतजाम नहीं है। इस समय दोपहरी के एक बजे हैं। अभी तक कुछ खाया नहीं हूं। सुबह से ही रिक्शा लेकर यहीं हूं। काफी देर पहले एक सवारी मिली थी और किराया 40 रुपये मिला था। भूख भी लगी है और चिंता भी हो रही है। टकटकी लगाए हूं कि शायद कोई सवारी मिल जाए और चार पैसा कमा लूं। लेकिन उसकी कोई गुंजाइश नहीं लग रही है। इन चासील रुपयों में अभी जाकर किसी दुकान से 20 रुपये का च्यूड़ा और 20 रुपये का दही ले लूंगा, नहीं तो चार बजे दुकान भी बंद हो जाएगी और भूखे सोना पड़ेगा। च्यूड़ा-दही ले लूंगा, तो एक-दो बार का काम चल जाएगा। बस इसी तरह काम चल रहा है। कई बार एक-दो दिन भूखा भी रहना पड़ता है।
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यह कहते हुए सुरेंद्र राणा अपनी शर्ट ऊपर उठाकर पेट दिखाते हुए कहते हैं कि देखिए न पेट खाली नहीं लग रहा है। यह देखकर विख्यात हिंदी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की एक कविता की लाइन सहज ही दिमाग में कौंध जाती है, ‘पेट, पीठ दोनों मिलकर हैं एक।’ इंदिरापुरम के साईं मंदिर चौराहे पर सुरेंद्र जब मिले तो पेड़ की छाया में रिक्शे पर ही बैठे थे लेकिन रिक्शे की बंद छतरी के बावजूद उनकी निगाहें जैसे आसमान की ओर ताकतें हुए कुछ सवालों के जवाब तलाश रही थीं। शायद वही सवाल जो उनके दिमाग में चल रहे होंगे और जिनका जवाब उन्हें नहीं मिल पा रहा होगा।
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इसी बीच उनके समक्ष एक नया सवाल उपस्थित कर दिया जाता है कि क्या सोच रहे हैं? यह सुनते ही वह अपने सवालों को बीच में ही छोड़कर कहते हैं, कहां कुछ सोच रहा हूं। बस यही सोच रहा हूं कि आखिर इस तरह कब तक चलेगा। फिर खुद ही कहते हैं, जैसे-तैसे चल ही रहा है। यह पूछने पर कि कैसे चल रहा है, सुरेंद्र बताने लगे कि नहीं चल पा रहा है। जब कोई कमाई ही नहीं, तो चलेगा कैसे। कभी कुछ कहीं से मिल गया, तो कुछ दिन खिंच जाता है। कभी आस पड़ोस के लोग कुछ दे देते हैं। वे जानते हैं क्योंकि मैं यहां करीब 20 साल से हूं।
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सुरेंद्र इंदिरापुरम और खोड़ा के बीच से गुजरने वाले एनएच 24 के बगल में मंदिरों के पीछे रहकर गुजारा करते हैं। बताते हैं कि यहीं के फूल और पूजा सामग्री के दुकानदारों से मुश्किल के समय कुछ मदद मिल जाती है। बताया एक दिन समीप की पुलिस चौकी में कुछ थोड़ा राशन आदि मिला था। उससे कुछ दिन काम चल गया था। एक दिन स्थानीय पार्षद मीना भंडारी की ओर से भी कुछ सामान मिला था। इसके अलावा कहीं से कोई सरकारी मदद नहीं मिली। जैसे-तैसे जीवन बीत रहा है। हम मेहनत करके दो रोटी का इंतजाम करने वाले लोग हैं, लेकिन इस मुश्किल में उसके भी लाले पड़ गए हैं। पहले मंदिर के पास भी कुछ लोग खाना आदि बांटा करते थे। बंदी में वह भी बंद है। कोई कुछ देने भी नहीं आता।
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सुरेंद्र बिहार के अररिया के रहने वाले हैं। उनका अपना रिक्शा है। बहुत पहले किराये के रिक्शे से कमाकर अपना रिक्शा खरीद लिया था। इसलिए उन्हें रिक्शे का किराया नहीं देना पड़ता। होली के बाद गांव से लौटे थे और जल्दी ही लॉकडाउन हो गया। कहने लगे कि लौट के घर भी तो नहीं जा सकते। कोई साधन नहीं। कैसे जाएं। ऊपर से निकलें भी तो रास्ते में पुलिस से लेकर तमाम तरह की दिक्कतें। सुन नहीं रहे हैं किस-किस तरह की दिक्कतें मजदूरों को झेलनी पड़ रही हैं। लोग मर जा रहे हैं। ट्रेन चढ़ जा रही है लोगों के ऊपर।
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बीच-बीच में सुरेंद्र रुक जाते हैं और आसमान की ओर ताकने लगते हैं। फिर कहते हैं, इससे लगता है कि जहां जैसे हैं, वैसे ही पड़े रहे हैं। कम से कम किसी तरह जिंदा तो रहेंगे। कोई सूरत नहीं नजर आ रही है, सिवाय भुगतते रहने के। अभी 40-50 दिन बाद भी लग नहीं रहा है कि जल्दी कुछ ठीक हो पाएगा। अगर ठीक भी हो गया तो सवारियां मिलेंगी, इसको लेकर भी मन में दुविधा है। अब मरता क्या न करता। हमारा आधार यही रिक्शा है और हमारी मेहनत। कोशिश रहेगी कि यह दोनों किसी तरह बन रहें, तो शायद जीवन किसी तरह चलता ही रहे।
वह कहते हैं कि इसी भरोसे में इस दोपहरी में यहां बैठे हैं। बीच-बीच में भूख-प्यास लगने पर पान पी लेते हैं। बस कुछ बचा है तो उम्मीद जिसे अभी नहीं छोड़ पाया हूं। अंत में सुरेंद्र यह कहकर खुद को दिलासा देते हैं कि देखता हूं क्या होता है। फिलहाल तो जा रहा हूं च्यूड़ा-दही लेने नहीं तो वह भी नहीं मिल सकेगा और एक बार फिर रात को भूखे सोना पड़ सकता है। आज 40 रुपया मिल गया है। कल का कल देखेंगे।
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