भारत में नई पीढ़ी अब एक से ज्यादा भाषाएं सीख और बोल रही है। हाल में जारी जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि शहरी युवाओं में आधे से ज्यादा करीब 52 फीसदी युवा कम से कम दो भाषाएं जानते हैं। जबकि तीन भाषाएं बोलने वालों की तादाद 18 फीसदी है। ग्रामीण इलाकों में यह तादाद शहरी इलाकों के मुकाबले कम है। लेकिन आधारभूत ढांचे और शिक्षा-दीक्षा के स्तर की कमी ही इसकी मूल वजह है। दरअसल, कहीं रोजगार की मजबूरी तो कहीं करियर का विकास ही इन युवाओं को एक से ज्यादा भाषाएं सीखने पर मजबूर कर रहा है।
24 साल के देवाशीष बागची अपनी कहानी सुनाते हुए कहते हैं, “पहले मुझे सिर्फ बंगाली भाषा ही आती थी, लेकिन इससे रोजगार के मौके कम थे। पश्चिम बंगाल के बाहर मुझे इसी वजह से काम नहीं मिला। मैंने दोस्तों और एक स्थानीय संस्थान की सहायता से हिंदी सीखी। इससे मुझे दिल्ली में काम मिल गया।” बागची का कहना है कि एक से ज्यादा भाषाएं सीखने से उनका आत्मविश्वास तो बढ़ा ही है, दिल्ली जैसे शहर में वह ठीक-ठीक कमा रहे हैं। वह कहते हैं कि दिल्ली में तमाम खर्चों के बाद वह जितना पैसा बचा लेते हैं, उतना कोलकाता में कभी वेतन नहीं मिला।
पहले बंगालियों के अलावा पूर्वोत्तर राज्यों के युवा अपने राज्यों से बाहर जाने से कतराते थे। इसकी एक प्रमुख वजह थी किसी दूसरी भाषा का ज्ञान नहीं होना। खासकर हिंदी या अंग्रेजी जैसी संपर्क भाषा के ज्ञान के बिना अपने राज्य से बाहर निकलना मुश्किल होता था। लेकिन वैश्वीकरण और दक्षिणी राज्यों में सूचना तकनीक कंपनियों के बड़े पैमाने पर प्रसार की वजह से अब इन राज्यों के हजारों छात्र हर साल नौकरी के सिलसिले में वहां जा रहे हैं। लेकिन वहां महज अपनी भाषा से काम नहीं चलने वाला, इसलिए ये लोग कम से कम एक और भाषा के तौर पर हिंदी सीख रहे हैं।
कुछ शीर्ष इंजीनियरिंग कॉलेजों में तो अब बाकयदा फ्रेंच और जर्मन जैसी विदेशी भाषाएं भी सिखाई जा रही हैं, ताकि उच्च शिक्षा या शोध के लिए विदेश जाने वाले छात्रों को दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़े। अब मध्यम दर्जे के शहरों में भी ऐसे संस्थान खुल रहे हैं और उनमें दाखिला लेने वाले छात्रों की तादाद साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।
जनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, एक से ज्यादा भाषाएं सीखने के मामले में शहरी और ग्रामीण युवाओं के आंकड़ों में जमीन-आसमान का अंतर है। ग्रामीण इलाकों के युवाओं में से महज 22 फीसदी दो भाषाएं जानते हैं, जबकि तीन भाषाएं जानने वालों की तादाद महज पांच फीसदी है। इसके उलट शहरी युवाओं के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः 44 और 15 फीसदी है। देश की आबादी में दो भाषाएं जानने वाले पुरुषों की तादाद 31 फीसदी है और तीन भाषाएं जानने वालों की तादाद नौ फीसदी। महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा क्रमशः 26 और 7 फीसदी है। शिक्षा के प्रसार के साथ आने वाले दिनों में बहुभाषी लोगों की तादाद में और बढ़ोतरी की उम्मीद है। आंकड़ों के मुताबिक, नई भाषा सीखने वाले ज्यादातर युवा 20 से 24 साल की उम्र के भीतर हैं। इसी उम्र में करियर शुरू होता है। ऐसे में एक नई भाषा उनके करियर को तेजी से विकास की राह पर ले जा सकती है।
Published: undefined
लेकिन आखिर युवाओं में नई भाषा के प्रति दिलचस्पी क्यों बढ़ रही है? इस सवाल पर शिक्षाविदों का कहना है कि इसकी वजह मजबूरी और जरूरत दोनों है। महानगर के एक कॉलेज में समाजशास्त्र के प्रोफेसर डा. मनोतोष मंडल कहते हैं, “खासकर बीते एक दशक से रोजगार की तलाश में युवा भारी तादाद में अपने राज्यों से बाहर जाने लगे हैं। ऐसे में एक नई भाषा सीखना उनकी मजबूरी है। इसी तरह उच्चशिक्षा या शोध के लिए विदेश जाने वाले युवाओं के लिए अंग्रेजी के अलावा जर्मन या फ्रेंच जैसी प्रमुख भाषाएं सीखना मजबूरी है।” वह कहते हैं कि कुछ युवा शौक से भी नई भाषाएं सीख रहे हैं। लेकिन इसके पीछे रोजगार की मजबूरी या करियर की बेहतरी ही सबसे बड़ी वजह है।
एक अन्य समाजशास्त्री निरंजन जाना कहते हैं, “आने वाले समय में देश में ऐसे युवकों की तादाद तेजी से बढ़ने की उम्मीद है जो कम से कम दो या उससे ज्यादा भाषाएं जानते हों।” वह कहते हैं कि अमूमन तमाम युवा अपनी मातृभाषा के अलावा हिंदी या अंग्रेजी तो जानते ही हैं, अब उनमें अपने कामकाज के जगह की भाषा सीखने की ललक भी बढ़ रही है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined