नेहरू को याद करने के लिहाज से यह बहुत जटिल समय है। नेहरू जिस लोकतांत्रिक-सदाशय-बहुसांस्कृतिक भारत का सपना देखते और गढ़ते रहे, आज उसकी बुनियाद पर सबसे ज्यादा चोट की जा रही है। इस प्रक्रिया में उन सारे प्रतीकों को प्रश्नांकित नहीं, बल्कि लांछित किया जा रहा है, जिनके बीच इस भारत को पहचाना जा सकता है। इस क्रम में नेहरू-निंदा का एक सुनियोजित अभियान जैसे जारी है।
ख़ुद को व्यवहारवादी मानने वाली एक बहुत सतही दृष्टि नेहरू की कश्मीर नीति पर, नेहरू के समय की चीनी पराजय पर और नेहरू के बाद इंदिरा गांधी के उत्तराधिकार पर ही सवाल नहीं खड़े कर रही, अंततः नेहरू के पूरे चरित्र पर कीचड़ उछालने का काम कर रही है। कह सकते हैं कि यह काम भी पहले से चला आ रहा है और इसके दायरे में नेहरू से पहले गांधी हुआ करते थे।
लेकिन इन सबके बीच नेहरू को याद करना इसलिए ज़रूरी है कि अंततः जिस भारत में इतने सारे सवाल खड़े करने और दूसरों को लांछित करने की भी आज़ादी मिली, वह नेहरू का ही गढ़ा हुआ है। उन जैसा स्वप्नदर्शी और मानवीय नेता न होता, तो भारत और कुछ भी होता, यह भारत न होता, जिसकी लोकतांत्रिक जड़ों पर मट्ठा डालने की लगातार कोशिशें अब तक नाकाम रही हैं।
दरअसल नेहरू ने क्या किया कि ऐसा भारत बन पाया? उन्होंने लोकतंत्र को चुनावी राजनीति की बैसाखी के सहारे सत्ता तक पहुंचने का साधन नहीं रहने दिया, बल्कि इस देश का प्राण-तत्व बना दिया। ऐसा सिर्फ़ उन्होंने भावुक या जज़्बाती तक़रीरों के सहारे नहीं किया, बल्कि एक के बाद एक वे संस्थाएं खड़ी करके किया जिनकी वजह से भारत की लोकतांत्रिक मज़बूती को कई परतें मिलीं। ऐसी कई संस्थाएं रहीं, जिन्होंने अहम समय पर इस लोकतंत्र को बचाने का काम किया। ज्ञान-विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र, दर्शन और संस्कृति से जुड़ी संस्थाएं, तरह-तरह के विश्वविद्यालय और इन सबके साथ विराट औद्योगिक परियोजनाएं- इन सबको जोड़ कर नेहरू ने वह भारत बनाया जो तमाम झटकों के बीच कायम है।
जो लोग बड़ी मासूमियत से यह पूछते हैं कि इन सत्तर सालों में क्या हुआ, वे नहीं जानते कि दरअसल इन सत्तर सालों में धीरे-धीरे नेहरू का वह सपना ही परवान चढ़ा, जिसने एक देश की औसत उम्र 32 से बढ़ाकर 64 साल कर दी, जहां एक के बाद आईआईटी-आईआईएम और ऐसे ढेर सारे संस्थान बने, इसरो खड़ा हुआ और अंतरिक्ष में हिंदुस्तान ने ऐसी छलांग लगाई कि दुनिया भर के उपग्रह भेजने के काबिल हुआ। निस्संदेह यह एक सामूहिक प्रयत्न था, लेकिन इसे संभव करने वाली एक कल्पनाशील दृष्टि इसके पीछे न होती तो शायद यह सपना बिखर गया होता।
यह सच है कि अपने जीवन काल में भी नेहरू लगातार वैचारिक असहमतियों के बीच जिए। सुभाषचंद्र बोस को उन्होंने फासीवाद के ख़तरों से आगाह किया तो अपने राजनीतिक गुरु गांधी के ग्राम स्वराज्य को संदेह से देखा। अपनी राजनीति के उत्तरकाल में उन्हें लोहिया के हमले झेलने पड़े। पटेल से भी कई मुद्दों पर उनके मतभेद रहे। लेकिन आधुनिक दुनिया की उनकी समझ और सांस्कृतिक सहिष्णुता के प्रति उनकी निष्कंप कटिबद्धता उनकी इन असहमतियों पर भारी थी और सबको उनका मुरीद बनाती थी।
यह अनायास नहीं है, कि सुभाष चंद्र बोस ने अपनी आज़ाद हिंद फौज की एक ब्रिगेड का नाम नेहरू ब्रिगेड रखा था। यह भी अनायास नहीं है कि नेहरू ने देश को नहीं, जैसे पूरी दुनिया को बदलने की कोशिश की और अपने जीते-जी ऐसे वैश्विक नेता के तौर पर उभरे जिनकी ओर सब उम्मीद से देखते रहें। दो गुटों में बंटी दुनिया को नेहरू ने ही गुटनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाया, पंचशील की अवधारणा दी और विश्व शांति का मुहावरा दिया।
याद कर सकते हैं कि यह आज का भारत नहीं था जिसे उसकी आर्थिक हैसियत भी एक बल देती है- वह उपनिवेशवाद के जुए काट कर खड़ा हुआ एक नया राष्ट्र था, जिसके सामने बहुत सारी चुनौतियां थीं।
नेहरू को 40 करोड़ का एक ऐसा देश मिला था जिसे नफ़रत के चाकू ने बिल्कुल चीर कर रख दिया था। उस चाकू से देश ही नहीं बंटा, दिल भी बंट गए। इस घायल-ज़ख्मी हिंदुस्तान को नेहरू ने वहशी होने से बचाया। वह एक गरीब हिंदुस्तान था, जिसे 200 साल तक उसकी प्रतिभा से भी वंचित किया गया था। नेहरू इस गरीबी से भी लड़े- उन्होंने इसे सिर उठाकर चलने का अभिमान दिया।
बेशक, नेहरू की अपनी कुछ विफलताएं रही होंगी- लेकिन वे उनके विराट योगदान के आगे नगण्य मालूम पड़ती हैं। बीसवीं सदी के पांचवें दशक में जो राष्ट्र स्वाधीन हुए, उन्होंने या तो कम्युनिज़्म को स्वीकार किया, या किसी तानाशाह के अधीन हो गए या फिर उन्होंने बहुत जल्दी ख़ुद को सैनिक शासन के साये में देखा। शायद अकेला हिंदुस्तान है, जिसने उस दौर में आज़ादी हासिल करने के बाद लोकतंत्र को अपनाया और इसे कायम ही नहीं रखा, बल्कि अपने लिए अपरिहार्य बना डाला। निस्संदेह इस लोकतंत्र की अपनी मायूसियां हैं और इसको एक संपूर्ण वास्तविक लोकतंत्र की कई कसौटियों से गुज़रना बाकी है, लेकिन नेहरू न होते तो शायद यह आधे-अधूरे सपने जैसा आधा-अधूरा लोकतंत्र भी न मिलता।
सच तो यह है कि जो लोग नेहरू पर सवाल उठाते रहे हैं, वे इस लोकतंत्र को सबसे ज़्यादा चोट पहुंचाते रहे हैं। वे बरसों तक इस देश के संविधान को भी स्वीकार नहीं कर पाए। वे गंगा-जमुनी तहजीब को शक की नज़र से देखते रहे। उनके लिए मंदिरों-मस्जिदों के मुद्दे बड़े रहे। वे राष्ट्रवाद को बिल्कुल उन्माद में बदलते रहे और धर्म को अपनी राजनीति का उपकरण बनाते रहे। वे इस देश की बहुरंगी, इंद्रधनुषी विरासत की जगह बस एक रंग का स्थापत्य चाहते रहे।
उन्हें अगर ऐसा इकहरा भारत बनाने से कोई रोक पा रहा है, तो वह बहुलतावाद में भरोसा रखने वाले गांधी का वह शिष्य नेहरू ही है, जिसकी सींची हुई मिट्टी अब भी किसी भी तरह की कट्टरता के प्रतिरोध के लिहाज से बेहद उपजाऊ है। आखिर इस देश के खेतों में, यहां की नदियों में उसकी राख बिखरी हुई है। यह देश इसी विरासत से बनेगा और बचेगा।
Published: 14 Nov 2017, 9:09 AM IST
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Published: 14 Nov 2017, 9:09 AM IST