आज (शनिवार 13 अक्टूबर, 2018) तड़के सितार की सरस्वती और मैहर घराने के संस्थापक बाबा अलाउद्दीन खान साहिब की इकलौती पुत्री, पं रविशंकर की पहली पत्नी और जाने माने सरोद वादक स्वर्गीय उस्ताद अली अकबर खां साहिब की बहन, अन्नपूर्णा देवी का मुंबई के एक अस्पताल में निधन हो गया। वे 93 वर्ष की थीं। पंडित रविशंकर से उनका एक पुत्र है।
बाबा का परिवार त्रिपुरा का रहने वाला था। गुरु की खोज करते करते वे रामपुर जा पहुंचे, जहांं उनको उस्ताद वज़ीर खां से तालीम मिली। फिर वे मैहर महाराजा के दरबार में आए, राजकीय गायक और महाराज के गुरू बने और बस वहीं के हो रहे। उनके सबसे प्रसिद्ध शिष्यों में खुद उनकी दो संतानें : अली अकबर और अन्नपूर्णा देवी , पंडित रविशंकर, पन्नालाल घोष, निखिल बनर्जी, शरण रानी माथुर सरीखे होनहार कलाकार थे।
रोज़ मैहर की कुलदेवी मां अन्नपूर्णा तथा सरस्वती के लिये सुबह-सुबह रियाज़ करने वाले बाबा के लिये मज़हब की दीवारें बेमानी थीं।| उनकी बेटी का नाम अन्नपूर्णा खुद मैहर महाराजा ने रखा था, और उनके लिये आगे जाकर बाबा ने कहा था कि वे किसी मायने में उनके दो अन्य बड़े होनहार शिष्यों : रविशंकर और अली अकबर खां से कमतर नहीं, बल्कि ध्रुपद अंग की शिक्षा उसको खास तौर से मैंने दी है।
लंबी और कठोर तालीम के साथ अपनी बेटी को बाबा ने यह सीख भी दी थी, कि संगीत आनंद से भगवान को अर्पण करने की चीज़ है। तुममें धैर्य है, इसलिये तुमको वह संगीत दूंगा, जिससे आंतरिक शांति मिले। इसलिए, गुण के आधार पर अपनी प्रतिभाशालिनी बेटी का ब्याह अपने हिंदू शिष्य रविशंकर से तब किया जब रविशंकर के नर्तक बड़े भाई उदयशंकर संगीत जगत के लिये अपरिचित थे।
इस विवाह से एक पुत्र का जन्म हुआ। पर जैसे जैसे ख्याति बढ़ी, दूरियां बढ़ने लगीं। अंतत: शादी टूट गई और अन्नपूर्णा देवी ने अंतर्मुखी बन कर खुद को और अपनी कला को दुनिया से अलग-थलग कर लिया। संगीत के गलियारों की कानाफूसी के अनुसार इसकी बड़ी वजह यह थी, कि महत्वाकांक्षी रविशंकर जी से उनको खास प्रोत्साहन नहीं मिला, और वे शुरू से अपने पिता की ही तरह वैराग्यमय तबीयत की रहीं। फिर भी, उनकी विरासत को थामने वाले उनके कुछ गिनेचुने शिष्य हैं : बाँसुरीवादक हरिप्रसाद चौरसिया जी, सितार वादक निखिल बनर्जी, बहादुर खां, आशीष खां, गायक निनय भरतराम और गौतम चटर्जी।
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जिनको अन्नपूर्णा देवी को सुनने का सौभाग्य मिला है, उनका कहना है कि जैसे सृष्टि लयमय आनंदमय है, वैसा ही लयदार और आनंदमय उनका वादन भी था। और, अपने गुरु तथा पिता की प्रतिभा का सबसे बड़ा अंश उनमें ही उतर आया था।| लेकिन, वे बाहर गाने बजाने से विरक्त पूरी तरह अपने संगीत में ही डूबी रहीं और अंतत: कई प्रतिभाशालिनी महिला कलाकारों की तरह चुपचाप दुनिया से चली गईं।
उनका मानना था, “हमारा संगीत पूर्ण समर्पण का है। यदि छात्र विनम्रता से इसकी साधना करता है, और उसमें धैर्य समर्पण और आहुति भाव है, तो निश्चय ही उसे वह मिलेगा जिसका महत्व और मूल्य उसके दिये से कहीं अधिक है।”
इस विलक्षण कलाकार की पुण्य स्मृति को प्रणाम |
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